मृत्यु को सदैव याद रखें!

June 1989

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मृत्यु भी जन्म की ही तरह निश्चित है। जो जन्मा है सो मरेगा। मरने के बाद स्वर्ग नरक के दरवाजों में प्रवेश करना पड़ता है। पुनर्जन्म का, नयी काया धारण करते रहने का सिलसिला चलता रहता है। इन तथ्यों को सभी स्वीकारते हैं कि भले बुरे कर्मों का फल यदि इसी जन्म में न भुगता गया हो तो वह अगले जन्म में प्रकट एवं फलित होता है।

आश्चर्य इस बात का है कि जीवन के साथ गुथी हुई इस गहरी सच्चाई को लोग गम्भीरता से नहीं देखते और उस महायज्ञ की पूर्व तैयारी इस प्रकार नहीं करते जैसी कि उन्हें करनी चाहिए।

समझा जाता है कि अन्य लोग ही मरेंगे। हमारे सामने यह भयंकर समस्या कभी भी न आयेगी, जिसमें शरीर छोड़ना पड़े, संसार से बिछुड़ना पड़े और अनिश्चितता के धरातल पर हवा में तैरते रहना पड़े। उपेक्षायें सभी बुरी होती हैं विस्मरण को भारी कमी माना जाता है, पर मृत्यु को भूल जाने का तो ऐसा दुष्परिणाम सामने आता है जिसकी क्षतिपूर्ति आगे चलकर भी कभी पूरी नहीं हो सकती।

जीवन एक अनुपम सुयोग है। अन्य प्राणियों में से किसी की भी शारीरिक संरचना और मानसिक संगठन ऐसी उच्चकोटि की नहीं है, जिसे देखकर देवताओं का भी मन ललचाए और वे इसी के साथ जुड़े रहने में प्रसन्नता अनुभव करें। इस काया को सुरदुर्लभ होने की मान प्रतिष्ठा मिले।

ऐसा शरीर खाने-पीने के ही कोल्हू में पिलते हुए समाप्त हो जाय। कुछ महत्वपूर्ण न बन पड़े तो समझना चाहिए कि जन्म व्यर्थ ही चला गया। पेट और प्रजनन के लिए जीवित रहने वाले प्राणियों में तो मनुष्य की स्थिति सर्वोत्तम है और इस योग्य है कि महान उपलब्धि के अनुरूप अपनी कृतियों को भी ऐसी बना सके जिसे अभिनन्दनीय कहा जा सके, जिसे देखकर लोग अनुकरणीय और अभिवन्दनीय कहें, उससे प्रेरणा प्राप्त करने का प्रयत्न करें। किन्तु ऐसा होता नहीं। मौत की चर्चा करने पर बुरा मनाया जाता है। इस प्रकार के कथन को अशुभ कहा जाता है। किसी के सम्मुख उसके मरण की कामना भर कर देना गाली देने से भी बुरा माना जाता है। रात के सपने में अपनी या अपने किसी प्रियजन की मृत्यु का दृश्य दीख पड़े तो उदासी छा जाती है, किसी अनिष्ट की आशंका से दिल धड़कने लगता है।

मृत्यु हर घड़ी सिर पर सवार रहे, यह बुरा है। पर यह उससे भी अधिक बुरा है कि उसे एक प्रकार से विस्मृत ही कर दिया जाय। भुला देने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। उद्दण्डता और दुष्टता करने लगता है। कर्मफल की-ईश्वर के दरबार में पेश किए जाने की और कर्मों के अनुसार दण्ड मिलने की यथार्थता इतनी धुँधली हो जाती है कि उसका अस्तित्व ही एक प्रकार से आँखों से ओझल हो जाता है।

सुन्द-उपसुन्द, वृत्रासुर, रावण, हिरण्यकश्यप आदि ने स्वेच्छामरण का वरदान प्राप्त कर लिया था। इस मान्यता के मन में बसते ही वे दुष्कर्मों पर उतारू हो गए। जब मरना ही नहीं है तो फिर डर किस बात का? संसार वालों को डरा या फुसला कर अपने वशवर्ती बना लेने की योग्यता तो अपने में है ही। फिर अनीति अपना कर मन चाहे लाभ तत्काल प्राप्त कर लेने के अवसरों को हाथ से क्यों जाने दिया जाय? निरंकुश, निर्भय और निश्चिन्त व्यक्ति यदि उद्धत स्तर के हैं तो अपनी उद्दण्डता को चरम सीमा तक पहुँचाए बिना रहते नहीं। संसार के आतताइयों का इतिहास पढ़ने से विदित होता है कि उनकी कोई आवश्यकता नहीं अड़ी हुई थी, जिसके कारण वे अत्याचार एवं अपराधों के पहाड़ जमा कर लेने की बात सोचने पर प्रवृत्त होते। मौत को भुला देने से मनुष्य इस बात को भूल जाता है कि यह जीवन ही सब कुछ नहीं है। इसकी तुलना में कहीं अधिक लम्बे समय तक आत्मा को ऐसी स्थिति में रहना पड़ता है जहाँ सत्कर्मों के अतिरिक्त और कोई भी सहायक नहीं होता, ईश्वर भी नहीं। क्योंकि वह कर्मों के आधार पर ही किसी का मान या तिरस्कार करता है।

