मंत्र शक्ति की सिद्ध के मूलभूत आधार

June 1989

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आत्मोत्कर्ष के लिये जितनी भी साधनाएँ हैं, प्रायः उन सब में मंत्र जप का समावेश किसी न किसी रूप में अवश्य होता है। क्योंकि मंत्र विद्या मनुष्य के अंतरंग में सोई उन शक्तियों और क्षमताओं को जाग्रत करती है जो उसे उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुँचाती हैं। अन्य मंत्र साधनाओं में फिर भी अन्यान्य कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं, पर गायत्री मंत्र की साधना एक ऐसी साधना है जो अपने आप में सर्वांगपूर्ण है।

अकेला गायत्री मंत्र ही वे सभी उपलब्धियाँ प्रदान करने में समर्थ है जो अन्य बहुत सी साधनाओं के करने से प्राप्त होती हैं। इस मंत्र की साधना को सफल बनाने में चार तथ्यों का समावेश है- 1-शब्द शक्ति 2- मानसिक एकाग्रता 3-चारित्रिक श्रेष्ठता और 4-अटूट श्रद्धा।

गायत्री मंत्र का प्रथम आधार है-शब्द शक्ति शब्द शक्ति चेतना का ईंधन है। इसी कारण इस मंत्र में अक्षरों का गुँथन एक ऐसे विशिष्ट क्रम में किया गया है जो शब्द शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्तों पर आधारित है। यों अर्थ की दृष्टि से गायत्री मंत्र सरल है। उसमें परमात्मा से सद्बुद्धि की याचना की गई है। इस शिक्षा को भी समझना चाहिए पर मंत्र की शक्ति इन शिक्षाओं में ही नहीं उसकी शब्द रचना में भी जुड़ी हुई है। वाद्य यंत्रों को अमुक क्रम से बजाने पर ध्वनि प्रवाह निस्सृत होता है। कण्ठ को अमुक आरोह-अवरोहों को अनुरूप उतार चढ़ाव के स्वरों से युक्त करके जो ध्वनि प्रवाह बनता है उसे गायन कहते हैं। ठीक इसी प्रकार मुख से उच्चारित मंत्र को अमुक शब्द क्रम के अनुसार बार-बार लगातार संचालन करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह संचारित होता है वही मंत्र की भौतिक क्षमता है। मुख से उच्चारित मंत्राक्षर सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं। उसमें सन्निहित तीन ग्रंथियों, षटचक्रों- षोडश मातृकाओं चौबीस उपत्यिकाओं एवं चौरासी नाड़ियों को झंकृत करने में मंत्र का उच्चारण क्रम बहुत काम करता है। दिव्य शक्ति के प्रादुर्भूत होने में यह शब्दोच्चार भी एक बहुत बड़ा कारण एवं माध्यम है।

मंत्र विद्या में मुख से तो धीमे और हल्के प्रवाह क्रम से ही शब्दों का उच्चारण होता है पर उनके बार-बार लगातार दुहराये जाने से सूक्ष्म शरीर के शक्ति संस्थानों का ध्वनि प्रवाह बहने लगता है। वहाँ से अश्रव्य कर्णातीत (सुपरसोनिक) ध्वनियों का प्रचंड प्रवाह प्रादुर्भूत होता है। इसी से मंत्र साधक का व्यक्तित्व ढलता है और उन्हीं के आधार पर वह अभीष्ट वातावरण बनता है जिसके लिये मंत्र साधना की गई। मंत्र का जितना महत्व है, साधना विधान का जितना महात्म्य है उतना ही आवश्यक यह भी है कि साधक अपनी श्रद्धा तन्मयता और विधि प्रक्रिया में निष्ठावान रहकर अपना व्यक्तित्व और विधि प्रक्रिया में निष्ठावान रहकर अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाये कि उसका मंत्र प्रयोग सही निशाना साधने वाली बहुमूल्य बंदूक का काम कर सके।

शब्द शक्ति का महत्व विज्ञानानुमोदित है। स्थूल, श्रव्य शब्द भी बड़ा काम करते हैं फिर सूक्ष्म कर्णातीत अश्रव्य ध्वनियों का महत्व तो और भी अधिक है। मंत्र जप में उच्चारण तो धीमा ही होता है। उससे अतीन्द्रिय शब्द शक्ति को ही प्रचंड परिमाण में उत्पन्न किया जाता है।

