सुसंस्कारिता के लिये संस्कार विधान

June 1989

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प्रगति का प्रकाश ज्यों-ज्यों प्रखर होता जा रहा है त्यों-त्यों लोग शिक्षा का महत्व समझने लगे हैं। गाँव-गाँव स्कूल-कालेज खुल रहे हैं। कन्याओं को भी पढ़ा जा रहा है। प्रयत्न यह भी किया जा रहा है कि प्रौढ़ों में से भी कोई अनपढ़ न रहने पाये। जब शिक्षा का महत्व नहीं समझा जाता था, तब गाँव पीछे एक दो पंडित, पुरोहित, जमींदार, साहूकार ही पढ़े होते थे। शेष लोग इस झंझट में पड़ने से यह कह कर मना कर देते थे कि हमारे पास खेती बाड़ी है, कोई नौकरी थोड़े ही करना है, जो पढ़ने लिखने में बेकार समय खराब किया जाय।

अपने समय का वह भी प्रचलन रहा होगा; पर अब स्थिति बदल गई है। लोग समझने लगे है कि बिना पढ़े की स्थिति हर दृष्टि से गई गुजरी होती है। वह न उपयुक्त ज्ञान सम्पादित करके सभ्य जनों की पंक्ति में बैठ सकता है। और न उसका उपार्जन ही बढ़-चढ़ कर हो सकता है। श्रेय सम्मान तो मिले ही कैसे? समय में सुधार होने के उपरान्त विद्यार्थी, अभिभावक, सरकार सभी को यह चिन्ता पड़ी है कि शिक्षा संवर्धन को महत्व दिया जाय अन्यथा लोग अनगढ़ गई-गुजरी स्थिति में ही पड़े रहेंगे। सामाजिक, राष्ट्रीय प्रगति के सपने भी धरे रह जायेंगे। तथ्य को ध्यान में रखते हुए सर्व साधारण को शिक्षित बनाने का काम पूर उत्साह के साथ हाथ में लिया गया है।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक उपलब्धि है-”सुसंस्कारिता”। गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो इसका वजन शिक्षा से कम नहीं, वरन् अधिक ही बैठता है। उच्चस्तरीय चिन्तन में संस्कृति की सराहना में बहुत कुछ कहा जाता है। धर्म, अध्यात्म, दर्शन आदि का उसे आधार माना जाता है। भारतीय देव संस्कृति पर हम सभी गर्व करते हैं और कहते हैं कि जब सुसंस्कारिता का वातावरण था, तब सतयुग विराजता था। मनुष्य का व्यक्तित्व देवोपम था। शालीनता और सज्जनता का प्रचलन रहने पर इसी धरती पर स्वर्ग विराजता था। “संस्कृति” शब्द पर अधिक गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है, साथ ही यह भी सोचना है कि उसे शिक्षा की तुलना में कम नहीं वरन् अधिक महत्व क्यों दिया जाता है? अब उसके संबंध में उपेक्षा बरते जाने के कारण जन साधारण का स्तर क्यों गिर गया है और उसके कारण क्यों अगणित समस्याओं, संकटों और विभीषिकाओं का सामना करना पड़ रहा है?

संस्कृति का अर्थ है-”सुसंस्कारिता”। सज्जनता-शालीनता, मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का परिपालन, वर्जनाओं से बचे रहने का अनुशासन, इन्हीं विशेषताओं के कारण मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। उसके चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश रहता है। गण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से वह उस ऊँचाई पर बना रहता है, जिस की कि सृष्टि के मुकुटमणि समझे जाने वाले सृष्टा के युवराज। मनुष्य से आशा-अपेक्षा की जाती है।

शिक्षा के आधार पर मनुष्य सुयोग्य बनता है उसकी जानकारियों की परिधि बड़ी हो जाती है। इस आधार पर उसका लौकिक क्रिया-कलाप ऐसा बन पड़ता है जिसके सहारे-साधन सुविधाओं का अधिक उपार्जन हो सके। विचार करने का क्षेत्र अधिक व्यापक हो सके। देखते भी हैं कि अशिक्षितों की तुलना में शिक्षित अधिक सुयोग्य माने जाते हैं और वे प्रगति का लाभ भी अधिक उठाते हैं। इतने पर भी यह ध्यान रखने की बात है कि यदि सुसंस्कारिता की कमी रही तो शिक्षित होना मात्र चतुरता जन्य लाभ उठा सकने की स्थिति ही बना सकेगा। सुसंस्कारिता ही है जिसके गुण, धर्म, स्वभाव के साथ जुड़े हुए अनुबंध किसी को सज्जन, प्रामाणिक, प्रतिष्ठिता एवं प्रखर-प्रतिभासम्पन्न बनाते हैं। इसी आधार पर व्यक्ति अपना स्तर ऊँचा उठाने और अपने क्रिया-कलाप से सर्व साधारण का हित साधन करने में समर्थ होता है। ऐसे ही लोग अनुकरणीय, अभिनन्दनीय माने जाते हैं, महामानवों में गिने जाते और समाज में नर रत्न कहे जाते हैं। शिक्षा की सच्ची सार्थकता उसके साथ सुसंस्कारिता जुड़ने पर ही बन पड़ती है, अन्रुथा कुसंस्कारी लोग शिक्षित होने पर भी अनगढ़ माने जाते हैं। वे अनाचार अपनाते, असभ्यों जैसी रीति-नीति अपनाते और बिना पढ़े की तुलना में अपनी चतुरता के आधार पर अधिक अनर्थ करते हैं।

