अपनों से अपनी बात - चल प्रज्ञा मन्दिर-ज्ञानरथ!

June 1989

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सन् 1980 के बसन्त पर्व पर अकस्मात एक संकल्प उतरा कि देश के प्रमुख तीर्थों में चौबीस प्रज्ञा पीठें विनिर्मित होना चाहिए जो सभी अपने संपर्क क्षेत्र में युग चेतना का आलोक वितरण करने में लगी रहें।

अपने पास सदा काम चलाऊ साधन कही जुटते रहे हैं। ऐसे धनी मानी भी संपर्क में नहीं हैं जो हर निमार्ण पर लाखों खर्च कराने की स्थिति में हों। असमंजस तो बहुत था, पर विश्वास यही बना रहा कि जो निर्देश आते हैं, वे न गलत होते हैं, न असंभव। प्रयत्न चालू कर ही देना चाहिए। सो मन्तव्य प्रकाशित कर दिया।

एक प्रकार से चमत्कार ही हुआ कि परिजनों का उत्साह अंधड़ की तरह उमड़ पड़ा। जिनकी कोई निजी हैसियत नहीं थी, वे भी मण्डली बनाकर संकल्प लेने आये और अपने घर का समेट बटोर निमार्ण कार्य में जुट गए। शुभारंभ रुका नहीं और पूर्ण होकर ही रहा। 24 की बात थी, पर एक वर्ष में वे 240 बन गयीं, दूसरे वर्ष 2400 बनकर रुकीं, और भी बनतीं, पर रोक इसलिए लगानी पड़ी कि कहीं यह मन्दिर मात्र बनकर न रह जायँ। युग चेतना को आलोक विस्तार की बात न भूल जायँ। उस ओर से उपेक्षा न बरतने लगें। अन्यथा देश में ढेरों पड़े खण्डहर-मन्दिरों में कुछ दिन बाद इनकी भी गणना होने लगेगी और उपहास होने लगेगा।

यह एक कीर्तिमान है कि एक परिवार के लोग इतने अधिक निमार्ण कर गुजरें और उनके द्वारा सृजनात्मक और सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ जारी रहें।

अब चलते चलाते, एक दूसरा चरण, यों कहिये कि अन्तिम संकल्प इसी वर्ष उतरा है, जो इस गायत्री जयन्ती पर प्रकट किया जा रहा है कि चलती फिरती प्रज्ञापीठें घर-घर गली मुहल्ले युग चेतना को पहुँचायें, जन-जन से संपर्क स्थापित करें और लोक मानस को परिष्कृत करने में कुछ उठा न रखें। यह ज्ञान रथों की स्थापना-संचालन की योजना है। देवालय “अचल” ही नहीं, चल भी होते हैं। जगन्नाथ आदि अनेक मन्दिरों की रथ यात्राएँ निकलती हैं। गंगा जल को काँवर पर रखकर लोग गाँव गाँव धर्म प्रचार करते हुए निर्धारित केन्द्र पर जल चढ़ाते हैं। अनेक मेले, फूलडोल ऐसे होते हैं, जिनमें प्रतिमाओं को मन्दिर से बाहर लाकर उन्हें सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। अशक्त मरीजों के घर डाक्टरों को ही जाना पड़ता है।

देवालयों का उद्देश्य धर्म धारणा और ज्ञान-साधना का वातावरण विनिर्मित करना है। ज्ञान रथों की संस्थापना और संचालन इसी प्रयोजन के लिए होना है। साइकिल के पहियों वाली मन्टिरनुमा एक हल्की किन्तु सुसज्जित गाड़ी पर युग साहित्य ले जाया जायेगा और उसे उस क्षेत्र के शिक्षितों को बिना भूले, घर बैठे नियमित रूप से पढ़ने के लिए दिया जाया करेगा। पढ़ने पर वापस लेने के लिए भी देने वाला ही पहुँचेगा। यही ज्ञान साधना है। प्रचार प्रमुख है, विक्रय गौण।

पिछले दिनों भी ज्ञान रथ बनते रहे हैं, पर उनमें एक कमी रही है कि संगीत और प्रभावी प्रवचन की विधा से रहित होने के कारण घुमाने वाले उन्हें एक फेरी लगाकर वापस लौटा लाते थे। इस बार नये संस्करण में उनका यंत्रीकरण कर दिया गया है। टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर इनमें फिट रहेगा। टेप बजते रहेंगे और जिधर से भी ज्ञान रथ निकलेंगे, प्रभात–फेरियों का, नुक्कड़ सभाओं का माहौल बनाते रहेंगे। स्वाभाविक है कि इसे सुनने-देखने के लिए जगह-जगह भीड़ हो। मिशन का परिचय मिले। लोग पुस्तकें उलट-पुलट कर देखें। जो स्थायी सदस्य हैं वे पिछली किताबें लौटा कर नई लेवें। इस प्रकार न केवल साहित्य माध्यम से वरन् गायन, वादन और प्रवचन का सुयोग जुड़ जाने से ज्ञान रथ वक्ता-मण्डली की भूमिका भी सम्पन्न कर दिया करेगा। जिधर से निकलेगा उधर जन समुदाय को इर्द−गिर्द एकत्रित करेगा। प्रतिपादन ऐसे सशक्त हैं कि जो इन्हें सुनेगा, पढ़ेगा, वह प्रभावित हुए बिना न रहेगा।

