आकुलता से भरी पुकार

December 1991

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“तुम प्रार्थना करने आये थे? “सभ्यता के नाते तो कहना चाहिए था मि. बुडफेयर, किन्तु चार्ल्स फिल्मोर में तो सहज आत्मीयता है अपने अल्प परिचितों के भी प्रति उसके कारण वे औपचारिकता का निर्वाह आवश्यक नहीं मानते।

उसका पूरा नाम है अल्फ्रेड जान्सन बुडफेयर। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। समुद्र के किनारे इस छोटे से गाँव में उसे जानने वाला, उसका नाम लेकर पुकारने वाला कौन है? उसे यहाँ आये अभी दो ही सप्ताह तो हुए हैं और खेतों में फसल काटने वाला एक मजदूर क्या इस योग्य है कि उसे लोग जाने और इतने स्नेह से नाम लेकर पुकारें।

“ ओह आप।” अल्फ्रेड पूरा पीछे घूम गया और उसने अपने हाथ आगे बढ़ा दिया। फिल्मोर से उसका घनिष्ठ परिचय है, यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु सभी से आत्मीय संबंध रखने वाले इस विचित्र व्यक्ति से कई बार पहले भी वह मिल चुका है। उसे अभी तक याद हैं एक बार तूफानी रात्रि में फिल्मोर उसकी झोपड़ी में अतिथि रह चुके हैं।

मैं जानता था तुम यहाँ आओगे। आखिर आए न। फिल्मोर उसके बराबर आ गए और हँसते हुए उसका हाथ पकड़कर गिरजाघर की सीढ़ियां उसके साथ ही उतरने लगे। “मनुष्य कैसा भी हो, कोई भी हो अपने पिता के सामने आए बिना रह नहीं सकता।”

वह देखता रहा इस सामान्य व्यक्ति को। कौन नहीं जानता इन्हें। ये भी तो मनुष्य मात्र को अपना सगा मानते हैं। पर्यटन इनकी आदत है। इस गाँव में भी वे घूमते-घामते ही आ निकले होंगे, रविवार की प्रार्थना करके गाँव के अधिकाँश वृद्ध स्त्री -पुरुष जिनके साथ घरों के बालक भी हैं, गिरिजाघर से बाहर निकल रहे थे। बहुत थोड़े गिने चुने युवक प्रार्थना करने आते हैं, युवतियाँ उनमें अवश्य अधिक थी। तारुण्य का गर्व जब शिथिल पड़ने लगता हैं, तभी तो मनुष्य में जीवन के उस पार भी कुछ है यह झाँकने की समझदारी आती है।

“लेकिन वुडफेयर। मैं भूलता नहीं हूँ तो केवल बीस दिन पूर्व हम यहाँ से पर्याप्त, दक्षिण समुद्र के वक्ष में मिलें थे।” फिल्मोर को इसकी चिंता नहीं जान पड़ती थी कि उनके जैसे मूल्यवान उज्ज्वल वस्त्रधारी को एक मजदूर का हाथ पकड़कर चलते देख पास से जाने वाले वृद्ध और वृद्धाएँ किस प्रकार देखते हैं, किस प्रकार मुख सिकोड़ते हैं और परस्पर फुसफुसा कर क्या कहते हैं?

“तब मैं गोता लगाने को प्रस्तुत हो रहा था।” बुडफेयर ने इतनी देर बाद बोलना आवश्यक समझा। “वही समुद्र में मेरा अंतिम गोता था और फिर जब मैं चल सकने योग्य हुआ, सीधे गिरिजाघर पैदल चलकर आया। यद्यपि बहुत कष्ट हुआ उस दिन मुझे चलने में, किन्तु बहुत आनन्द भी मिला। प्रार्थना तो उसी दिन मैंने की।” वह पता नहीं क्या और कितनी बातें एक साथ बता जाना चाहता था, लेकिन उस दिन की प्रार्थना का स्मरण करके ही उसके नेत्र भर आए।

“मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूँ। आज तो विश्राम का दिन हैं। फिल्मोर ने आमंत्रण की अपेक्षा नहीं की। जो व्यक्ति केवल बीस दिन पहले धर्म और आस्तिकता की बात सुनकर ठठाकर हँस पड़ता था, जिसे सुरा......जाने दीजिए किसी के दोषों का वर्णन भी दोष ही है। इतना जानना पर्याप्त होना चाहिए कि अल्फ्रेड खाओ पियो और मौज उड़ाओ के नियम को मानकर चलने वाला था। वह कहा करता था धर्म तो कायर और अशक्त लोगों के मन को संतोष देने का बहाना है। वही अल्फ्रेड किसी दिन की प्रार्थना का स्मरण करके पुलकित हो उठा। बिना विशेष घटना के यह कैसे संभव हैं लेकिन यहाँ मार्ग में कुछ पूछना शिष्टता नहीं होगी।

दोनों के कदम एक ओर मुड़ चले। फिल्मोर के मन में उसके समूचे को बदल डालने वाले रहस्य जानने की इच्छा बलवती हो रही थी। थोड़ी देर बाद उन्होंने छोटी कोठरी में प्रवेश किया। अल्फ्रेड ने चटाई बिछाई और दोनों एक दूसरे के सामने बैठ गये और वह रहस्य का आवरण खोलने लगा, “नित्य की भाँति मैं उस दिन भी समुद्र तल में उतरा। मेरे दोनों सहकारी बहुत सावधान और कार्यकुशल थे। लेकिन गोताखोर तो प्रत्येक गोते के समय मृत्यु के मुख में ही उतरता है और उसे केवल अपनी स्फूर्ति, प्रत्युत्पन्न बुद्धि तथा सतर्कता पर निर्भर करना पड़ता है।”

अल्फ्रेड मजदूर बनने से पहले अभी बीस दिन पहले तक समुद्री गोताखोर था। समुद्र के गहरे तल में उतरकर मोती के सीप उठा लाना ही उसका व्यवसाय था। सीप में मोती हैं या नहीं, यह बात तो ऊपर आकर देखने की होती है। समुद्र तल में तो यथा शीघ्र जो सीप मिलें, उन्हें समेटकर ऊपर आ जाना पड़ता है।

“मौसम अच्छा था। ऊपर चमकीली धूप निकल रही थी। जल के भीतर पर्याप्त दूरी तक इतना प्रकाश था कि मैं अपने आस पास दौड़ती भागती छोटी बड़ी मछलियों तथा तल प्रदेश की अद्भुत लताओं को सरलता से देख सकता था। अल्फ्रेड बता रहा था समुद्र तल में सृष्टिकर्त्ता ने जो उपवन लगा रखा है, कहीं-कहीं तो तल प्रदेश के पौधे, घासें और लताएँ अद्भुत सुन्दर हैं। उस दिन मैं ऐसे ही सुन्दर समुद्री उद्यान में उतर पड़ा था। नीचे पहुँचकर मैं खड़ा हो गया और झुककर कुछ सीपों को अपने झोले में झट से डाल लिया। फिल्मोर उत्सुकता से उसकी बात सुन रहे थे। मैं बहुत प्रसन्न था, वहाँ पर्याप्त सीप थीं। आज का गोता मुझे अच्छी रकम दे देगा। सहसा ऐसा लगा कि कोई कोमल गिलगिली वस्तु दाहिने पैर में लिपट गई है। मैं चौंका बायें हाथ का चाकू दाहिने में लेकर झुक गया। ऑक्टोपस के दो पैर मेरे चाकू ने काट दिए। इसी समय मुझे कसकर झटका लगा।”

“ऑक्टोपस समुद्र का सबसे भयंकर प्राणी और गोताखोरों का सबसे बड़ा शत्रु।” अल्फ्रेड सिहर उठा “पता नहीं मैं किस चट्टान के नीचे से निकलकर एक भयानक ऑक्टोपस ने अपने सूँड़ जैसे पैर मेरी कमर और कंधे में लपेट लिए थे। उसकी दोनों आंखें मेरी आँखों के सामने चमक रही थी और वह दुष्ट अपना विशाल मुख मेरे मुख के पास ला रहा था। मेरे मुख से भय के कारण चीख निकल गयी। ऑक्टोपस ने मुझे एक और झटका कसकर दिया। मेरा पूरा ललाट और कपोल हिल गया। नकाब कंधे पर खिसक आया। मेरी नाक से कुल चार इंच दूर मुझे ऑक्टोपस के क्रूर नेत्र चमकते दिखे। उसकी चोंच उसकी रक्त पिपासु चोंच नजदीक आती जा रही थी।” दीर्घ श्वास ली अल्फ्रेड ने “नकाब ठीक करने का समय भी नहीं रह गया था। मैं निराश हो गया था। सब ओर से हार कर चीख पड़ा मैं ‘हे भगवान!’ और फिर पता नहीं मुझे क्या हुआ। मेरी आँखों के सामने अंधकार छा गया।”

