समाधि को अष्टाँग राजयोग का अन्तिम चरण माना जाता है। बुद्धि की चंचलता एवं विडम्बना को श्रेष्ठ सम्यक् बनाने से प्राप्त हुई सफलता है। “धी” बुद्धि को कहते हैं जिसको सम्यक् अर्थात् स्थिर एवं सन्मार्गगामी बना लेने पर देवलोक में प्रवेश पाने की भूमिका बन जाती है। राजहंस का अनुकरण करने वाली नीर−क्षीर विवेकबुद्धि मेधा या प्रज्ञा कहलाती है। जो मात्र ब्रह्मभाव में रमण करती है उसे “भूमा” कहते हैं। इन्हें दृष्टिकोण की भिन्नता भी कहा जा सकता है और दूरदर्शी विवेकशीलता की सूझबूझ भी। यही ब्रह्मपरायणता भी है और धर्म चेतना भी। योग विज्ञान की दृष्टि से इसे समाधि की संज्ञा दी जाती है।
बुद्धि की उत्कृष्टता का यही चिन्ह है कि वह उत्कृष्टता को ही चिन्तन क्षेत्र में स्थान दे। आदर्शयुक्त कार्यों को ही आचरण में उतरने दे। किसी के साथ भी ऐसा व्यवहार न होने दे, जो मानवी गरिमा की दृष्टि से हेय पड़ता हो। यह व्यावहारिक समाधि है। सर्वसुलभ भी और सर्वोपयोगी भी। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए बुद्धि की गतिविधियों पर निरन्तर निरीक्षण-परीक्षण करते रहने वाला तंत्र बिठाना पड़ता है। खरा खोटा परखने वाली कसौटी सोने को घिसते ही उसका स्तर प्रकट कर देती है। बुद्धि तो संकीर्ण स्वार्थ परता में आदतों से प्रभावित रहती है। उसका काम अपने यजमान “मन” की हाँ में हाँ मिलाना, उसकी इच्छाओं को पूरी करते रहना है। आम आदमी की बुद्धि ऐसी ही होती है किन्तु विवेक का परीक्षण यह जाँच सकता है कि किस निर्णय का औचित्य है, किसका नहीं? इतना ही नहीं वह लिप्सा लालसाओं को अस्वीकृत कर देने में भी समर्थ होता है।
उससे ऊँची कक्षा “प्रज्ञा” की है। जिसे समाधि भी कहते हैं। जिस मानस पर प्रज्ञा का आधिपत्य होता है वह मात्र आदर्शों को ही अपनाती है। उत्कृष्टता की कसौटी पर हर विचारणा, निर्धारणा एवं योजना को कसती है। महामानवों जैसे पुण्य परमार्थ से भरे पूरे निश्चय करती और मार्ग चुनती है। उच्चस्तरीय चिन्तन और चरित्र उन्हें नर-नारायण का स्तर प्रदान करता है। ऐसे लोग देवात्मा पुण्यात्मा एवं पुरुष-पुरुषोत्तम जैसी विभूतियों से अलंकृत किए जाते हैं। उनकी परादृष्टि की स्थिति को “समाधि” नाम से भी संबोधित करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में भी उनकी मनः स्थिति उच्चकोटि की बनी रहती है। मनुष्य कलेवर में वे देवों की तरह रहते और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहते हैं।
समाधि का एक क्रिया पक्ष भी है, जिसमें संकल्प बल को इस सीमा तक विकसित करना पड़ता है कि मनः क्षेत्र पर पूरा नियंत्रण प्राप्त किया जा सके। यहाँ तक कि उसकी हलचलों को भी बन्द किया जा सके। ऐसे लोग उस शून्यावास्था में चले जाते हैं, जिसमें रक्त संचार तो जारी रहता है पर मस्तिष्क चेतना विहीन हो जाता है। यह प्रयोग उचित समय के लिए संकल्प लेकर किया जाता है। अवधि पूरी होने पर जाग्रति स्वयमेव वापस लौट आती है। यह एक चमत्कारी कृत्य है, जिसे हठयोग के साथ जुड़ा हुआ समझा जाता है। विचार प्रणाली को अवरुद्ध करना, हृदय की धड़कन घटादेना, श्वास-प्रश्वास को शिथिल कर देना और जाग्रत अवस्था में ही निद्रा की स्थिति में पहुँच जाना, यह संकल्प बल के चमत्कार हैं। अच्छा शक्ति में न केवल विचारों को अपने साथ ले चलने की उन्हें ऊँचा उठाने-नीचा गिराने की सामर्थ्य है वरन् उसमें प्रचण्डता आने पर यह स्थिति भी आ जाती है कि शरीर के किसी अंग की क्षमता को घटाया या बढ़ाया जा सके। हठयोग की समाधि इसी अभ्यास के बढ़े-चढ़े रूप का प्रमाण है। इतने पर भी यह नहीं सोचना चाहिए कि समाधि लगाने वाला व्यक्ति मनो जप कर चुका-मेधा, प्रज्ञा को जगा सकने में समर्थ हो चुका। ऐसी स्थिति