ध्वनि तरंगें पिछले दिनों उच्चारण से उद्भूत होकर श्रवण की परिधि में ही सीमित, रहती थीं। प्राणियों द्वारा शब्दोच्चारों एवं वस्तुओं से उत्पन्न आघातों से अगणित प्रकार की ध्वनियाँ निकलती हैं। उन्हें हमारे कान सुनते हैं। सुनकर कई तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं। निष्कर्ष निकालते हैं, और अनुभव बढ़ाते हुए उपयोगी कदम उठाते हैं। यह शब्द का साधारण उपयोग हुआ। विज्ञान ने ध्वनि तरंगों में सन्निहित असाधारण शक्ति को समझा है और उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों को पूरा करना अथवा लाभ उठाना आरम्भ किया है। वस्तुओं की मोटाई नापने-धातुओं के गुण दोष परखने का काम अब ध्वनि तरंगें ही प्रधान रूप में पूरा करती हैं। भवन ध्वस्त करने से लेकर धातुओं की ढलाई, शरीर में विद्यमान पथरी को तोड़ा जाना भी अब ध्वनि तरंगों द्वारा संभव है।

इलेक्ट्रॉनिक्स के उच्च विज्ञानी ऐसा यंत्र बनाने में सफल नहीं हो सके तो जो श्रवण शक्ति की दृष्टि से कान के समान संवेदनशील हो। कानों की जो झिल्ली आवाज पकड़कर मस्तिष्क तक पहुँचाती है उसकी मोटाई एक इंच के ढाई हजारवें हिस्से के बराबर है। फिर भी वह कोई चार लाख प्रकार के शब्द भेद पहचान सकती है और उनका अंतर कर सकती है। अपनों के पदचाप की, अपनी गाय द्वारा उच्चारित ध्वनि की या मोटर की आवाज को हम अलग से पहचान लेते हैं यद्यपि लगभग वैसी ही आवाज दूसरी गायों की या मोटरों की हो सकती है, पर जो थोड़ा सा भी अंतर उनमें रहता है, अपने कान के लिये उतने से ही अंतर कर सकना और पहचान सकना संभव हो जाता है। कितनी दूर से, किस दिशा से, किस मनुष्य की आवाज आ रही है यह पहचानने में हमें कुछ कठिनाई नहीं होती। यह कान की सूक्ष्म संवेदनशीलता का ही चमत्कार है। टेलीफोन यंत्र कान के समान ही संवेदनशील है। पर सुनता उससे भी ज्यादा है। मनुष्य के कान तो उन्हीं बातों को सुनते हैं जिनमें उनकी दिलचस्पी होती है अन्यथा पास में बहुत कुछ बकझक होते रहते पर भी अपने पल्ले कुछ नहीं पड़ता किन्तु यदि दिलचस्पी की बात हो तो फुसफुसाहट से भी मतलब की बातें आसानी से सुनी जा सकती हैं। प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि श्रवण शक्ति का पूरी तरह संबंध मानसिक एकाग्रता से है।

मनुष्य के कान केवल उन्हीं ध्वनि तरंगों को अनुभव कर सकते हैं जिनकी संख्या प्रति सेकेंड 20 से लेकर 20 सहस्त्र तक की होती है। इससे कम और अधिक संख्या वाले ध्वनि प्रवाह होते तो हैं, पर वे मनुष्य की कर्णेन्द्रियों द्वारा नहीं सुने जा सकते।

इस तथ्य को समझने पर मानसिक जप का महत्व समझ में आता है। उच्चारण आवश्यक नहीं। मानसिक शक्ति का प्रयोग करके-ध्यान भूमिका में सूक्ष्म जिव्हा द्वारा मन ही मन जो जप किया जाता है उसमें भी ध्वनि तरंगें भली प्रकार उठती रहती हैं। उनसे पूरा लाभ उठाया जा सकता है।

रेडियो यंत्र केवल कुछ सीमित और संबंधित फ्रीक्वेंसी पर चल रही ध्वनि तरंगों को ही पकड़ पाते हैं। समीपवर्ती फ्रीक्वेंसी के साथ यदि उनका संबंध न हो तो वे यंत्र सुन नहीं सकेंगे। कान की स्थिति उनकी अपेक्षा लाख गुनी अच्छी है। वे अनेक फ्रीक्वेन्सियों पर चल रहे शब्द प्रवाहों को एक साथ पकड़ और सुन सकते हैं।

नादयोग द्वारा आकाश-व्यापी, अंतर्ग्रही तथा अन्तःक्षेत्रीय दिव्य ध्वनि संकेतों को सुना जाना संभव है और उस आधार पर वैसा बहुत कुछ जाना जा सकता है जो स्थूल मस्तिष्कीय चेतना अथवा उपलब्ध साधनों से जान सकना संभव नहीं है। विश्व-व्यापी शब्द समुद्र में मंत्र साधक अपनी प्रचण्ड हलचलें समाविष्ट करता है और ऐसे शक्तिशाली ज्वार-भाटे उत्पन्न करता है, जिनके आधार पर अभीष्ट परिस्थितियाँ विनिर्मित हो सकें। यही है मंत्र विद्या के चमत्कारी क्रियाकलाप का रहस्य।