इस नये संस्करण में बैटरी की भी व्यवस्था की गयी है। बैटरी दिन भर में चुक जाती है। अतः साथ में बैटरी चार्जर अतिरिक्त दिया जा रहा है। इस प्रकार ज्ञान रथ, साथ का साहित्य व 4 अतिरिक्त उपकरण मिलकर छह यंत्र एक साथ रहेंगे। कीमत लगभग पाँच हजार बैठी है। यह लागत इतनी है जिसे कोई एक व्यक्ति चाहे तो भी उस भार को वहन कर सकता है। अन्यथा मिल जुलकर तो उसकी पूर्ति कोई भी प्रतिभावान मित्रमण्डली के घरों पर एक फेरा भर लगा देने भर से पूरी कर सकता है।

इस बार प्रावधान यह है कि कोई एक भावनाशील व्यक्ति न्यूनतम दो घण्टे रोज उसे चलाये। रोज न चल सके तो सप्ताह में एक या दो दिन जितना भी बन पड़े, उतने समय तक पूजा मानकर अवश्य स्वयं चलायें या फिर अपनी मण्डली की पारी बांटकर मिल जुलकर चलने की व्यवस्था बनायें।

ईसाई मिशन साहित्य घर घट पहुँचाने के लिए उस समुदाय के शीर्ष व्यक्ति साहित्य लेकर पढ़ाने या विक्रय हेतु स्वयं निकलते हैं। साम्यवादी प्रचार में भी यही विधा अपनायी जाती रही है। युग चेतना का आलोक घर घर पहुँचाना हो, जन-जन को हृदयंगम कराना हो तो बड़प्पन को मिटाना व अहंकार को छोड़ना होगा। यह संकोच का नहीं, गौरव का विषय है। उत्कृष्ट प्रयोजन के लिए किया गया श्रमदान अन्य सभी दानों की तुलना में अधिक पुण्यफलदायक है।

इन दिनों देश के कोने कोने में दीपयज्ञों की धूम है। जहाँ वे आयोजन होते है, वहाँ प्रज्ञा–मण्डलों का गठन भी होता है और उन संगठनों को अपने साप्ताहिक सत्संग चालने पड़ते हैं। इनमें जप, ध्यान, दीपदान, सहगान कीर्तन, सप्ताह भर का कार्य निर्धारण, चल पुस्तकालय उपक्रम यह प्रायः दो घण्टे चलता ह। इसमें भी प्रायः उन सभी उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है जो ज्ञानरथों में फिट रहते हैं। गाड़ी में से निकालकर उन्हें आयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है।

दीपयज्ञों के साथ ही प्रज्ञा–मण्डल अपने सदस्यों के घरों पर उनके जन्म दिन आयोजन भी कराते हैं। उनमें भी पड़ोसियों-संबंधियों की अच्छी खासी भीड़ हो जाती है। ज्ञानरथ वाले उपकरण यहाँ भी काम दे जाते हैं। कई अन्य हर्षोत्सवों, संस्कार, त्यौहारों आदि में भी संगीत और प्रवचन आवश्यक होते हैं। यह सभी साधन बिना अतिरिक्त खर्च किये उसी पूँजी से उपलब्ध होते रहते हैं जो ज्ञानरथ बनाते समय लगाई गई थी।

चौबीस प्रज्ञापीठों को विनिर्मित करने का संकल्प तूफानी गति से सफलता की दिशा में अग्रसर हुआ और 100 गुना होकर 2400 का है पर यदि अदृश्य से उतरने वाले प्रेरणा प्रवाह उसी स्तर पर उतर आयें तो इन निर्माणों की संख्या 24000 भी हो सकती है। कहना न होगा कि इतना शक्तिशाली तंत्र कोटि कोटि जन मानस को नवसृजन की आदर्शवादी प्रेरणा से अनुप्राणित करके रहेगा।

जिनके मन में श्रेय लेने का उत्साह उमड़े, वे शान्तिकुँज हरिद्वार से पत्र व्यवहार कर लें। संकल्प यदि उथले बबूले स्तर के न हों और सुनिश्चित दृढ़ता के साथ उभरें तो उनकी सफलता सर्वथा सुनिश्चित ही मानी जा सकती है।

*समाप्त*


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