जड़ और चेतन एक दूसरे से पृथक् हैं ही नहीं

June 1989

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इन दिनों अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की चर्चा विज्ञ समाज में सर्वत्र होती रहती है। इतने पर भी यह नहीं उजागर किया जाता कि उस प्रतिपादन का उद्देश्य और स्वरूप क्या है? और क्यों इसकी आवश्यकता समझी जा रही है। वस्तुतः प्रश्न ही तद्-विषयक भ्रान्ति पर आधारित है। विज्ञान और अध्यात्म सदा से एक दूसरे के पूरक रहे हैं। विलग होने पर कोई भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये नहीं रह सकता है। अस्तित्व किसी रूप में बने भी रहें तो उनमें से किसी की भी उपयोगिता का प्रमाण नहीं मिल सकता। सौर मण्डल को ही लें उसमें नौ ग्रह और तैंतीस उपग्रह अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। अगले दिनों इस संख्या में और भी अभिवृद्धि होने वाली है। अविज्ञातों को खोजा निकाला जा रहा है। उस परिवार के किसी घटक में बुद्धिमान प्राणियों का अस्तित्व नहीं पाया गया है। इसका कारण एक ही हो सकता है कि या तो वहाँ जीवधारी इच्छाशक्ति से अनुकूल वातावरण बना नहीं सके अथवा प्रकृति की प्रतिकूलता के कारण वहाँ प्राणियों की समर्थ प्रजातियों का उद्भव संभव नहीं हो सका। इसे जड़ और चेतन की विलगता कह सकते हैं।

ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह गोलकों की भी यही स्थिति रही होगी। जहाँ जीवन रहा होगा वहाँ नीरवता के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगोचर न रहा होगा। इसका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन के मध्य वहाँ तालमेल बनने का सुयोग नहीं बन सका। जहाँ वह व्यवस्था रही है, वहाँ हर परिस्थिति में जीवधारियों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने और विभिन्न प्रकार की हलचलें करते रहने का प्रमाण दिया है।

पृथ्वी की उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव में असाधारण शीत है, फिर भी इन दोनों क्षेत्र में जीव-धारियों के अपने-अपने ढंग के क्रिया-कलाप पाये गये हैं। इस सुयोग के अभाव में समुद्र के मध्य उठे हुए अनेक द्वीप अभी भी सुनसान पड़े हैं। इससे प्रमाणित होता है कि जड़ और चेतन का मिलन ही हलचलों का केन्द्र है और वे महत्वपूर्ण तब बनती हैं जब उन दोनों को उभारने-सुधारने वाला विज्ञान एवं अध्यात्म उपयोगी सीमा तक विकसित हो सकता हो।

यह समन्वय-सुयोग अनादि और अनन्त है, जहाँ वे दोनों बिछुड़ जायँ तो सर्वत्र न सही उस क्षेत्र में तो प्रलय के सूखे-गीले, गरम ठंडे दृश्य दिखाई ही देंगे। इसलिए दोनों के समन्वय के प्रश्न को उभारने में कोई प्रत्यक्ष दम नहीं है।

यदि सचेतन प्राणियों की उत्पत्ति से पूर्वकाल पर दृष्टि डाली जाय तो भी आदि कारण को खोजते-खोजते वहाँ पहुँचना पड़ेगा जहाँ चेतन की इच्छा या प्रेरणा के उपरान्त पदार्थ का अस्तित्व प्रकाश में आया। श्रुति वचनों में उसका उल्लेख भर है। ‘एकोहम् बहुस्यामि’ सूत्र में यही प्रतिपादन है कि स्रष्टा को शून्य स्थिति में रहना अखरा तो उसने इच्छा की, ‘एक से बहुत हो जाऊँ,’ फलतः परा और अपरा प्रकृति के रूप में दो प्रवाह फूट पड़े और सृष्टि का आरंभ हो गया। ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के रचे जाने का अलंकारिक मिथक भी प्रकारान्तर से इसी स्थिति पर प्रकाश डालता है।

पदार्थ विद्या भले ही अपने परिकर द्वारा ही विश्व को ओत-प्रोत सिद्ध करे, उसी को प्रधान माने, फिर भी यह स्वीकार किये बिना उनका कथन भी समग्र नहीं बन पड़ता कि कोई अदृश्य इच्छाशक्ति पदार्थ सत्ता का उद्भव, संचालन, अभिवर्धन और परिवर्तन जैसे खेल खिला रही है। यहाँ हर पदार्थ के पीछे एक सुव्यवस्था का समावेश है। परमाणु, जीवाणु, विषाणु स्तर के अदृश्य घटकों को भी किसी सुनियोजित रीति-नीति का प्रतिपादन करने के लिए विवश रहना पड़ता है। यदा-कदा उच्छृंखलता दीख पड़ती है। वह भी किन्हीं सशक्त नियमों के आधार पर ही दृश्यमान होती है। भले ही उन नियमों के संबंध में मनुष्य की जानकारी, कुछ आभास पाने तक ही सीमित क्यों न रही हो?

