उपासना की यथार्थता

December 1991

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आध्यात्मिक पुरुषार्थ का अर्थ होना चाहिए अन्तरंग की उत्कृष्टता का अधिकतम संवर्धन। यही है वह प्रयोग, जो व्यक्ति को आत्मसंतोष, जन सहयोग और दैवी अनुग्रह प्रचुर परिमाण में जुटा सकता है। ईश्वर की अनुकम्पा माँगने के लिए की गई मनुहारों-याचनाओं की सार्थकता भी तभी है, जब अनुग्रह को आत्म परिष्कार की प्रचण्ड आकुलता के रूप में जाना जा सके।

पात्रता के अनुरूप दैवी अनुकम्पा की उपलब्धि का तथ्य आत्मिक प्रगति की अपेक्षा करने वाले हर साधक को भली प्रकार ध्यान में रखना चाहिए। ईश्वर का अनुग्रह इस आधार पर नहीं मिल सकता कि मनुहार उपचार की घुड़ दौड़ में कौन कितना आगे निकल पाया गया। बात तब बनती है जब अंतरंग की उत्कृष्टता की चुम्बकत्व देव परिवार को अपनी ओर आकर्षित करता है और अपनी प्रामाणिकता के आधार पर प्राणियों का ही नहीं, देवताओं का भी मन मोहता है।

उपासना कितनी गहरी और सार्थक रही, इसका प्रमाण परिचय एक ही बात से मिलता है कि आन्तरिक सुसंस्कारिता और बाह्य सज्जनता का कितना विकास संभव हो सका। साधना का वास्तविक स्वरूप एक ही है-अंतरंग में विद्यमान देव शक्तियों को जाग्रत, प्रखर और समर्थ बनाने की आकुलता भरी चेष्टा। यही है अध्यात्म का मर्म यथार्थ स्वरूप।


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