चंचलता एक प्रकार का बचपना

June 1989

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बालकों में चंचलता का बाहुल्य होता है। वे देर तक एक स्थान पर नहीं बैठ सकते। एक कार्य में मन नहीं लगा सकते। एक चीज को पकड़े नहीं रह सकते। चपलता उनके स्वभाव में भरी होती है। वे दिन भर भागदौड़ करते हैं। उछलते-मचलते हैं। किन्हीं वस्तुओं को पाने के लिए आग्रह करते हैं, किन्तु उसे प लेने पर भी सन्तुष्ट नहीं होते। जिसके लिए अभी-आतुर हो रहे थे, आग्रह कर रहे थे, उसे पाने के उपरान्त कुछ ही देर में ऊब जाते हैं और फिर जो हाथ में है उसे फेंककर नई ढूँढ़ते और उसे पाने के लिए वैसी ही आतुरता प्रकट करते हैं, जैसी पहले वाली के लिए कर रहे थे। बचपन प्रायः इसी अस्थिरता में बीत जाता है। उनका उत्साह और परिश्रम कम नहीं होता। उसकी मात्रा बड़ों की अपेक्षा अधिक ही होती है पर उसके सहारे कुछ बनता नहीं। कुछ पल्ले भी नहीं पड़ता। भाग दौड़ निरर्थक ही सिद्ध होती हैं परिश्रम निष्फल चला जाता है।

जिनका मानसिक विकास भली प्रकार नहीं हुआ होता उनकी ललक अस्थिरता में ही रमी है। चंचलता के इशारे पर ही वे इधर-उधर उचकते मचलते रहते हैं, बिना उद्देश्य बिना प्रयोजन। बन्दर वृत्ति इसी को कहते हैं। पेट भरने की दौड़-धूप समझ में आती है, पर जब वैसी आवश्यकता नहीं रहती, जहाँ से कुछ मिलने वाला भी नहीं है। उधर उछल-कूद करना किस कारण होता है? इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। बन्दर छोटे हों या बड़े एक टहनी से दूसरी पर, एक पेड़ से दूसरे पर उन्हें चढ़ते-उतरते देखा जा सकता है। पक्षियों के पास खाली समय बहुत होता हैं। पेट तो वे थोड़े से ही प्रयत्न से भर लेते हैं। कोई बड़ी जिम्मेदारी भी उनके कन्धों पर नहीं होती। फिर भी वे चैन से नहीं बैठते। फिर यह भाग दौड़ क्यों? यदि इसे मनोरंजन कहा जाय तो वह भी नहीं कहते बनता। मनोरंजन में दूसरों को क्रिया करनी पड़ती है। दर्शक देखते हुए रस लेते हैं। जिसमें स्वयं ही खटना पड़े, उसमें विनोद क्या?

बच्चे खिलौनों से खेल रहे हों तो उसे विनोद कहा जा सकता है। लोरियाँ, नानी की कहानी आदि सुन रहे हों तो भी एक बात है। पर रोने, चिल्लाने, दौड़ने, उठाने, पटकने में क्या कुछ मिलता है। फिर भी बच्चे-बन्दर, पक्षी पतंग यही सब करते हैं, इन हलचलों में चंचलता ही काम करती दीखती है। मन किसी प्रयोजन के लिए उमगता है पर इतना धैर्य नहीं होता कि जो चाहा गया है उसे योजनाबद्ध रूप में किया जाय। कुछ समय धैर्यपूर्वक एक काम पर टिका जाय। आरंभ के साथ-साथ ही वे समापन भी करते रहते हैं। यह अपने की थकाने वालाल कौतुक है। इसे आवारागर्दी भी कहा जा सकता है। मनुष्यों में से जिनकी ऐसी प्रवृत्ति होती है उन्हें बाल बुद्धि या अर्द्ध विक्षिप्त स्थिति का कहा जा सकता है। ऐसे कौतुक को दर्शक उपहासास्पद ही मानते हैं।

एक पौधे को अभी यहाँ लगाया जाय, पीछे दूसरी, तीसरी, चौथी जगह लगाया जाय तो उसकी जड़ें बेकार हो जाएँगी और वह पौधा पनप न सकेगा? जिन इमारतों का नियमित नक्शा नहीं बना होता जिन्हें जरूरत के मुताबिक औंधा-तिरछा बनाया जाता रहता है, वे बेढंगी-बेतुकी बन जाती हैं। चूल्हे पर अभी एक चीज-अभी दूसरी चीज चढ़ाई जाती रहें तो पूरी तरह पकने का अवसर न मिलने पर वे सभी पदार्थ कच्चे रहेंगे। यात्री कुछ देर पूरब को, कुछ देर पश्चिम-दक्षिण को चले तो एक दायरे में घूमता रहेगा। किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने की सुनियोजित यात्रा न कर सकेगा।

