आत्मिकी का प्रथम सोपान-आत्मशोधन

June 1989

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भौतिक विज्ञान प्रकृति क्षेत्र में बिखरे पड़े अनगढ़ पदार्थ को उपयोगी उपकरण बनाने के लिए अपनी प्रक्रिया तीन चरणों में पूरी करता है। एक उसकी कुरूप मलिनता का परिशोधन करके काम में आ सकने योग्य स्थिति तक पहुँचाना। दूसरा उसे ऐसी स्थिति में लाना जिससे उसे कोई अच्छी शकल देना संभव हो सके। तीसरा उसे उन उपकरणों की शकल में ढालना जो महत्वपूर्ण यन्त्र उपकरणों के रूप में प्रयुक्त हो सके। तीनों चरणों में से गुजरने पर ही विज्ञान की हर चेष्टा को सफलता के स्तर तक पहुँचाया जाता है।

लेहा खदान में से निकलता है तब उसमें मिट्टी मिली होती है। लोहकण भी अस्त-व्यस्त जंग खाये जैसे होते हैं। उस कच्चे माल को भट्ठी में तपाया जाता है ताकि अनावश्यक मिलावट जल जाय और शुद्ध लोहा हाथ लगे। यह एक चरण हुआ। शुद्ध लोहे को किसी मशीन के रूप में ढालना होता है तो उसे फिर भट्ठी में डालकर नरम बनाया जाता है यह दूसरा चरण हुआ। तीसरे कदम में उसे साँचे में ढाला और खराद पर घिस कर उसे पूर्णता प्रदान की जाती है। इस तीसरे चरण के पूरे होने पर एक प्रक्रिया पूरी हो जाती है।

कुम्हार भी यही करता है। मिट्टी के ढेलों को तोड़ता, गलाता, गूँथता है। जब मिट्टी लोच पर आ जाती है तब उसे चाक पर घुमाकर इच्छित बर्तन बनाता है। चिकित्सक भी यह करते हैं। मूल द्रव्य को शोधते हैं, कूटते-पीसते हैं फिर उसे गोली, कैप्सूल, अवलेह, शरबत आदि की शकल देते हैं। रस भस्में भी इसी प्रकार बनती हैं। भौतिक विज्ञान की यही कार्यपद्धति है। इसी को कार्यान्वित करते हुए वह उपेक्षित सामग्री को इस स्थिति तक पहुँचाता है कि उसे अति उपयोगी एवं बहुमूल्य आँका जा सके।

यह सब करने से पूर्व प्रयोग में आ सकने योग्य सिद्धान्तों का आविष्कार, निर्धारण करना पड़ता है। यदि उसकी बौद्धिक व्याख्या सही न हो तो कार्यान्वयन की मेहनत और लागत बेकार जायेगी, असफलता हाथ लगेगी।

इतना समझ लेने के उपरान्त की तुलनात्मक दृष्टि से असंख्य गुनी क्षमताओं संभावनाओं से भरे पूरे चेतना विज्ञान की दार्शनिक एवं क्रियापरक शैली का निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए। यह तथ्य सर्वमान्य होना चाहिए कि पदार्थ को जिस प्रकार कुछ से कुछ बनाया जा सकता है-शरीर में अनेकों प्रसुप्त क्षमतायें विकसित की जा सकती हैं, उसी प्रकार चेतना का भी परिष्कार एवं उन्नयन हो सकता है। परिष्कृत वस्तु का स्तर एवं मूल्य स्वाभाविक अधिक होना चाहिए। कोयला अमुक तापमान तक पहुँचने पर हीरा बन जाता है। सस्ते गरापाची से अभ्रक भस्म बनती है। बनाने वाले जानते हैं कि इस परिवर्तन की मध्यवर्ती प्रक्रिया कितनी पेचीदा होती है और उसे पूरा करने के लिए कितनी सतर्कता बरतनी पड़ती हैं, कितने सहायक उपकरण जुटाने पड़ते हैं। कितने दिनों कितनी मुस्तैदी के साथ उसके साथ खपता पड़ता है। कुम्हार, सुनार, लुहार, मोची, दर्जी, रंगरेज, संगीतकार शिल्पी आदि सभी कलाकार अपने अपने क्षेत्र में नये निर्माण करते और दर्शकों को चमत्कृत करते हुए खरीदने वालों को प्रसन्नता प्रदान करने वाली उपलब्धियाँ हस्तगत कराते हैं। यह प्रक्रिया अध्यात्म विज्ञान के कार्यान्वयन में भी अपनानी पड़ती है।

