गायत्री उपासना मातृरूप में ही क्यों?

December 1991

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गायत्री महाशक्ति को नारी रूप में क्यों पूजा जाता है? जबकि अन्य सभी देवता नर रूप में हैं। इसी प्रकार यह भी प्रश्न उठता है कि गायत्री मंत्र में सविता देवता की प्रार्थना के लिए पुल्लिंग शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर उसे नारी रूप में ही क्यों माना गया?

इस प्रकार के प्रश्नों या शंकाओं के मूल आधार में मनुष्य की वह मान्यता काम करती है, जिसके अनुसार नर को श्रेष्ठ और नारी को निकृष्ट माना गया है। स्त्री का वर्चस्व स्वीकार करने में पुरुष अपना अपमान समझते हैं। इसका कारण नर में नारी के प्रति सामंत कालीन धारणाओं के अवशिष्ट संस्कार ही हैं। उसी से प्रभावित होकर उसे यह सोचना पड़ता है कि वह नारी शक्ति की पूजा क्यों करे? जब नर देवता मौजूद हैं तो नारी के आगे मस्तक झुकाकर नर तत्व को हेय क्यों बनाया जाय? यह धारणा शंका या प्रश्न विचार करने पर निर्मूल और व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं।

जिनके साथ घनिष्ठता स्थापित की जाती है उनके साथ कोई रिश्ता बन जाता है। रिश्ते का अर्थ है प्रेम का संबंध, आदान-प्रदान। इस संबंध में जितनी अधिक आत्मीयता होगी उतनी ही प्रक्रिया मिलेगी। गुँबज अथवा कुँए की प्रतिध्वनि की तरह हमारा प्रेम भी ईश्वरीय प्रेम और अनुग्रह बनकर हमारे पास लौटता है।

“त्वमेव माता च पिता त्वमेव” इस प्रार्थना में जिन संबंधों को गिनाया गया है उनमें माता का संबंध सर्वप्रथम है। वह सर्वोपरि भी है। क्योंकि माता से बढ़कर परम निःस्वार्थ अतिशय कोमल करुणा एवं वात्सल्य से पूर्ण और कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता। जब हम भगवान को माता मान कर चलते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया किसी सहृदय माता के वात्सल्य के रूप में उपलब्ध होती है। इन उपलब्धियों को पाकर साधक धन्य हो जाता है।

नर और नारी के बीच जो ‘रयि’ और ‘प्राण’ विद्युत धारा सी बहती है उनका सामीप्य संपर्क आध्यात्मिक स्तर पर वैसा ही परिणाम उत्पन्न करता है जैसा कि बिजली की नेगेटिव और पॉजिटिव धाराओं के मिलन से विद्युत संचार का माध्यम बन जाता है। माता और पुत्र का भावात्मक मिलन एक अत्यन्त उत्कृष्ट स्तर की आध्यात्मिक विद्युत धारा का सृजन करता है। यह साँसारिक स्तर की बात उपासना के भावना क्षेत्र में भी लागू होती है। माता का नारी रूप ध्यान भूमिका में जब प्रवेश करता है तो उससे प्राण की एक बड़ी अपूर्णता पूरी होती है।

युवा षोडशी नारी के रूप में माता का ध्यान करके हम नारी के प्रति वासनात्मक दृष्टि हटाकर पवित्रता का दृष्टिकोण जमाने का अभ्यास करते हैं। इसमें जितनी सफलता मिलती है उतनी ही बाह्य जगत में भी हमारी नारी के प्रति वासनात्मक भोगपरक दृष्टि हटती जाती है। इस प्रकार नर-नारी के बीच जिस पवित्रता की स्थापना हो जाने पर अनेक आत्मिक बाधायें, कुण्ठायें और विकृतियाँ दूर हो सकती हैं, उसका लाभ सहज ही मिलने लगता है। गायत्री माता का ध्यान एक वृद्ध नारी का नहीं वरन् एक युवती का होता है। युवती में यदि उत्कृष्टता और पवित्रता की दृष्टि रखी जा सके तो समझना चाहिए कि आत्मिक स्तर सिद्ध योगियों जैसा तपस्वी बन गया। गायत्री उपासना में इस महाशक्ति को नारी रूप देकर एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति का प्रयत्न किया गया है।

