ब्रह्मवर्चस् का शोध-अनुसंधान

December 1991

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ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का कार्य क्षेत्र अतिव्यापक है। अध्यात्म की पुनः प्राण−प्रतिष्ठ दो मोर्चों पर करने के संकल्प से यह संस्थान परम पूज्य गुरुदेव ने 1971 में स्थापित किया। पहले मोर्चे पर प्रत्यक्षवाद द्वारा उपेक्षित उत्कृष्टतावादी दर्शन की प्रतिष्ठापना होनी थी, दूसरे मोर्चे पर अध्यात्म तत्वज्ञान में घुसी विकृतियों का निष्कासन किया जाना था। अनुसंधान का क्रम विगत बारह वर्षों से इसी धुरी पर चला है। दर्शन का उत्तर दर्शन से, तर्क का उत्तर तर्क से और विज्ञान का उत्तर विज्ञान द्वारा देने का एक सशक्त प्रयास ब्रह्मवर्चस ने किया है। बुद्धिवादी युग व जमाने का समाधान करने का प्रयास अखण्ड ज्योति के अग्र लेखों में किया जाता रहा है व अब और भी प्रखर रूप से यह आगे प्रस्तुत होता रहेगा। प्रयोग परीक्षण का क्रम जो चलता रहा है। उस क्रम के क्या कुछ परिणाम हाथ लगे, किन निष्कर्षों पर हम पहुँचे व आगे की क्या संकल्पनाएँ हैं, यह सब इस स्तम्भ के अंतर्गत अगले दिनों प्रकाशित किया जाता रहेगा।

अध्यात्म उपचार कितने विज्ञान सम्मत हैं? यह प्रक्रिया, ध्यान साधना, अष्टगयोग की प्रक्रियाएँ, मंत्र शक्ति आदि शरीर मन व अंतःकरण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? तथा तनाव जैसी महाव्याधि से भरे इस समाज को क्या एक निरापद किन्तु सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति अध्यात्म तंत्र दे सकता है, यह प्रतिपाद्य विषय लेकर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने विगत बारह वर्षों में कार्य किया है। सीमित साधनों किन्तु समर्पित व्यक्तियों व सहज ही उपलब्ध होते रहने वाले “सब्जेक्ट्स” जिन पर प्रयोग परीक्षण का क्रम चला, के कारण यह कार्य सही गति से चल रहा है। शोध प्रक्रिया का उद्देश्य यह नहीं था कि रोग निवारण के लिए अध्यात्म उपचार कितने सक्षम हैं, यह पता लगाया जाय। यदि उद्देश्य यह रहा होता तो एक सैनीटोरियम बनाना जरूरी होता। अध्यात्म उपचार किस प्रकार हमारे सूक्ष्म संस्थानों को जाग्रत कर अंतःकरण को बलिष्ठ बनाते हैं। आत्म बल और मनोबल बढ़ने से जीवनी शक्ति किस प्रकार सुदृढ़ होती है इससे स्वास्थ्य संवर्धन की प्रक्रिया कैसे गतिशील होती है। यह जानने का प्रयास संस्थान के वैज्ञानिकों ने किया है।

वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ विश्व में सैकड़ों हैं। सभी आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित हैं। विगत पन्द्रह वर्षों में इलेक्ट्रानिक्स का जिस तेजी से चिकित्सा विज्ञान में प्रवेश हुआ है, उससे शरीर के बहुविधि आयामों की जानकारी पाने की सुविधा बढ़ गयी है। अब कंप्यूटराइज्ड एक्जिअल टोमोग्राफी (कैट स्केनिंग) उपकरण से लेकर एन. एम. आर., एम. आर. आई. (मैग्नेटिक रेजोनेन्स इमेजिंग) जैसे उपकरण उपलब्ध हैं। बिना व्यक्ति को तकलीफ दिये नान इनवेजिव डायग्नोस्टिक उपकरणों द्वारा विस्तार से जाना जा सकता है कि शरीर के किस हिस्से में किस गहराई तक किस स्तर की गड़बड़ी है। अब केवल ई-ई-जी ही नहीं, चेतना का ध्रुव केन्द्र माने जाने वाले ब्रेन स्टेम व रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम से लेकर 1 अरब न्यूरॉन्स (स्नायुकोषों) में से एक विशेष सेल की मेम्ब्रेन पर विद्यमान विद्युत पोटेंशियल भी नापा जा सकता है। इतने संवेदनशील यंत्र अब उपलब्ध हैं कि मानवी काया का कोई भी क्षेत्र अविज्ञात है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मस्तिष्क में स्रावित होने वाले सूक्ष्म रसायन द्रव्यों जो प्रसन्नता, ईर्ष्या, क्रोध, भय, यौनतृप्ति, आहार तुष्टि व मन की शाँति के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं, को भी नापा जाना संभव है। चिकित्सा विज्ञान का यह विकास स्तुत्य है, अभिनन्दनीय है। शोध संस्थान में इतने महँगे उपकरणों का न तो प्रावधान है और न ही इतने जटिल उपकरणों का प्रयोग कर पाने की स्थिति थी। फिर भी अपने सीमित साधनों से उसने दुस्साहस किया है। व्यक्ति के अंतराल में झाँकने व पारदर्शी वस्तु की तरह उसको परखने का। इस प्रक्रिया में उन्हीं उपकरणों का प्रयोग किया गया, जो किसी मेडिकल कालेज स्तर की प्रयोगशाला में उपलब्ध होते हैं।

वैज्ञानिक शोध एक आध्यात्मिक पुरुषार्थ है। विगत सौ वर्षों में हुई खोजें इसी माध्यम से हुई हैं। अंतःस्फुरणा अथवा प्रसुप्त प्रतिभा के जागरण से ही असंभव दीख पड़ने वाले अविष्कार संभव हुए हैं।

विडम्बना एक ही रही कि जिस गंभीरता से अन्यान्य विज्ञान क्षेत्र की विधाओं के अनुसंधान हुए, उतनी गहराई से अध्यात्म उपचारों की वैज्ञानिकता जानने का प्रयास नहीं किया गया। विविध प्रकार के योग अनुशासन जीवन में उतारने पर किन्हीं-किन्हीं में परिवर्तन दिखाई पड़ता है व किन्हीं में कुछ भी नहीं होता। बहिरंग को प्रभावित करने वाले हठयोग की क्रियाओं से लेकर अंतरंग को प्रभावित करने वाले ध्यानयोग की प्रक्रिया विशद वैज्ञानिक अनुसंधान माँगती है ताकि एक महत्वपूर्ण विधा से जन-जन को लाभान्वित किया जा सके। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में छिटपुट प्रयोग तो कहीं हुए भी हैं किन्तु इन घटनाओं की सूचना कौतुहल ही रहा है। जबकि मनःक्षेत्र की गहन परतों से लेकर शरीर की दृश्यमान स्थूल परतें मनोविज्ञान, एनाटॉमी फिजियोलॉजी, न्यूरोलॉजी, बायोकेमिस्ट्री, हिस्टोलाजी से लेकर इम्यूनोलॉजी मॉलीक्यूलर बायोलॉजी जैसी विधाओं का गहन अध्ययन माँगती है। यह आवश्यकता भी प्रयोग अनुसंधान के साथ पूरी की जाती रही है एवं प्रयोग निष्कर्षों के साक्षी हेतु इन विधाओं के विभिन्न हवालों -पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित उद्धरणों का भी सहारा लिया गया है।

