भवबन्धनों से मुक्ति, मोक्षसिद्धि

June 1989

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साधना का तात्पर्य है, साध लेना, सधा लेना। पशु प्र

शिक्षक यही करते रहते हैं। अनगढ़ और उच्छृंखल पशुओं को वे एक रीति नीति सिखाते हैं। उनको अभ्यस्त बनाते हैं और उस स्थिति तक पहुँचाते हैं जिसमें उस असंस्कृत प्राणी को उपयोगी समझा जा सके। उसके बढ़े हुए स्तर का मूल्याँकन हो सके। पालने वाला अपने को लाभान्वित हुआ देख सके। सिखाने वाला भी अपने प्रयास की सार्थकता देखते हुए प्रसन्न हो सके।

समझा यह जाता है कि भक्त भगवान को साधना है। उसको मूर्ख समझते हुए उसकी गलतियाँ निकालता रहता है। तरह तरह के उलाहने देता है। साथ ही गिड़गिड़ा कर नाक रगड़ कर खीसें निपोर कर अपना उचित अनुचित उल्लू सीधा करने के लिए जाल जंजाल बुनता है। प्रशंसा के पुल बाँधता है। छिटपुट भेंट चढ़ाकर उसे फुसलाने का प्रयत्न करता है। समझा जाता है कि सामान्य लोगों से व्यावहारिक जगत में आदान प्रदान के आधार पर ही लेन देन चलता है, पर ईश्वर या देवता ऐसे हैं जिन्हें वाणी की वाचालता तथा शारीरिक मानसिक उचक-मचक करने भर से वशवर्ती किया जा सकता है। यह दार्शनिक भूल मनुष्य को प्रकारान्तर से प्रच्छन्न नास्तिक बना देती है। एक नास्तिक वह है जो प्रत्यक्षवाद के आधार पर ईश्वर की सत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर न होने पर उसकी मान्यता से इनकार करते हैं। दूसरे प्रच्छन्न नास्तिक वे हैं जो उससे पक्षपात की, मुफ्त में लम्बी चौड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति चाहते रहते हैं। मनुष्य विधि व्यवस्थाओं को तोड़ता छोड़ता रहता है पर ईश्वर के लिए यह संभव नहीं कि अपनी बनाई कर्मफल व्यवस्था का स्वयं उल्लंघन करे या दूसरों को ऐसा करने के लिए उत्साहित करे, तथाकथित भक्त लोग ऐसी ही आशाएँ किया करते हैं। अन्ततः उन्हें निराश होना पड़ता है। इस निराशा की खीज और थकान से वे या तो साधना विधान को मिथ्या बताते हैं या ईश्वर के निष्ठुर होने की मान्यता बनाते हैं।

आवश्यकता है भ्रान्तियों से निकलने और यथार्थता को अपनाने की। इस दिशा में मान्यताओं को अग्रगामी बनाते हुए हमें सोचना होगा कि जीवन साधना ही आध्यात्मिक स्वस्थता और बलिष्ठता है। इसी के बदले प्रत्यक्ष जीवन में बिना मरण की प्रतीक्षा किये स्वर्ग, मुक्ति और तृप्ति का रसास्वादन करते रहा जा सकता है। उन लाभों को उपलब्ध किया जा सकता है, जिनका उल्लेख अध्यात्म विद्या की महत्ता बताते हुए शास्त्रकारों ने विस्तार पूर्वक किया है। सच्चे सन्त भक्तों का इतिहास भी विद्यमान है। खोजने पर प्रतीत होता है कि पूजा पाठ भले ही उनका-न्यूनाधिक रहा हो पर उनने जीवन साधना के क्षेत्र में परिपूर्ण जागरूकता बरती। इसमें व्यतिक्रम नहीं होने दिया। न आदर्श की अवज्ञा की और न उपेक्षा बरती। भाव संवेदनाओं में श्रद्धा-विचार बुद्धि में प्रज्ञा और लोक व्यवहार में शालीन सद्भावना की निष्ठा अपनाकर कोई भी सच्चे अर्थों में जीवन देवता का सच्चा साधक बन सकता है। उसका उपहार वरदान भी उसे हाथों हाथ मिलता चलता है।

