जो खाने और जोड़ने भर की चिंता करते हैं, उन्हें महान कार्य कर पाने का सुयोग मिल ही नहीं पाता।
धन-वितरण की तरह ही सर्वसाधारण तक पहुँचना चाहिए। ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास यदि अन्य प्रकार की विशेषताएँ और विभूतियाँ हैं। प्रतिभा और ज्ञान हैं। तो उसका प्रसार वितरण अधिक व्यापक क्षेत्र में होना चाहिए। इससे अधिक लोगों को लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा और सर्वत्र सुख शाँति का, प्रगति का वातावरण विनिर्मित होता दृष्टिगोचर होगा। अर्थशास्त्र एवं अध्यात्मशास्त्र दोनों के क्षेत्र बाह्य दृष्टि से देखने पर भले ही भिन्न दिखते हों, पर लक्ष्य दोनों का एक ही हैं। उत्पादन की तरह ही समान वितरण व्यवस्था का महत्व दोनों क्षेत्रों में समान है। जो अर्थोपार्जन व अध्यात्म क्षेत्र में विभूतियों के अर्जन की प्रक्रिया को दो विपरीत ध्रुवों पर स्थित मानते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि मूलभूत एक ही सिद्धाँत दोनों के मूल में कार्य करते हैं। यदि यह बात ध्यान में रखी जा सके तो जनमानस व्यावहारिक अध्यात्म जिसमें भौतिकवाद को भी समुचित स्थान हो, को लोकोपयोगी बनाया जा सकना संभव है। यही समय की माँग भी है।