शोध प्रक्रिया को सरल तरीके से समझना हो तो इस तरह माना जा सकता है कि शरीर व मन के दो घटक ऐसे हैं जो सीधे मानवी स्वास्थ से संबंध रखते हैं। आस्थाओं का उद्गम केंद्र अंतःकरण पहले मन व फिर शरीर को प्रभावित कर स्वास्थ्य संतुलन का पलड़ा इधर से उधर करता रहता है। आस्थाओं का मापन करने की कोई सीधी विधि विज्ञान के पास नहीं हैं? सुधार परिमार्जन परिष्कार की गुँजाइश कहाँ कहाँ और किस प्रकार की है? आस्थाओं से संपन्न व्यक्ति व रहित व्यक्ति के जैव रासायनिक परीक्षण बताते हैं कि दोनों में परिवर्तन भिन्न तरीकों से होता देखा जाता है। दूसरे स्तर पर मन आता है। मनोविज्ञान मूलतः मन का नहीं व्यवहार का विज्ञान है। ‘बिहेवियोरल साइकोलॉजी’ शब्द अब लगभग मनो विज्ञान के पर्यायवाची के रूप में प्रस्तुत होने ही लगा है। यह विज्ञान भी व्यक्ति के व्यवहार में न्यूनाधिक परिवर्तन को उसी तरीके या विधि विधान से मापता है जैसे शरीर में हो रहे परिवर्तनों को फोटो कैलोरी मीटर या स्पेक्ट्रोफोटो मीटर द्वारा मापा जाता है। एक ही अंतर होता है कि प्रयोगों के ऑब्जेक्ट जहाँ शरीर के मापन के समय लिया गया रक्त का नमूना या टीश्यू होते हैं, वहाँ मन का विश्लेषण करते समय ऑब्जेक्ट सीधा वह व्यक्ति ही होता है। वैसे शरीर और मन दोनों परस्पर गुंथे हुए ही हैं। इसीलिए मस्तिष्क की विद्युत (इलेक्ट्रो एन सेफेलोग्राफ) का मापन करते समय मन का सीधा संबंध विद्युतीय परिवर्तनों से होता है। व ये ‘इवेण्ट’ के बदलने के साथ बदलते रहते हैं।

मन के प्रयोग का ध्यान व एकाग्रता (अटेण्शन) में होने वाले विपर्यय, व्यवहार को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रिया की अवधि (रिएक्शन टाइम) फार्म परसेप्शन, सीखने की प्रक्रिया (लर्निंग) व क्षमता, स्मरण शक्ति का मापन, आत्म प्रत्यय, (मोटीवेशन) काम से उत्पन्न थकान (मसल फटीग) मानसिक कार्य, समस्याओं को सुलझाने वाली व्यावहारिक बुद्धि, व्यक्तित्व का विश्लेषण, बुद्धि लब्धि का क्बोशेण्ट तथा भावसंवेदनाओं की मन पर प्रतिक्रिया जैसे घटकों का मापन किया जाता है। यह सब मापन यह बताते हैं कि मन मस्तिष्क की स्थिति कैसी है, स्वस्थ अथवा अस्वस्थ? मनोबल अथवा मनःशक्ति का पर्यवेक्षण करने के लिए व्यक्तिगत प्रश्नोत्तरी व पारस्परिक चर्चा का माध्यम बनाया जाता है। व्यक्ति के परिवेश से जुड़ी विभिन्न समस्याओं के प्रति उसकी दृष्टि क्या है, इससे जानकारी मिलती है कि उनका मन विभिन्न प्रतिकूलताओं से जूझने में कितना सक्षम है।

तनाव एक ऐसी प्रक्रिया है जो सामान्यता हर व्यक्ति को जीवन में झेलनी ही होती है। कुशल कलाकार वह है जो तनाव को रचनात्मक ऊर्जा में बदलते हुए अपने मन व शरीर को प्रभावित नहीं होने देता। ऐसा व्यक्ति स्वस्थ भी बना रहता है तथा उसकी उपलब्धियाँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। तनाव का विश्लेषण हर व्यक्ति में किया जाना जरूरी है व यह विस्तार से व्यक्ति की मनःस्थिति जाने बिना उसके परिवेश की परिस्थितियों को समझे बिना संभव नहीं। मन को मोटे तौर पर वैज्ञानिक ‘माइण्ड स्टफ’ नाम से संबोधित करते हैं जिसकी कई परतें अभी भी अविज्ञात हैं। परंतु मन का शरीर पर पड़ने वाली प्रभावी प्रतिक्रिया के बारे में अब सभी एकमत हैं कि उसे मापा व भलीभाँति जाना जा सकता है। मन के तनाव ग्रस्त होने पर शरीर के रसायन में घट-बढ़ होती हैं, विभिन्न फिजियोलॉजिकल प्रक्रियाओं में परिवर्तन होता है व फलस्वरूप शरीर प्रभावित होने लगता है। प्रभावित शरीर रोगी हो जरूरी नहीं है किन्तु लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इसी प्रकार मनःस्थिति के संवर्धन से शरीर पर दूसरी तरह की प्रतिक्रियायें होती हैं, जिसे कार्यशक्ति के संवर्धन संबंधी विभिन्न पैरामीटर्स द्वारा मापा जा सकता है। प्रफुल्ल-संतुलित मनःस्थिति, समस्वरता, संयमशीलता इन सबका प्रभाव मन ही नहीं शरीर के घटकों पर भी पड़ता है व इन्हें मापा जा सकता है।