पोले आकाश में असंख्य ग्रहगोलकों, वाष्पीभूत महामेघों के चक्रवातों की इकाइयाँ अधर में टँगी हुई हैं। एक दूसरे के साथ वे मजबूत रस्सों से बँधी हुई हैं। गतिशीलता उनमें आकर्षण शक्ति बनाये हुए है। सब के बीच एक अत्यन्त सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया काम कर रही है और अणु से लेकर विभु तक के पसारे वैभव का इस प्रकार सुसंचालन किए हुए है कि उसे अकारण नहीं कह सकते। उसके पीछे निश्चित ही कोई सुनियोजित चेतना तालमेल बिठाये हुए है।

वनस्पतियाँ, प्राणियों, सूक्ष्म-जीवियों जलचरों की जीवन लीला और गतिविधियों पर गंभीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह सब आकस्मिक रूप से नहीं चल रहा है। हर घटक के पीछे कोई उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता काम कर रही है, अन्यथा बिखराव और टकराव का ऐसा माहौल दीख पड़ता, जिसके कारण उत्पन्न हुई अव्यवस्था और अराजकता उड़ते गुबार के अतिरिक्त और कुछ भी दीख न पड़ती। किसी पदार्थ का कोई स्वरूप ही न बन पाता और न वह कुछ क्षणों तक स्थिर ही रह पाता। सचेतन ही अचेतन पर नियन्त्रण कर सकता है। पदार्थ की छोटी इकाई के अंतर्गत जिस प्रकार जितने परिकर काम करते और अपनी धुरी-कक्षा में भ्रमण करते देखे जाते हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह नियमित अनुशासन भी किसी व्यापक सत्ता का ही इच्छापूर्वक अवस्था के अंतर्गत रखा गया खेल है। प्राणियों के शरीरों में देखे जाने वाले अंग, अवयव, रसायन, जीवाणु अपने-अपने कार्य में इतने अधिक तल्लीन हैं, मानों किसी ने उन्हें किसी आश्चर्यजनक कम्प्यूटर की तरह सुनियोजित किया हो। प्राणियों को क्षुधा निवृत्ति और वंशवृद्धि के कर्मों में इस प्रकार जोता हुआ है कि वे अपनी व्यस्त जीवनचर्या को सरसतापूर्वक पूर्ण करते रह सकें। इन दोनों प्रयोजनों के लिए आवश्यक साधनों का सृजन भी इस प्रकार किया गया है कि वे हर किसी को सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकें। इतना ही नहीं ऋतुचक्र भी इस प्रकार का विनिर्मित है कि उससे निबटने के लिए हर जीवधारी को अपने कौशल का, समुचित अभिवर्धन करने का अवसर प्राप्त होता रहे। वनस्पतियों और प्राणियों का एक दूसरे का पूरक बनकर रहना भी कितना विचित्र है कि यह विश्वास किये बिना रहा नहीं जाता कि यह समस्त विस्तार किसी बुद्धिमान तंत्र के संरक्षण में चल रहा है।

चेतना का अस्तित्व सुनिश्चित है। वह ब्रह्माण्डव्यापी विराट् भी है और प्रत्येक प्राणी तथा परमाणु में अपने अस्तित्व का सुनियोजन के आधार पर परिचय भी देती है। इसी प्रकार पदार्थ को उसके विभिन्न रूपों में विद्यमान देखा जा सकता है। वायुभूत होने पर वह दृष्टिगोचर भले ही न होती हो, पर उसका परिचय तो ठोस द्रव और गैस के रूप में विद्यमान है ही। दोनों के बीच सघनता भी इतनी है कि एक के बिना दूसरे का काम चल ही नहीं सकता। उनका अस्तित्व भी जाना और समझा नहीं जा सकता विलग होने की स्थिति में यहाँ कुछ भी शेष न रहेगा। ताप, शब्द और प्रकाश की जो तरंगें काम करती हैं, जड़ चेतन को एक सूत्र में बाँधती हैं, उनका भी कहीं अता-पता न चलेगा क्षीरसागर में विष्णु के सो जाने पर महाप्रलय हो जाती है। क्षीरसागर और विष्णु-जड़ चेतन के यही दो समन्वय अन्त में रह जाते हैं। आरंभ भी कमल पुष्प पर बैठे ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का सृजन होने से यही तात्पर्य है कि ब्रह्म और प्रकृति वैभव का मिल जुल कर बना आधार ही सृष्टि के सृजन का मूल कारण बना।