हम भगवान को प्रेम करते हैं और उसके अनन्य प्रेम का प्रतिपादन करना चाहते हैं। तब माता के रूप में उन्हें भजना सबसे अधिक उपयुक्त एवं अनुकूल बैठता है। माता का जैसा वात्सल्य अपने बालक पर होता है वैसा ही प्रेम -प्रतिफल प्राप्त करने के लिए भगवान से मातृ संबंध स्थापित करना आत्म विद्या के मनोवैज्ञानिक रहस्यों के आधार पर अधिक उपयोगी एवं लाभदायक सिद्ध होता है। प्रभु को माता मानकर जगज्जननी देवमाता गायत्री के रूप में उनकी उपासना करें तो उसकी प्रतिक्रिया भगवान की ओर से भी वैसी ही वात्सल्यमय होगी जैसी कि माता की अपने बच्चों के प्रति होती है।

नारी शक्ति पुरुष के लिए सब प्रकार आदरणीय है, पूजनीय एवं वंदनीय भी। पुत्री के रूप में, बहिन के रूप में, माता के रूप में वह, स्नेह करने मैत्री करने योग्य एवं गुरुवत् पूजन करने योग्य है। पुरुष के शुष्क अंतर में अमृत सिंचन यदि नारी द्वारा नहीं हो पाता तो वैज्ञानिक बतलाते हैं कि वह बड़ा रूखा, कर्कश, क्रूर, निराश, संकीर्ण एवं अविकसित रह जाता। वर्षों से जैसे पृथ्वी का हृदय हर्षित होता है और उसकी प्रसन्नता हरियाली एवं पुष्प पल्लव के रूप में फूट पड़ती है, वैसे ही पुरुष भी नारी की स्नेह वर्षा से इसी प्रकार सिंचन प्राप्त करके अपनी शक्तियों का विकास करता है। परन्तु एक भारी विघ्न इस मार्ग में वासना का है जो अमृत को भी विष बना देता है। दुराचार, कुदृष्टि एवं वासना का सम्मिश्रण हो जाने पर नर नारी के सान्निध्य से प्राप्त होने वाले अमृत फल विष बीज बन जाते हैं। इसी बुराई के कारण स्त्री पुरुषों को अलग अलग रहने के सामाजिक नियम बनाये गये हैं। फलस्वरूप दोनों पक्षों को उन असाधारण लाभों से वंचित रहना पड़ता है जो नर नारी के पवित्र मिलन, पुत्री, बहिन और माता के रूप में सामीप्य होने से मिल सकते हैं।

इस विष विकार की भावना का शमन करने के लिए गायत्री साधना परम उपयोगी है। विश्व माता के रूप में भगवान की मातृभाव से परम पुण्य भावनाओं के साथ आराधना करना मातृ जाति के प्रति पवित्रता की अधिकाधिक वृद्धि करना है। इस दिशा में जितनी अधिक सफलता मिलती जाती है उसी अनुपात में अन्य इन्द्रियों का निग्रह, मन का निरोध एवं अनेक मनोविकारों का शमन अपने आप होता जाता है। मातृभक्त के हृदय में दुर्वासनाएँ अधिक देर तक नहीं ठहर सकती। इसी कारण श्री रामकृष्ण परमहंस, योगी अरविंद घोष, छत्रपति शिवाजी, महात्मा गाँधी, स्वामी दयानन्द आदि कितने ही महापुरुष शक्ति के उपासक थे। शाक्त धर्म भारत का प्रधान धर्म है। जन्मभूमि को हम भारत माता के रूप में पूजते हैं। शिव से पहले शक्ति की पूजा होती है। माता का पिता और गुरु से भी पहले स्थान है। इस प्रकार विश्व नारी के रूप में भगवान की पूजा करना नर पूजा की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। गायत्री उपासना की यही विशेषता है।

ब्रह्म निर्विकार है, इन्द्रियातीत तथा बुद्धि से अगम्य। उस तक सीधा पहुँचने का कोई मार्ग नहीं। नाम -जप, रूप का ध्यान, प्रार्थना, तपस्या, साधना, चिंतन, कीर्तन आदि सभी आध्यात्मिक उपकरण हैं। सतोगुणी, माया एवं चित्त के द्वारा ही जीव और ईश्वर का मिलन हो सकता है। यह आत्मा और परमात्मा का मिलाप कराने वाली शक्ति गायत्री ही है। ऋषियों ने इसी की उपासना की है, क्योंकि यह खुला रहस्य है कि शक्ति बिना मुक्ति नहीं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली, माया, प्रकृति, राधा, सीता, सावित्री, पार्वती आदि के रूप में गायत्री की पूजा की जाती है। पिता से संबंध होने का कारण माता ही है। इसीलिए पिता से माता का दर्जा ऊँचा है। ईश्वर की असीम आनन्द राशि का आस्वादन


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