शोध प्रक्रिया को समझने के लिए उपरोक्त विवेचन इसलिए किया जा रहा है कि अध्यात्म उपचारों का प्रभावी सामर्थ्य बड़ी गहरी होता है। वे अंतःकरण मन व शरीर पर समग्र प्रभाव डालते हैं व इसे अलग-अलग करके मापा जाना संभव नहीं हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि शरीर में दिखाई देने वाले परिवर्तन समक्ष नहीं दिखाई दे रहे, अतः हम अध्यात्म अनुशासनों की प्रभावोत्पादकता से इन्कार करते है। कभी कभी आकाँक्षाओं में परिवर्तन व मन के स्तर पर सूक्ष्म आकलनों में घट बढ़ भी महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। पर यह सच है कि शरीर स्तर पर क्रमशः सभी अनुशासन अपनी प्रक्रिया दिखाते देखे जाते हैं।

शरीर के सूक्ष्म रसायनों से लेकर जैव विद्युतीय तथा जीव कोषीय स्तर पर होने वाले परिवर्तन बड़ा महत्व रखते हैं। रक्त में पाये जाने वाले हीमोग्लोबिन जैसे घटकों से लेकर रक्त कणों की संख्या, आकार व प्रकृति में अंतर अध्यात्म उपचारों से होते देखे जाते हैं। रक्त में घुले एंजाइमों व हारमोन्स में कुछ मिलीग्राम प्रति सौ मिलीलीटर का परिवर्तन भी बड़ा महत्वपूर्ण होता है। रक्त में पायी जाने वाली इम्युनोग्लोबिन्स नाम की इकाइयाँ न केवल शरीर पर होने वाले प्रभावों से घटती बढ़ती है अपितु साइकोन्यूरो-इम्युनॉलाजी जैसी आधुनिकतम विधा के अनुसार भाव संवेदना व मन की सोचने की पद्धति से प्रभावित होती हैं। ये सभी जीवन शक्ति से संबंध रखती हैं व किसी एक इकाई का बढ़ना या घटना शरीर के स्वास्थ से सीधा संबंध रखता है। शरीर में गैसें भी घुली रहती हैं जिनको दबाव यंत्रों द्वारा मापा जा सकता है। इसका अनुपात विभिन्न स्थितियों में बदलता रहता है। फेफड़ों में विद्यमान वायु रूपी घटकों का मापन अब कम्प्यूटराइज्ड विधि से संभव है। इससे फेफड़ों की कार्य पद्धति का अंदाज लगता है। इसी प्रकार हृदय से लेकर मस्तिष्क तथा त्वचा से लेकर माँसपेशियाँ सभी अपनी विद्युत हलचलों का परिचय बाहर देती हैं जिन्हें विभिन्न यंत्र नापते हैं। ई .ई. जी, ई. सी .जी, ई. एम .जी तथा जी. एस. आर जैसे मापनों को अब पॉलीग्राफी द्वारा इलेक्ट्रो फिजियोलॉजी के नवीन उपकरणों द्वारा मापा जा सकता है। यही नहीं यह भी देखा जा सकता है कि व्यक्ति के परिपूर्ण विद्युतीय कवच जिसे ईथरिक डबल या प्राणमयकोश नाम से जाना जाता है, में उसके प्रभामण्डल में क्या कुछ कितना परिवर्तन अध्यात्म उपचारों द्वारा होता है।


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