कामुकता का यह अतिवाद और भी हानि कारक

June 1989

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मनुष्य जिस व्यक्ति या आकृति-प्रकृति क अधिक चिन्तन करता है वह उसी ढाँचे में ढलता जाता है। यह एक प्रसिद्ध एवं सर्वविदित मानसिक तथ्य है। तत्वज्ञानी इस संदर्भ में कीट-पतंगे का उदाहरण देते रहते हैं। इष्टदेव का ध्यान करके उन्हीं विशेषताओं से अपने का ढालने का प्रयत्न किया जाता है।

टिड्डा जब तक हरी घास रहती है, तब तक हरे रंग का रहता है और तब घास सूखकर पीली पड़ जाती है तो उसका शरीर भी पीला पड़ जाता है। यह दृष्टि के सामने रहने वाले पदार्थ के अनुरूप ढलने की प्रक्रिया है जो सर्वत्र किसी न किसी रूप में देखी जाती है। उदाहरण के लिए कुसंग और सत्संग के कारण मनुष्यों का चिन्तन और चरित्र उसी ढाँचे में ढल जाता है।

यह प्रसंग नर-मादा प्रसंगों में भी अत्यधिक लागू होता है। पुरुष प्रकृति का नारी के ढाँचे में ढलना और नारी का पुरुष स्थान ग्रहण करने का उत्साह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किसकी मनोदशा पर किसका प्रभाव तन्मयता और किस गहराई तक चढ़ा रहता हैं

पति-पत्नी का सहयोगी प्यार एक बात है। नारी का नर के विषय में अत्यधिक चिन्तन करना या नर का नारी के रूप यौवन विशेषतया जननेन्द्रियों की कल्पना करते रहना आरंभ में प्रतिपक्ष के प्रति थोड़ा आकर्षण तो बढ़ाता है, पर कुछ ही दिनों में ऐसी मनःस्थिति बन जाती है कि इष्ट के प्रति समर्पित होने की भावना बलवती होने लगती है। हिजड़ों में वही देखा गया है। वे या तो नर होकर नारी वेषभूषा या मनः स्थिति के प्रति अपने को समर्पित करते हैं या नारी अपनी स्थिति को अपर्याप्त मानकर पुरुष के गौरव, वर्चस्व या सौंदर्य के प्रति अपने को समर्पित कर देती है। ऐसी दशा में पुरानी संरचना और नवीन आकर्षण के बची द्वन्द्वयुद्ध चल पड़ता है और स्थिति मध्यवर्ती बन जाती है।

विगत 50 वर्षों में लिंग परिवर्तन के आपरेशन जितने हुए हैं, इतने इससे पहले कभी नहीं हुए थे। नपुँसकता का अनुपात भी बढ़ा है। नारी अपने नारीत्व को हीन मानती है और नर में अपने से विपरीत पक्ष के प्रति इतना आकर्षण बढ़ जाता है कि वह उसी प्रकार की रतिक्रिया में आनन्द की कल्पना करता है। ऐसी स्थिति में आतुरता की परिणति मध्यवर्ती नपुँसकता में होती है।

चूँकि समाज में नर का प्रभुत्व है। मादा की अपेक्षा उसे सुविधाएँ, स्वावलम्बन और वर्चस्व अधिक प्राप्त है। इसलिए नारी की महत्वाकाँक्षा नर की स्थिति में पहुँचने की होती है। ऐसी महिलाएँ उन कार्यों में रस लेती हैं, जिनमें उन्हें पुरुष जैसा काम करने का अवसर मिले। नौकरियों में भी ऐसे काम ढूँढ़ती हैं जिनमें उन्हें संकोचशीलता के बंधनों में न बँधकर पुरुषोचित पराक्रम दिखाने का अवसर मिले। सेना में, पुलिस में, व्यवसाय में नारी का बढ़ता उत्साह इसी मनोवृत्ति का परिचायक है।

सामान्य रहन-सहन में भी इन दिनों इस तथ्य की झाँकी मिलती है। लड़के दाढ़ी-मूँछ रखना पसंद नहीं करते। बाल भी अपेक्षाकृत ऐसा रखते हैं, जिसे देखने से नर-नारी की पहचान न हो सके। लड़कियाँ इस संबंध में एक कदम और आगे हैं। उनकी अभिरुचि पुरुष वेश की ओर बढ़ रही है और ऐसे खेलों में अपनी वरिष्ठता वह सिद्ध कर रही है, जिनमें पहले पुरुषों का ही एकाधिकार था।

नर-नारी की समानता और मानवीय मौलिक अधिकारों की दृष्टि से इसमें कोई हर्ज नहीं, वरन् अच्छा ही है कि नर-नारी सभी एक स्तर पर रहें और मिल-जुल कर साथी-सहयोगी की तरह सहकारिता का सिद्धान्त अपनायें।

पर चिन्ता की बात तब बनती है, जब कामुकता की दृष्टि से कोई पक्ष दूसरे पक्ष की ओर इस कदर आकर्षित और चिन्तनरत होता है कि उसे अपनी स्थिति पर असंतोष और दूसरे पक्ष का वर्चस्व प्रतीत होने लगे। ऐसी दशा में मनःस्थिति, शारीरिक स्थिति और सामाजिक व्यवस्था में व्यतिक्रम उत्पन्न होता है और यह अतिवाद बड़ी उपहासास्पद और चिन्ताजनक समस्याएँ उत्पन्न करता है।

अच्छा यही है कि आत्म गौरव को न गँवाया जाय। अपने को हेय और दूसरे को श्रेष्ठ न माना जाय। प्रकृति ने जो जिम्मेदारी सौंपी है, समाज परम्पराओं ने आकृति-प्रकृति के अनुरूप जो परम्परा चलाई है, उसे यथावत् चलने दिया जाय।


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