जब तक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक आत्मिक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा नहीं होता। आत्मबल बढ़े बिना मनुष्य का देवत्व जगता नहीं। इस अभाव के रहते शाप, वरदान दे सकने जैसी ऋद्धि-सिद्धियों का दर्शन भी नहीं होता। वह भाव-संवेदना का विषय है, जब कि शरीर को शिथिल, तान्द्रित (ट्राँस की स्थिति) या विनष्ट कर देना मात्र संकल्प शक्ति बढ़ा लेने का चमत्कार है। यह सरकस में दिखाए जाने वाले अजूबों के समतुल्य है। जिनमें अभ्यास करने वाले जानवर भी कितने ही ऐसे कौतुक दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
हाट बाजारों में समाधि लगाने का प्रदर्शन करने वाले गड्ढे में बैठने उठने और पुजापा बटोरने जैसी प्रदर्शन-कर विडम्बनाएँ रचते रहते हैं जिसे कोई सच्चे अर्थों में सिद्धि क्षेत्र तक पहुँचा हुआ व्यक्ति नहीं दिखा सकता। आत्म साधनाएँ और उनकी सिद्धियाँ तो प्रायः गोपनीय रखी जाती हैं। उन्हें प्रदर्शन से बचाया जाता है। कौतुक-कौतूहल का रूप देकर भीड़ इकट्ठी नहीं की जाती। इस आधार पर भावुक लोगों की जेबें भी खाली नहीं कराई जातीं। इन कौतूहलों को देखकर सामान्य जन भ्रम में पड़ते हैं और उद्देश्यों को भूल कर इन तथाकथित सिद्ध पुरुषों के आगे पीछे मनोकामनाएँ पूर्ण कराने के निमित्त चक्कर लगाते हैं। यह साधनारत योगी जनों के लिए तथा सर्वसाधारण के लिए अहितकर ही है।
वस्तुतः समाधि उत्तरोत्तर विकसित होने वाली एक उच्चस्तरीय सुदृढ़ मनोभूमि है जिसमें अनगढ़ अनाड़ी तथा अनियंत्रित मन को शनैः शनैः साधा एवं दीक्षित किया जाता है। ललक-लिप्साओं-वासना-तृष्णाओं से पीछा छुड़ाया जाता है। अन्तर्निहित दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को चुन कर उखाड़ फेंकना होता है। कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों को इसलिए नियंत्रित किया और निर्मल बनाया जाता है ताकि वे अनभ्यस्त स्थिति में शक्ति सम्पन्नता की बाढ़ में बहने न पायें। हाईवोल्टेज की बिजली के लिए अधिक सक्षम कन्डक्टर तथा शक्तिशाली तार लगाये जाते हैं। वर्षा आने से पूर्व नवीन बाँध को हर प्रकार से सुदृढ़ कर लिया जाता है। कहीं भी राई रत्ती भर लीकेज या कमजोरी नहीं रहने दी जाती। फसल में उर्वरक डालने से पूर्व कृषक अनावश्यक घास पात उखाड़ देता है अन्यथा लपककर वे ही सारा खाद पानी उदरस्थ कर लेते हैं। ध्यान धारणा जैसी योगपरक विधा अपनाने से साधक की अंतःसामर्थ्य बढ़ जाती है। दुर्भाग्य से यदि कोई दोष-दुर्गुण अनियंत्रित रह गये तो प्रगति की दिशा अवरुद्ध हो जाती है और वही जीवन पर हावी होते जाते हैं।
दोष-दुर्गुणों को क्रमशः समाप्त करने तथा जाग्रत शक्तियों को धारण कर चिरस्थायी बनाये रखने के लिए योग साधक को विभिन्न प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य जैसे यम-नियमों की तुलना समाधि क्षेत्र में गहरे नींव के पत्थरों से की गई है। प्रत्याहार, धारणा का अनुशासन इसलिए बनाया गया है कि क्रमशः विकास करने से अतीन्द्रिय क्षमताओं का जागरण होने लगता हैं जागृत शक्तियों का कहीं दुरुपयोग न होने पावे इसके लिए प्रज्ञास्तर की विवेक बुद्धि का आश्रय लिया और संयम साधा जाता है। ध्यान धारणा की इसमें विशिष्ट भूमिका होती है।
योग के तत्त्वदर्शन की खोज करने वाले साधक जिज्ञासुओं का इतना ही जानना और साधना पर्याप्त है कि सिद्धावस्था तक पहुँचते- पहुँचते विचारणाओं और भावनाओं पर पूरी तरह नियंत्रण हो जाता है। न मन निरर्थक कल्पनाएँ करता है और न भावनाओं में हीनता आती है। सुदृढ़ सुनिश्चित मान्यताओं का परिपक्व होना और आत्मजय प्राप्त कर लेना ही समाधि का व्यावहारिक रूप है जिसकी ओर क्रमशः बढ़ा जा सकता है।