ऋषियों, मनीषियों, सन्त सुधारकों और वातावरण में ऊर्जा आभा भर देने वाले महामानवों की अनेकानेक साक्षियाँ विश्व इतिहास में भरी पड़ी हैं। इनमें से प्रत्येक को हर कसौटी पर जांच−परख कर देखा जा सकता है कि उनमें से हर एक को अपना व्यक्तित्व उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध करना पड़ा है। इससे कम में किसी को भी न आत्मा की प्राप्ति हो सकी, न परमात्मा की। न ऐसों का लोक बना और न पर लोक। पूजा को श्रृंगार माना जाता रहा है। स्वास्थ्य वास्तविक सुन्दरता है। ऊपर से वस्त्राभूषणों से, प्रसाधन सामग्रियों से उसे सजाया भी जा सकता है। इसे सोना सुगन्ध का मिश्रण बन पड़ा माना जा सकता है। जीवन साधना समग्र स्वस्थता है। उसके ऊपर पूजा पाठ का श्रृंगार भी सजाया जाय तो शोभा और भी अधिक बढ़ेगी किन्तु यह नहीं माना जाना चाहिए कि मात्र श्रृंगार साधनों के सहारे सुन्दरता बढ़ती है। किसी जीर्ण जर्जर, रुग्ण या मृत शरीर पर श्रृंगार सामग्री चढ़ा ली जाय तो भी कुछ प्रयोजन कहाँ सधता है? उससे तो उपहास ही होगा। इसके विपरीत यदि कोई हृष्टपुष्ट पहलवान मात्र लँगोट पहन कर अखाड़े में उतरता है तो भी उसकी शोभा बन जाती है। ठीक इसी प्रकार जीवन को सुसंस्कृत बना लेने वाले यदि पूजा अर्चा के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी काम चल जाता है।

अध्यात्म विज्ञान-तत्वदर्शी को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आरंभ करना पड़ता है। उसे सोचना होता है कि मनुष्य जीवन की बहुमूल्य धरोहर का इस प्रकार उपयोग करना है जिससे शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार भी चलता रहे पर साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरी करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके। ईश्वर के दरबार में पहुँचने पर सीना तान कर यह कहा जा सके कि जो अमानत जिस प्रयोजन के लिए सौंपी गई थी उसे उसी हेतु सही रूप में प्रयुक्त किया गया।

इस मार्ग में सबसे बड़े व्यवधान तीन हैं। इन्हीं को रावण, कुम्भकरण, मेघनाद कहा गया है। यही देवी भागवत के महिषासुर, मधुकैटभ, रक्तबीज हैं। कंस, दुर्योधन, जरासंध भी यही हैं। यह प्रायः साथ लगे रहते हैं और पीछा नहीं छोड़ते। इन्हीं के कारण मनुष्य पतन और पराभव के गर्त में गिरता है। पशु, प्रेत और पिशाच की जिन्दगी जीता है। नर बानर और पामर इन्हीं के चंगुल में फँसे हुए लोगों को देखा जाता है। वे हैं (1) लोभ (2) मोह (3) अहंकार। वासना, तृष्णा और लिप्सा इन्हीं के कारण उत्पन्न होती हैं।

लोभ विजय के लिए सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त अपनाना पड़ता है। औसत नागरिक स्तर को निर्वाह में संतोष करना पड़ता है। ईमानदारी और परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना पड़ता है। लालची के लिए अनीति अपनाये बिना अपनी तृष्णा की पूर्ति कर सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं होता। संसार में इतनी ही सम्पन्नता उपजती है कि उससे हर किसी को जीवन धारण भर की सुविधा मिल सके। जो अधिक विलासी खर्च करेगा, वह प्रकारान्तर से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहने के लिए बाधित करेगा। इसीलिए शास्त्रकारों ने परिग्रह को पाप बताया है। विलासी, संग्रही और अपव्ययी की भी ऐसी ही निन्दा की है।

अधिक कमाया जा सकता है पर उसमें से निजी निर्वाह में सीमित व्यय करके शेष बचत को गिरों को उठाने, उठों को उछालने और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगाया जाना चाहिए। राजा जनक, हर्षवर्धन जैसे उदाहरणों की कमी नहीं। मितव्ययी अनेकों दुर्व्यसनों और अनाचारों से बचता है। ऐसी हविस उसे सताती नहीं, जिसके लिए अनाचार पर उतारू होना पड़े। साधु ब्राह्मणों की यही परम्परा रही है। सज्जनों की शालीनता भी इसी आधार पर फलती फूलती है, अन्यथा लालची को अपना सारा समय, श्रम कौशल इसी निमित्त खपाते रहना पड़ता है। उस पर व्यस्तता छाई रहती है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति कराने वाली परमार्थ परायणता अपनाने के लिए उसका न मन होता है और न कुछ करते बन पड़ता है। इसलिए जीवन साधना के इस प्रथम अवरोध को नियंत्रित करने वाला दृष्टिकोण हर जीवन साधना के साधक को अपनाना ही चाहिए।

