हम दर्शक नहीं, दृष्ट बनें!

December 1991

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इस संसार के महामानवों और महापुरुषों के संदर्भ में विचार करने से ज्ञात होता है कि उनका स्तर सदा सामान्य से ऊँचा रहा है। उनके चिंतन चरित्र व व्यवहार नितान्त असाधारण रहे हैं। उनके दृष्टिकोण में उच्च आदर्शवादिता का समावेश रहा है। यदि ऐसा न होता तो संभवतः वे महामानवों की श्रेणी में न आ पाते और इतिहास पुरुष नहीं बन पाते। इस असाधारण स्तर के विकास में उनके द्रष्ट भाव की ही प्रमुख भूमिका होती है। यदि वे द्रष्ट न होते तो काल के प्रवाह में न जाने कब, कहाँ खो जाते, कुछ पता न चलता और अंततः काल पुरुष बनकर अविस्मरणीय लोगों की पंक्ति में ला खड़ा कर देता है।

यहाँ ‘द्रष्ट’ का तात्पर्य सिद्ध पुरुषों से कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए और न यही समझा जाना चाहिए कि द्रष्ट मात्र ऐसे ही व्यक्ति होते हैं। द्रष्ट एक सामान्य व्यक्ति भी तो हो सकता है। जो सतत् आत्म निरीक्षण कर अपनी कमियों को घटाने मिटाने का निरन्तर प्रयास करता हो। इस प्रकार ‘द्रष्ट’ का सामान्य अर्थ देखने वाला अथवा दर्शक माना जा सकता है, किन्तु दर्शक और द्रष्ट में जमीन और आसमान जितना अंतर हैं यह संभव है कि भाषाकोश अथवा शब्दकोश में यह अंतर न किया गया हो, किन्तु भाव की दृष्टि से इनमें उतना ही अंतर हैं, जितना रात व दिन में। दर्शक की दृष्टि सदा दूसरों पर होती हैं, लेकिन द्रष्ट की आँखें सदा स्वयं पर टिकी होती है। इस प्रकार जब हम ‘दर्शक’ कहते हैं, तो अभिप्राय वैसे व्यक्ति से होता है, जो दूसरों को देख रहा हो, पर जब द्रष्टा कहा जाता है, तो अर्थ किसी आत्म निरीक्षक से होता है।

रूस के मूर्धन्य मनीषी मैक्सिम गोर्की ने अपनी कृति ‘मानव और महामानव’ में इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा है कि मनुष्य की तीन श्रेणियाँ हैं दृश्य, दर्शक और द्रष्ट। वे अपनी उक्त रचना में लिखते हैं कि दृश्य सबसे निम्न कोटि का मनुष्य है। उसे दिखावे में, आडम्बर में रस आता है। वह कहते हैं कि जो मनुष्य दृश्य बन गया, समझना चाहिए कि वह जड़ वस्तु बन गया और जड़ में आत्मा नहीं होती, अस्तु इनकी स्थिति भी लगभग वैसी ही बन जाती हैं यद्यपि देखने, सुनने में तो सचेतन मनुष्य जान पड़ते हैं, पर उनकी अवस्था बाजीगर के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली जैसी होती है। कोई अबोध बालक इन पुतलों को सजीव मान सकता है, पर वास्तविकता वैसी कहाँ होती है? वह तो काठ के निर्जीव खिलौने भर होते हैं, जो दृश्य बनकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। अतः जिनने दृश्य बनने का कौतुक रचा, समझना चाहिए कि उनने स्वयं को खो दिया, अपनी सत्ता खो दी, और आत्मा खो दी। फिल्मों में काम करने वाला व्यक्ति कोई और होता है, पर अभिनय किसी और का करता है। रंगमंच के रंगकर्मियों का भी यही हाल है। यह सब अपनी स्वतंत्र सत्ता को खो देते हैं, आत्मा खो देते हैं और दृश्य बन जाते हैं। अतएव इनमें आत्मा को ढूँढ़ पाना कठिन है। इनमें श्रेष्ठ दिखने का अभिनय भर होता है, उत्कृष्ट बनने का प्रयत्न पुरुषार्थ नहीं इसीलिए पात्र दृश्य बनकर रह जाते हैं, द्रष्ट नहीं बन पाते।

विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि भारतवर्ष में द्रष्ट पुरुष पैदा करने हों तो उनके अन्दर दर्शक को मिटाना पड़ेगा और यह सत्य है कि बिना दर्शक का विसर्जन किये, द्रष्ट का सर्जन सर्वथा असंभव है। यहाँ गोर्की और उनके विचार काफी मिलते जुलते हैं। गोर्की का मानना है कि जहाँ दृश्य होगा, वहाँ निश्चय ही दर्शक भी होगा, अर्थात् दृश्य और दर्शक एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि दृश्य बिना दर्शक पैदा ही नहीं हो सकते और दर्शक के अभाव में दृश्य की महत्ता समाप्त हो जाती है। किन्तु इस संभावना से वे इनकार करते हैं कि जहाँ दृश्य हो वहाँ दर्शक न हो, वहाँ दर्शक न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। यह बात और है कि दर्शक


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