पूर्व इसके कि चेतना क्षेत्र को समुन्नत करने वाले विज्ञान के कार्यान्वयन की, विधिविधानों की चर्चा की जाय, अच्छा हो उसके मूलभूत सिद्धान्तों को समझ लिया जाय। सिद्धान्तों के आधार पर सही दिशा में प्रयास करते बन पड़ता है और वही सफल भी होता है।

चेतना विज्ञान का दूसरा नाम अध्यात्म या आत्मिकी भी है। उसके दो पक्ष हैं-एक तथ्यात्मक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक। दूसरा है क्रियापरक-विधिविधानों और कर्मकाण्डों का समुच्चय। लोग दूसरे पक्ष से आरंभ करना चाहते हैं। सिद्धान्तों और आधारों को समझने में रुचि नहीं लेते। फलतः क्रियाकृत्यों का स्वरूप अस्तव्यस्त हो जाता है। उनका प्रतिफल कहीं पतंग जैसा अनिश्चित ही रहता है। सिद्धान्तों की डोरी जब तक कर्मकाण्डों के साथ जुड़ी रहती है तभी तक वह आकाश में छटा दिखाने वाली पतंग जैसी आकर्षक स्थिति में रहती है। चेतना का अथाह और असीम समुद्र इस समूचे ब्रह्माण्ड में लहलहा रहा है। उसी में जल जन्तुओं की तरह हम सब रहते हैं। मछली अपना आहार जलाशय से ही प्राप्त करती है। जीवसत्ता के लिए संभव है कि ब्रह्म सत्ता के साथ जुड़े और उसमें से पोषक तत्व प्राप्त करती रहे। उस उपलब्धि के आधार पर अपने को अधिकाधिक समर्थ बनाती चली जाय और महात्मा, देवात्मा के रूप में अपनी स्थिति सिद्धपुरुषों, महामानवों जैसी विनिर्मित करे। ब्रह्म परायण होने के लिए प्रथम आधार के रूप में अपनी पात्रता विकसित करनी पड़ती है। कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने के लिए तदनुरूप आधार खड़े करने पड़ते हैं।

वर्षा में असीम जलराशि बरसती है पर वह कहीं टिकती उतनी मात्रा में है जहाँ जितना गहरा गड्ढा होता है। सूर्य की किरणें उन्हीं घरों में प्रवेश करती हैं जिनके खिड़की दरवाजे खुले हों। सुन्दर दृश्यों को देखने का लाभ उन्हीं को मिलता है जिनकी आँखें सही हों। बहरे लोग इर्द−गिर्द के वार्तालाप को, गायन, वादन को कहाँ सुन पाते हैं? अपना मस्तिष्क ही गड़बड़ा रहा हो तो संसार की समस्त गतिविधियाँ उल्टी हो रही जान पड़ती हैं। आँखों पर रंगीन चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुएँ उसी रंग में रँगी हुई प्रतीत होती हैं। आत्मसत्ता का अन्तराल यदि गई गुजरी स्थिति में पड़ा हो तो लोक व्यवहार भी सही तरह निभ नहीं पाता। साथियों से भी मधुर सम्बन्ध रह नहीं पाते, ऐसी दशा में परब्रह्म की ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ घनिष्टता स्थापित करना और उसके अनुग्रह अनुदान से लाभान्वित हो सकना किस प्रकार बन पड़े? अनुदान प्रदान करने वाला पख न तो दुर्बल है, न सीमित, न कृपण। पर उसे भी देते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि जिसे दिया जा रहा है वह उसका सदुपयोग करेगा या नहीं। जहाँ ‘नदी’ की आशंका होती है वहाँ दाता के उदार हाथ भी सिकुड़ जाते हैं। उसकी खुली हुई मुट्ठियाँ बन्द हो जाती हैं। वरिष्ठ संस्थानों की तरह ईश्वर भी पात्रता परखता और उसके बाद ही अपने अनुदानों की झड़ी लगता है।