मोह वस्तुओं से भी होता है और व्यक्तियों से भी। छोटे दायरे में आत्मीयता को सीमाबद्ध करना ही मोह है। इसके रहते हृदय की विशालता चरितार्थ हो ही नहीं पाती। अपना शरीर और परिवार ही सब कुछ दीख पड़ता है। उन्हीं के लिए मरने खपने के झंझट में फँसे रहना पड़ता है। “आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और “वसुधैव कुटुम्बकम्” के दो आत्मवादी सिद्धान्त हैं। इनमें से एक को भी मोहग्रस्त कार्यान्वित नहीं कर सकता। इसलिए अपने में सब को और सब में अपने को देखने की दृष्टि विकसित करना जीवन यज्ञ के लिए आवश्यक माना गया है।

परिवार छोटे और छोटा रखा जाय। पूर्ववर्ती अभिभावकों, बड़ों और आश्रितों के ऋण चुकाने की ही व्यवस्था नहीं बन पाती तो नए अतिथि क्यों न्यौत बुलाये जाँय? समय को, परिस्थितियों को देखते हुए अनावश्यक बच्चे उत्पन्न करना और परिवार का भार बढ़ाना परले सिरे की भूल है। समान विचारों के साथी सहयोगी मिलें तो विवाह करने में हर्ज नहीं। पर वह एक दूसरे की सहायता सेवा करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए ही की जानी चाहिए। इस घोर महँगाई और उत्पादन की कमी को देखते हुए जनसंख्या का भार बढ़ाना प्रत्यक्ष विपत्ति मोल लेने के समान है। परिवार को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी बनाना ही पर्याप्त है। औलाद के लिए विपुल सम्पदा उत्तराधिकार में छोड़ मरने की भूल तो किसी को करनी ही नहीं चाहिए। मुफ्त का माल किसी को भी हजम नहीं होता। वह दुर्बुद्धि और दुर्गुण ही उत्पन्न करता है। संतान पर यह भार लदेगा तो उसका अपकार ही होगा।

पारिवारिक उत्तर दायित्वों को निबाहा जाना चाहिए उस कीचड़ में इतनी गहराई तक नहीं फँसना चाहिए कि उबर सकना संभव ही न हो सके। मोह को भवबन्धनों में से प्रमुख माना गया है। उस संकीर्ण दायरे में जकड़े हुए लोग लोकमंगल का कर्तव्य पालन कर ही नहीं पाते। जिन्हें सभी के प्रति पारिवारिकता का भाव अपनाने का अवसर मिलता है, उनके लिए हर किसी को आत्मीय मानने का, सभी की सेवा सहायता करने का आनन्द मिलता है।

अहंकार मोटे अर्थों में घमंड समझा जाता है। अकड़ कर उद्धत अशिष्ट व्यवहार करने, क्रोध ग्रस्त रहने को अहंकार माना जाता है पर वस्तुतः वह है अधिक सूक्ष्म और व्यापक। आत्म प्रदर्शन में, ठाटबाट में बढ़ चढ़ कर अपनी बड़ाई का रौब जमाना अहंकार का वास्तविक स्वरूप है। फैशन, सज-धज, श्रृंगार, ठाट बाट, अपव्यय, शेखी, बड़प्पन आदि अहंकार के स्वरूप हैं। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, बड़प्पन जताने के लिए, शेखीखोरी के लिए लोग ढेरों समय, श्रम और पैसा गँवाते हैं। यह भी एक प्रकार का नशा है जिसमें अपने को भले ही मजा आता हो पर हर विचारशील को इसमें क्षुद्रता की, बचकानेपन की ही गंध आती है। इस विडम्बना के लिए चित्र विचित्र प्रवंचनायें रचनी पड़ती हैं। ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न करने में भी अहंता की ही प्रमुख भूमिका रहती है। कलह और विग्रह भी प्रायः इसी कारण उत्पन्न होते हैं। अहंकार को आत्मघाती शत्रु माना गया है। ऐसे लोगों से आत्म साधना तो बन ही नहीं पाती। उन पर उद्दण्डता का भूत और चढ़ा रहता है जो दूसरों को गिराने, नीचा दिखाने की ही ललक उठाती रहती है। अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही ऐसे लोग लगे रहते हैं। इन परिस्थितियों में आत्मोत्कर्ष और आत्म परिष्कार का आधार कैसे बन पड़े?

लोभ, मोह और अहंकार के तीन भारी पत्थर जिसने सिर पर लाद रक्खे हों उसके लिए जीवन साधना की लम्बी और ऊँची मंजिल पर चल सकना, चढ़ सकना असंभव हो जाता है। भले ही कोई कितने ही पूजा पाठ करते रहें, जिन्हें तथ्यान्वेषी बनना है उन्हें


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