कोई जड़ ऐसा नहीं है, जिसमें चेतना का कोई-न-कोई अंश विद्यमान न हो। पत्थरों तक में मंदगामी हलचल होती है। धातुओं तक को जंग लगती और क्षरण-परिवर्तन होता है। समुद्र उफनते हैं। हवा में अन्धड़ चलते हैं। पृथ्वी में भूकम्प आते हैं, आकाश में इन्द्रधनुष देखे जाते हैं, पानी बरसता है। भाप उड़ती है, मौसम बदलते हैं। इन सबके साथ एक सूक्ष्म नियम व्यवस्था काम करती है। उसे सचेतन का ही एक प्रकार कहा जा सकता है। पड़ी लकड़ी में से कुकुरमुत्ते उग पड़ते हैं। गोबर में, कीचड़ में कृमियों का जन्म होने लगता है। यह सब तथ्य बताते हैं कि जड़ नितान्त निर्जीव एवं गति विहीन नहीं है। इसी प्रकार चेतन के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि उसका स्वरूप देखना तो दूर कल्पना तक कर सकना कठिन है। उथली चेतना होने के कारण मनुष्येत्तर प्राणी ईश्वर के स्वरूप और नियमों के संबंध में कोई कल्पना तक नहीं कर सकते। मनुष्य भी निष्कलंक ब्रह्म के संबंध में अपनी सुनिश्चित आस्था नहीं जमा पाता। धर्म धारणा और ध्यान साधना के माध्यम से ईश्वर के साथ सम्बंध जोड़ने की प्रक्रिया में उसे किसी-न-किसी आकार को कहीं न कहीं ठहरा हुआ कल्पित करना पड़ता है। विभिन्न संप्रदायों और सघन परम्पराओं ने ईश्वर का कोई-न-कोई ऐसा स्वरूप निर्धारित किया है, जिसका ध्यान बन पड़े और उसके साथ भक्ति-भावना का आरोपण संभव हो सके। नितान्त निराकार की कल्पना तक नहीं बन पड़ती।

इकालॉजी सिद्धान्त के अनुसार समूची विश्व व्यवस्था में अति सघनता के साथ अनुशासन का समावेश है। सर्वत्र व्यवस्था ही व्यवस्था है। यहाँ तक कि यदा कदा भूकम्प, तूफान जैसे व्यतिक्रम जो दीख पड़ते हैं, वे भी उन विशिष्ट नियमों के साथ जुड़े हुए हैं जिनका मनुष्य की समझ अभी तक पूरी तरह पता नहीं लगा पायी है।

जड़ को अव्यस्थित होना चाहिए, किन्तु यहाँ किसी को भी वैसी छूट नहीं मिली हुई है। शरीर के जीवाणु, तन्तु ऊतक, घटक इस क्रमबद्धता का परिचय देते हैं कि कायिक ढाँचा तक नियमबद्ध है। मनुष्य कभी-कभी नैतिक

नियमों का उल्लंघन कर तात्कालिक लाभ उठाता देखा जाता है। इससे कर्मफल की व्यवस्था में संदेह होता है पर कुछ ही समय में क्रिया की प्रतिक्रिया सामने आकर रहती है। इससे विदित है जड़ और चेतन का पारस्परिक समन्वय अविच्छिन्न है।

पदार्थ का प्रतिनिधित्व विज्ञान करता और चेतना का अध्यात्म। दोनों के बीच सघन समन्वय न रहने पर तो यहाँ कुछ भी बन या चल न सकेगा। ऐसी दशा में यह मान्यता गलत है कि दोनों सत्ताएँ एक दूसरे से पृथक् हैं। ऐसी दशा में यह चर्चा भी बाल विनोद जैसी लगती है कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। जो विलग हैं ही नहीं, उनका समन्वय करने की आवश्यकता और चेष्टा भी किस प्रकार बन पड़ेगी?


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