एक क्षेत्र में चालीस फुट जमीन खोदने पर पानी निकलता था। कुआं खोदने के लिए उतनी खुदाई करने की आवश्यकता थी पर उतावले खोदने वाले ने दस फुट खोदने के बाद पानी निकलते न देखा तो दूसरी जगह खोदना आरम्भ कर दिया। वहाँ न निकला तो दूसरी जगह-तीसरी जगह चौथी जगह वही प्रयास दुहराया। खुदाई तो पूरी 40 फुट हो गई पर वह छितराई हुई थी। एक भी गड्ढे में पानी न मिला। परिश्रम बेकार हुआ और अच्छी खासी जमीन भी ऊबड़-खाबड़ हो गई। उतावली का परिणाम हर कहीं यही होता है चंचलता-अस्थिरता किसी को किसी काम में सफल नहीं होने देती।

पेड़ पर फल लगते हैं। उनके पकने में निर्धारित समय लगता है। यदि तब तक की प्रतीक्षा न की जाय और जल्दी ही उस लाभ को उठाने के लिए आतुर बना जाय तो कच्चा फल टूट गिरेगा। उसके स्वाद-गुण और मूल्य से वंचित होना पड़ेगा। बरगद, खजूर जैसे पेड़ पूरी लम्बाई तक पहुँचने और प्रौढ़ विकसित होने में लम्बा समय चाहते हैं। जिन्हें अधीरता है, उन्हें निराशा हाथ लगेगी और एक स्थापना में फलित होने में देर लगते देखकर दूसरी को आरम्भ कर देंगे। इस प्रकार की अधूरी कृतियाँ अपने दुर्भाग्य का रोना रोती रहेंगी और बताती रहेंगी कि उन्हें सँजोने वाला उतनी लगन से उतने समय तक प्रतीक्षा न कर सका जितनी कि अभीष्ट थी। इस प्रकार चंचलता कार्य सिद्धि में बाधक ही होती ह। वह देखने में सक्रियता-स्फूर्ति जैसी प्रतीत होती है पर दिशाबद्ध न होने से कौतुक-कौतूहल मात्र बन कर रह जाती है।

आलसी और मूढ़ कबूतर टेढ़ी-मेढ़ी मोटी-पतली लकड़ियों को बिना उपयुक्त स्थान का चुनाव किए कहीं भी औंधा तिरछा घोंसला बना लेता है फलतः उसके अण्डे, बच्चे जरा सा धक्का या तेज हवा का झोंका लगते ही जमीन पर आ गिरते हैं। इसके विपरीत बया पक्षी समग्र मनोयोग के साथ उपयुक्त तिनके ढूँढ़कर घोंसला बनाता है। वह देखते में भी सुन्दर लगता है और मजबूत तथा सुरक्षित भी होता है। यही तथ्य हर कहीं लागू होता है।

सक्रियता, स्फूर्ति और काम को जल्दी पूरा करने की इच्छा बलवती होना उत्तम लक्षण है। पर यह नहीं भूल जाना चाहिए कि हर कार्य अपनी पूर्ति होने के लिए आवश्यक तत्परता, तन्मयता, सावधानी तथा आवश्यक साधन सामग्री चाहता है। यह सब जुटाने में समय लगता है। वैसे अवसर पाने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जो इस तथ्य को अनुभव नहीं करते वे उथली, हल्की सफलता पर ही सन्तोष कर बैठते हैं। प्रवीण या पारंगत नहीं बन सकते हैं।

विद्वान, पहलवान, कलाकार किसी भी विषय का विशेषण बनने के लिए अपने निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने में लम्बी अवधि तक एक निष्ठ साधना करनी पड़ती है। निर्वाह के लिए साधारण क्रिया कलाप तक उपेक्षापूर्वक किए जाने पर अस्त व्यस्त और फूहड़ ढंग के ही बन पड़ते हैं। उनसे अनाड़ीपन झलकता है। बुद्धिमानों पर भी अयोग्यता का लाँछन लगता है। इसका कारण एक ही होता है कि क्रिया को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर मनोयोगपूर्वक नहीं किया गया होता। प्रवीणता के स्तर तक पहुँचने के लिए जितना अभ्यास, अध्यवसाय नियोजित किया जाना चाहिए था, उसमें कमी रही होती है। प्रगति की ऊँचाई तक पहुँचने की निष्ठा जिनमें नहीं होती उनकी मनःस्थिति स्वल्प संतोषी जैसी रहती है। सफलता का तनिक सा आभास मिलने भर से मन भर जाता हैं और फिर दूसरी ओर मुँह मोड़कर नया का ढूँढ़ने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति कई विषयों में चंचु प्रवेश करते देखे गए हैं। पर प्रवीण पारंगत किसी भी क्षेत्र में नहीं हो पाते। अपने कृत्यों की बहुलता जताने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि एक ही दिशाधारा को मजबूती से पकड़ा जाय और उसके विशेषज्ञ बनकर रहा जाय। ऐसा संकल्प उन्हीं से बन पड़ता है जो वस्तुस्थिति और परिस्थितियों को देखते हुए अपने निर्धारण का चयन करते और फिर उसी में निमग्न हो जाते हैं।


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