मि. फिल्मोर! एक बात अब तक मेरी समझ में नहीं आई। अल्फ्रेड ने बीच में दूसरी बात कही मुझे ठीक-ठीक स्मरण है पहले ही झटके में चाकू मेरे हाथ से छूटकर गिर गया था। और वह मुझे बीसों झटके देता रहा। उसके वे पैर जो मेरी कमर और कंधे को पकड़े थे काटे कैसे गये?

‘यह तुम्हारे सहायक की तत्परता होगी,’ फिल्मोर ने कहा।

‘मेरा सहायक बहुत सावधान है। आपेक्षित समय से अधिक देर लगने से उसे आशंका हो गई और वह स्वयं नीचे उतर पड़ा। अल्फ्रेड ने कहा, “मैंने उससे बार-बार पूछा है। वह कहता है कि उसने मुझे मूर्छित पाया। मेरी नकाब उसने ठीक की। कमर और कंधे में ऑक्टोपस के पैर ऊपर लिपटे थे, किन्तु वे कटे हुए पैर थे। भारी ऑक्टोपस सब पैरों के कट जाने से मेरे पास ही तड़फ रहा था।

“तुमने अभी बताया कि तुमने मूर्छित होते-होते कहा था। ‘हे भगवान!’ फिल्मोर के स्वर में दृढ़ता और विश्वास था ‘और भगवान ने मेरी रक्षा की।’ अल्फ्रेड के नेत्र भर गए” सचमुच भगवान ने मेरी रक्षा की मि. फिल्मोर। मैं इतना घायल हो गया था कि छुरा मेरे हाथ में होने पर भी मैं कुछ न कर पाता। मैं अपने सहकारी द्वारा जब ऊपर लाया गया, तब मेरा शरीर खून से लथपथ था। पूरे तीन दिनों बाद मैं चलने योग्य हुआ और अब सीधे गिरिजाघर आया।”

“भगवान तो सुनते हैं और रक्षा भी करते हैं किन्तु-” फिल्मोर रुके दो क्षण, “किन्तु हम मनुष्य इतने भाग्यहीन हैं कि प्राण संकट में होने पर भी वे दयामय स्मरण नहीं आते। उस समय भी हम अपने उस कृपालु पिता से प्रार्थना नहीं कर पाते।”

“सचमुच आश्चर्यजनक है प्रार्थना। वह पुकार जैसे चेतना की एक चिंगारी थी। नवजागरण की पहेली घण्टी थी, नव प्रभात की पहली आभा थी।” अल्फ्रेड ने बहते आँसुओं को पोंछने का प्रयत्न नहीं किया “माँस-मदिरा, दुराचार न जाने सब के सब कैसे हट गये। सारे पुराने विश्वास हट गये। एक नया विश्वास जम गया एक नया प्रकाश छिटक गया। मैं ईश्वर की प्रिय संतान हूँ मुझे उसके योग्य बनना हैं”

“फिल्मोर के चेहरे पर एक मुस्कान थिरक उठी” बस इन भावों को उसी तरह उमगना चाहिए, जैसे समुद्र तल में उमगें थे। “आज गज और ग्राह का उपाख्यान पुनः चरितार्थ हुआ था।” “प्रार्थना जीवन में दिव्यता के अवतरण का विज्ञान है।” इस महान संदेश के प्रचार के लिए चार्ल्स फिल्मोर ने यूनिटी स्कूल ऑफ क्रिश्चिएनिटी की स्थापना की। स्वयं के जीवन को बदले डालने वाले अल्फ्रेड उनके सहकारी हुए।


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