रेगिस्तानों में बादल बरसते नहीं। वे उसके ऊपर होकर छवि मात्र दिखाते हुए अन्यत्र चले जाते हैं। बैंक कर्ज बाँटती हैं। लाखों करोड़ों का उधार देती है, पर देने से पूर्व यह जाँच लेती हैं कि वह किस कार्य के लिए माँगा जा रहा है। उसमें लाभ होने और उसके वापस लौटने की संभावना है या नहीं। संदेह होने पर ऋण पाने के लिए दिया गया प्रार्थना पत्र रद्द हो जाता है। कन्या का पिता अपनी सर्वगुण सम्पन्न पुत्री के विवाह योग्य होने पर सुयोग्य लड़के की तलाश में भारी दौड़धूप करता है। जहाँ आशा की झलक दिखाई देती है वहाँ बराबर चक्कर लगाता है, मनुहार करता है। उपहार देने का भी प्रलोभन दिखाता है, सिफारिशें करवाता है और जब अभीष्ट सम्बन्ध हो जाता है तो प्रसन्नता अनुभव करता है। इतने पर भी यदि कोई कृपात्र, अयोग्य व्यक्ति उस लड़की को पाने के लिए अपनी ओर से प्रार्थना करे, मनुहार करने, उपहार देने की पेशकश करे तो भी कन्यापक्ष उसके कथन को अस्वीकार ही नहीं करता, उसे धृष्टता बताता और फटकार लगाता है। एक ओर अनुग्रह का आग्रह और दूसरी और तिरस्कार भरी फटकार, इन दोनों प्रकार के व्यवहारों में सुयोग्य-अयोग्य का, पात्र-कुपात्र का अन्तर ही प्रधान कारण है।

गाय अपने बच्चे को दूध पिलाती है। दूसरी जाति के पशु शावकों को थन तक नहीं फटकने देती। छात्रवृत्ति ऊँचे नम्बर लाने वाले परिश्रमी, प्रतिभाशाली छात्रों को ही मितली है जबकि फेल होने वालों को अगली कक्षा में प्रवेश पाना तक कठिन हो जाता है। अफसरों की भर्ती में चुनाव आयोग के सम्मुख प्रस्तुत होना पड़ता है। योग्यता के आधार पर ही चयन होता है। उसका प्रमाण न दे सकने वाले निराश वापस लौटते हैं।

इन सब तथ्यों को भली प्रकार समझा जाना चाहिए और ब्राह्मी चेतना से व्यष्टि चेतना को कोई महत्वपूर्ण अनुदान मिले ऐसी आशा लगाने से पहले अपनी स्थिति का पर्यवेक्षण करना चाहिए और जीवन के जिस क्षेत्र में जितनी गन्दगी हो उसे बुहार कर साफ करना चाहिए। किसी सम्भ्रान्त अतिथि के घर आने पर घर के फर्श फर्नीचर की सफाई कर ली जाती है। ब्रह्मसत्ता के जीवन क्षेत्र पर अवतरित होने की स्थिति आने से पूर्व अपने आपे की सफाई कर लेनी चाहिए। धुले कपड़े पर ही रंग चढ़ता है। जुते खेत में ही बीज उगता है। बढ़िया बन्दूक में भरा गया कारतूस ही सही निशाना बेधता है। लकड़ी की बन्दूक वह काम नहीं कर सकती भले ही कारतूस कितनी ही अच्छी क्यों न हो? उपासना का विधि-विधान कारतूस समझा जा सकता है। उसके उपयुक्त प्रतिफल प्रस्तुत कर सकने की संभावना तभी बनती है जब साधक का व्यक्तित्व परिष्कृत स्तर का हो।