मृत्यु को न भूलना इससे कम भयंकर नहीं है। उससे सिर पर एक ऐसा भय समा जाता है, जो काल्पनिक नहीं वास्तविक होता है। फिर मौत का कोई ठिकाना नहीं, वह बालक, युवक प्रौढ़ या वृद्ध का अन्तर नहीं करती और न उसके आगमन का कोई निश्चित समय ही मानती है। ऐसी दशा में भावुक या यथार्थवादी किसी भी समय मौत के आगमन की संभावना देखते रहते हैं। ऐसी दशा में उनका जीवन ही नीरस और भारभूत हो जाता है। हर घड़ी व्याकुलता बनी रहती है। स्वजन सम्बन्धी भी विराने और बिछुड़ने वाले लगते हैं। उत्साहपूर्वक काम करने का भी मन नहीं करता। क्योंकि जब मेले के यात्री जैसी अपनी स्थिति है तो फिर किसी प्रयोजन में व्यर्थ सिर खपाना किस काम आएगा? ऐसी ही उदासीनता के वातावरण में राजा परीक्षित ने अपने राज-पाट का काम छोड़ दिया था और कथा श्रवण करके सद्गति के एकाकी प्रयास में जुट गए थे। किन्तु यह तो सही तरीका नहीं?

घर पर डाकुओं का आक्रमण होने के समाचार से दिल दहल जाता है। उनकी सूचना गलत भी हो सकती है और उनका आक्रमण निष्फल भी बन सकता है। किन्तु मृत्यु के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता कि उसका आक्रमण कब चढ़ दौड़े और देखते-देखते गरदन मरोड़ कर स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन कर दे। गम्भीरता पूर्वक यदि कोई मृत्यु की उपस्थिति निकटवर्ती अनुभव करने लगे तो उसकी स्थिति विक्षिप्त जैसी हो जाएगी। उससे कुछ भी करते धरते न बन पड़ेगा।

जब मृत्यु का स्मरण और विस्मरण दोनों ही विपन्नता उत्पन्न करते हैं, तो उसके सम्बन्ध में क्या दृष्टिकोण अपनाया जाय जिससे सामान्य, स्वाभाविक और सही स्थिति बनी रहे।

इस संदर्भ में गीतकार ने एक सही दृष्टिकोण दिया है कि आत्मा को अमर माना जाय और मरण को नए कपड़ा बदलने जैसा अनुभव किया जाय। मृत्यु को अपनी सत्ता का अन्त न माना जाय। वरन् लम्बी यात्रा के बीच-बीच पड़ने वाली धर्मशाला की तरह अपनी स्थिति का अनुभव किया जाय। इसके फलस्वरूप दूरदर्शिता का उदय होता है। पिछले जन्मों में भुगती गई भ्रान्तियों की कठिनाइयाँ तथा परिस्थितियाँ याद आती हैं और जी सोचता है कि उन बुरे दिनों की पुनरावृत्ति न होना चाहिए। इसलिए ऐसा एक भी कर्म न बन पड़ना चाहिए, जिसके कारण हेय परिस्थितियों में फिर से पिसना-पिलना पड़े। यह भय कर्तव्य पालन की प्रेरणा देता है ताकि उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं की विनिर्मित होते चलने की सम्भावना स्पष्ट होती रहे।

मृत्यु के समय इस पंच भौतिक शरीर का ही अन्त होता है, किन्तु इसके बाद भी सूक्ष्म शरीर की सत्ता बनी रहती है। सूक्ष्म शरीर के साथ योग्यता, क्षमताएँ, आदतें एवं धारणाएँ साथ जाती हैं और उन्हीं के साथ उलझ-सुलझ क जीवधारी स्वर्ग नरक का सुखद दुखद अनुभव करता रहता है। इसलिए सत्प्रयत्नों को निरंतर अन्तिम समय तक जारी रखा जाय ताकि अगले जन्म में भी वह संचित सुसंस्कारिता साथ रहे और जन्म के साथ ही वे संस्कार एवं सुविधा साधना उपलब्ध हो सकें, जो सामान्यतया बहुत प्रयत्न करने पर बहुत दिन में हस्तगत होते हैं।

मरण के सम्बन्ध यही सन्तुलित दृष्टिकोण सही है कि शरीर बदलते हैं, आत्मा नहीं मरती। साथ ही वह पिछला आत्मिक उपार्जन भी साथ लेकर प्रयाण करती है। इस आधार पर हर कोई अपने इस लोक के साथ परलोक को भी समुज्ज्वल बना सकता है। इसकी प्रेरणा आत्मा की अमरता वाले सिद्धान्त से ही मिलती है और वही सदा संतुलन भी बनाए रहती है।


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