शब्द शक्ति एवं मानसिक एकाग्रता के बाद शेष आधार साधक को स्वयं प्रयत्नपूर्वक खड़े करने पड़ते हैं। इन्हें चेतनात्मक आधार भी कहा जा सकता है। चारित्रिक श्रेष्ठता और लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा साधक को सफलता की ओर अग्रसर करती है तथा उसे अभीष्ट लक्ष्य तक ले पहुँचती है।

चारित्रिक श्रेष्ठता के लिये-मंत्र साधक को यम-नियमों का अनुशासन पालन करते हुए श्रेष्ठता का अभिवर्धन करना चाहिए। क्रूर कर्मी, दुष्ट दुराचारी व्यक्ति किसी भी मंत्र को सिद्ध नहीं कर सकते। ताँत्रिक शक्तियाँ भी ब्रह्मचर्य आदि की अपेक्षा करती हैं। फिर देव शक्तियों का अवतरण जिस भूमि पर होना है उसे विचारणा, भावना और क्रिया की दृष्टि से सतोगुणी पवित्रता से युक्त होना ही चाहिए।

इन्द्रियों का चटोरापन मन की चंचलता का प्रधान कारण है। तृष्णाओं में-वासनाओं में और अहंकार तृप्ति की महत्वाकाँक्षाओं में भटकने वाला मन मृगतृष्णा एवं कस्तूरी गंध में यहाँ वहाँ असंगत दौड़ लगाते रहने वाले हिरन की तरह है। मन की एकाग्रता अध्यात्म क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। उसके संपादन के लिये अमुक साधनों का विधान तो है, पर उनकी सफलता मन को चंचल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अवरोध करने के साथ जुड़ी हुई है। जिसने मन को संयम समाहित करने की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य अंतःस्थिति का परिष्कृत दृष्टिकोण के आधार पर निर्माण कर लिया होगा, वही सच्ची और गहरी एकाग्रता का लाभ उठा सकेगा, ध्यान उसी का ठीक तरह जमेगा और तन्मयता के आधार पर उत्पन्न होने वाली दिव्य क्षमताओं से लाभान्वित होने का अवसर उसी को मिलेगा।

अभीष्ट लक्ष्यों में श्रद्धा जितनी गहरी होगी, उतना ही मंत्र बल प्रचण्ड होता चला जायेगा। श्रद्धा अपने आप में एक प्रचण्ड चेतना शक्ति है। विश्वासों के आधार पर ही आकाँक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और मन, संस्थान का स्वरूप विनिर्मित होता है। बहुत कुछ काम तो मस्तिष्क को ही करना पड़ता है। शरीर का संचालन भी मस्तिष्क ही करता है। इस मस्तिष्क को दिशा देने का काम अंतःकरण के मर्मस्थल में जमे हुए श्रद्धा-विश्वास का है। वस्तुतः व्यक्तित्व का असली प्रेरणा केन्द्र इसी निष्ठा की धुरी पर घूमता है। गीतकार ने इसी तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुये कहा है- ‘‘यो यच्छूद्धः स एव सः” जो जैसी श्रद्धा रख रहा है वस्तुतः वह वैसा ही है। अर्थात् श्रद्धा ही व्यक्तित्व है। इस श्रद्धा को इष्ट लक्ष्य में-साधना की यथार्थता और उपलब्धि में जितनी अधिक गहराई के साथ-तन्मयता के साथ-नियोजित किया गया होगा, मंत्र उतना ही सामर्थ्यवान बनेगा। तांत्रिक की चमत्कारी शक्ति उसी अनुपात से प्रचण्ड होगी। इन तीनों चेतनात्मक आधारों को महत्व देते हुए जिसने मंत्रानुष्ठान किया होगा, निश्चित रूप से वह अपने प्रयोजन में पूर्णतया सफल होकर रहेगा।

इन चारों आधारों के अपनाने पर ही मंत्र साधना के सत्परिणाम प्राप्त होते हैं। उथली एकाँगी साधना करने से तो उसके सत्परिणामों से वंचित ही रहना पड़ता है। शब्द शक्ति, मानसिक एकाग्रता, चारित्रिक श्रेष्ठता, लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा यह चार आधार ले कर की जाने वाली मंत्र साधना कभी निष्फल नहीं होती, यह एक सुनिश्चित तथ्य है।


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