शिक्षा संवर्धन के लिए भरपूर प्रयत्न किया जाना चाहिए, किन्तु यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि सद्गुणों पर आधारित सुसंस्कारिता का अपना मूल्य है। इसके बिना पर वानर बने रहने की ही स्थिति बनी रहती है चाहे शिक्षा किसी भी कक्षा तक क्यों न प्राप्तकर ली जाय। इसके विपरीत यदि मनुष्य सत्प्रवृत्तियों को अपनाये हुए है तो अन्य अभावों के रहते हुए ही वह ऋषिकल्प जीवन जी सकता है और दवे मानव बन सकता है।

संस्कृति की उपलब्धि के लिए कुछ आधार सर्वविदित हैं। सत्साहित्य का स्वाध्याय- सत्संग-श्रेष्ठ समुदाय के साथ संपर्क- उच्चस्तरीय वातावरण के सहारे व्यक्तित्व निखरते हैं। इसके अतिरिक्त कला, साहित्य, संगीत अभिनय, तीर्थाटन, परिभ्रमण के सहारे भी मनुष्य किसी विशेष ढाँचे में ढलते हैं। प्रचलनों का प्रवाह भी प्रभावित करता है। मनुष्य समाज को बनाता हैं। यह उक्ति-उच्चस्तरीय लोगों पर लागू होती है; पर साधारण लोगों के संबंध में तो यही देखा जाता है कि समाज के, सामाजिक वातावरण के द्वारा व्यक्तियों को ढाला जाता है, इसलिए मूर्धन्य जन इस प्रयास में भी निरत रहते हैं कि समर्थ सज्जन ढालने वाले वातावरण बने। इस निमित्त प्राचीन काल में बालकों के लिए गुरुकुल, तरुणों के लिए तीर्थ, प्रौढ़ों के लिए आरण्यक विनिर्मित किए जाते थे। देवालयों, धर्म संस्थानों को उसी प्रयोजन के लिए कार्य करना पड़ता था। साधु ब्राह्मण, वानप्रस्थ परिव्राजक समाज को सुसंस्कारी बनाने के लिए ही निरन्तर कार्यरत रहते थे। शिक्षा संवर्धन तो उस प्रयास का आरंभिक चरण था।

सुसंस्कारिता के प्रतिपादन एवं अभिवर्धन के लिए एक अतिरिक्त धार्मिक प्रयोजन भी प्रचलन में समाविष्ट था। प्रयोग-परीक्षणों ने उसकी उपयोगिता सिद्ध की। सम्पूर्ण मानव जीवन के आवश्यक कृत्यों में उसे सम्मान भरा स्थान मिला।

यह विधा है-संस्कार प्रक्रिया। धर्मशास्त्रों में समय-समय पर मनुष्य के सोलह संस्कार आयोजन किए जाने का विधान है। आयु वृद्धि के साथ-साथ जीवन में अनेक मोड़ आते हैं। उत्तरदायित्वों में हेर-फेर होता है। उसका साँगोपाँग शिक्षण करने के लिए समय-समय पर पारिवारिक समारोहों के रूप में संस्कार आयोजन सम्पन्न किए जाते थे। उन दिनों फुरसत और सुविधा का समय था, इसलिए हर व्यक्ति के सोलह संस्कार मनाये जाने के रूप में परिवार संस्था के समग्र शिक्षण क प्रयास निर्बाध रूप में चलता रहता था; पर अब वैसी बात नहीं रही। व्यस्तता, महँगाई और धर्म प्रयोजनों के लिए उपेक्षा बढ़ जाने के कारण उनमें कटौती भी करनी पड़ गयी और विधान को अपेक्षाकृत अधिक सरल भी बनाया गया। समय के प्रवाह के अनुरूप शान्तिकुँज ने संस्कार प्रक्रिया का समयानुसार निर्धारण एवं प्रचलन किया है।

इन दिनों आवश्यक संस्कार इतने चलते रहे तो भी सुसंस्कारिता संवर्धन का प्रवाह अपनी प्राचीन परम्परा बनाये रहेगा और उनसे मिलने वाले लाभों से लाभान्वित होता रहेगा। सामयिक संस्कार जिनकी गिनती वैसे तो सोलह है, पर उनमें से सात एवं दो सामयिक जन्म दिवसोत्सव तथा विवाह दिवसोत्सव मनाये जाते रहें तो वह महत्वपूर्ण प्रयोजन सध सकता है, जिसके निमित्त इनका प्रावधान भारतीय संस्कृति में रखा गया था। (क्रमशः)


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