अध्यात्म विज्ञान का प्रथम चरण यही है कि अपनी पात्रता विकसित की जाय। व्यक्तित्व को परिष्कृत, प्रखर एवं समुन्नत स्तर का बनाया जाय। यह आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में सफलता की पहली शर्त है। इसे पूरा किए बिना अधिक कुछ पाने, कमाने की व्यवस्था बनती नहीं। भटकावों में भटकना और निराश रहना पड़ता है।

समझा जाता है कि पेड़ पर जो पके फल दृष्टिगोचर होते हैं वे आसमान से रातों रात टपकते हैं और आ चिपकते हैं। पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। जड़ें जमीन से रस खींचती हैं, वह तने में, टहनियों में होकर ऊपर पहुँचता है और पहले फूल बाद में फल बनता है। जड़ें खोखली हो चलें और जमीन से रस खींचने में सफलता न मिले तो पेड़ मुरझाता, सूखता चला जायेगा। पत्ते झड़ेंगे, फूलों के, फलों के दर्शन दुर्लभ होंगे। व्यक्ति को आध्यात्मिक ही नहीं, भौतिक क्षेत्र की सफलतायें भी उसे समुन्नत व्यक्तित्व के आधार पर ही मिलती हैं। यह दूसरी बात है कि साँसारिक क्षेत्र में परिश्रम और कौशल काम करता है तो आध्यात्मिक क्षेत्र में उसी के समतुल्य सेवा और संयम के समन्वय की, व्यक्तित्व के विकास, परिष्कार की आवश्यकता पड़ती है।

अध्यात्म क्षेत्र, की ऋद्धियों, सिद्धियों, विभूतियों की चर्चा प्रायः होती रहती है। उन्हें प्राप्त करने की ललक-लालसा भी हर साधक में पायी जाती है। किन्तु यह भुला दिया जाता है कि उसके लिए साधना-विधानों से भी अधिक आत्म परिष्कार आवश्यक है। देव पूजन के लिए स्थान, उपकरण सभी स्वच्छ, सुसज्जित किए जाते हैं। मैला-कुचैला, दुर्गन्धित, कुरूप वातावरण देखकर वे आने की तैयार नहीं होते, आते हैं तो वापस लौट जाते हैं। यह बात दैवी शक्तियों के अवतरण, अनुग्रह के सम्बन्ध में भी है, उन्हें स्वच्छता और सदुपयोग कर सकने योग्य पात्रता का निरीक्षण परीक्षण करना होता है। इसके उपरान्त ही वह बात बनती है कि दैवी अनुग्रह से लाभान्वित हुआ जाय। घर-आँगन में आये दिन जमा होने वाला कचरा झाडू से बुहारा जाता है, बालों और वस्त्रों की सफाई पानी और साबुन से होती है। मन में आन्तरिक दुर्बलता और बाहरी कुप्रभावों से मनुष्य स्वभावतः वैसे आचरण करता है जैसे कि वह कीट-पतंगों और पशु-पक्षियों की पिछड़ी योनियों में करता रहा है। उस पतनोन्मुख प्रवाह को विवेक और संयम के द्वारा मर्यादाओं और वर्जनाओं के अनुबन्धों द्वारा रोका जाता है। इस नियन्त्रण और परिष्कृत परिवर्तन के लिए काम करने वाली प्रक्रिया का नाम ही अध्यात्म है।


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