ज्योतिर्विज्ञान का सही स्वरूप जन जन तक पहुँचे

June 1989

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दृश्य और अदृश्य प्रकृति का परिकर-समूचा ब्रह्माण्ड चेतन पिण्डों का एक समुच्चय है, जिसके सभी घटक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसके एक सिरे पर जो कुछ भी घटित होता है, तो अन्यान्य स्थानों पर भी उसकी प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है। इस तथ्य का प्रतिपादन एवं रहस्योद्घाटन करने का विज्ञान, भारत में प्राचीन काल से प्रचलित ज्योतिर्विज्ञान के नाम से जाना जाता रहा है। इसका लक्ष्य था-अन्तर्ग्रही सम्बन्धों की वैज्ञानिक विवेचना करना तथा इनके जड़ व चेतन प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों से जन-जन को अवगत कराना।

शीत ऋतु के आगमन की पूर्व जानकारी पाकर व्यक्ति ठंड से बचने के लिए गरम कपड़ों की व्यवस्था कर लेता है। वर्षा का पूर्वानुमान होने पर कृषक खेत बाने की तैयारी करता है। लोग बाहर पड़े सामानों को छाया तले रख लेते हैं, ताकि भीग ना पाये। महामारी फैलने की सूचना पाकर सामान्य जन भी खान-पान में संयम करना प्रारम्भ कर देते हैं, अपने गली कूचों की सफाई कर लेते हैं ताकि वे महामारी के प्रकोप से बच सकें। यदि ये पूर्वानुमान न हो सकें तो मनुष्य समुदाय अनेक प्रकार के संकटों-मुसीबतों का सामना करता है, कभी कभी तो उसे व्यक्तिगत हानि तो कम उठानी पड़ती है, किन्तु सामूहिक प्रतिकूलता समूचे समाज को प्रभावित करती हैं यहीं पर ज्योतिर्विज्ञान की उपादेयता मनुष्य को समझ में आती है। प्राचीनकाल में लब्ध प्रतिष्ठित यह विज्ञान रूपी विधा कालान्तर में लुप्त हो गयी और उसका स्थान फलित ज्योतिष की मूढ़ मान्यताओं एवं भ्राँतियों ने ले लिया। निश्चित मुहूर्त में विवाह, शादियों का आयोजन, बच्चों के मंगले-मंगली होने में भेद, व्यक्ति पर शनि ग्रह का प्रकोप एवं उसके शान्ति हेतु विशिष्ट जप-तप, विशेष मणि-माणिक्य धारण करना, यात्रा करते समय दिशानुकूल तिथि देखना, विशेष तिथियों में शुभ कर्म न करना जैसी अनेकानेक मूढ़ मान्यताओं ने समाज को पंगु बना दिया है, जिसे देखकर विज्ञजनों ने इस विधा की उपेक्षा ही की है। इस विधा ने भाग्यवाद का स्थान ले लिया, जिससे ज्योतिर्विज्ञान अपने प्राचीन सच्चे स्वरूप से पदच्युत हो गया। क्योंकि वर्तमान के फलित ज्योतिष के इस स्वरूप ने व्यक्ति को भाग्य के भरोसे रहना सिखा दिया।

प्रातःकाल में ज्योतिर्विज्ञान में सत्यता के समावेश के लिए ही गणितीय आकलन को स्थान दिया गया था। यही कारण था कि ज्योतिषशास्त्र के नाम पर भाग्य फल बताने वाले आज जैसे पोंगपंथियों के लिये उसमें कोई प्रावधान नहीं था। सभी शोधार्थी वैज्ञानिक थे। दिल्ली, जयपुर, बनारस जैसे भारत के प्रमुख शहरों में ऐसी वेधशालाओं की स्थापना हुई, जिनसे अन्तर्ग्रहीय स्थिति एवं प्रभावों को देखा एवं समझा जा सके। विशेषज्ञों के सहयोग से सूर्य पंचाँग बनवाये गये। पृथ्वी का आकार विभिन्न आयामों-कोणों से देखने के लिए उनके द्वारा कई प्रकार के चक्र विनिर्मित कराये गये। ज्योतिर्विज्ञान, खगोलविज्ञान कितना बढ़ा-चढ़ा था, इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि 12000 से 1800 ई॰ के बीच उपरोक्त विषयों से सम्बन्धित लगभग दस हजार पुस्तकें संस्कृत, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में लिखी गई। मौलिक पुस्तकें ही नहीं, पुरातन ग्रंथों की टीका में तथा अनुवाद के कार्य में भी तात्कालिक विद्वान गहरी अभिरुचि रखते थे।

ज्योतिर्विज्ञान का एक और पक्ष है, अन्तर्ग्रही प्रभावों में हेर-फेर कर सकने की क्षमता का जन शक्ति द्वारा उपार्जन। चेतना की शक्ति का तत्वज्ञान जिन्हें विदित है, वे यह भी समझते हैं कि जड़ पर नियमन करने की सामर्थ्य भी उसे प्राप्त हैं। शरीर के बहुमूल्य यंत्र को प्राण की चेतना ही चलाती है, और जीवित रखती है। रेल, मोटर, जहाज स्वसंचालित यंत्र उपग्रह आदि चलते भले स्वयं हों पर उनका संचालन विचारशील मनुष्य ही करते हैं। यंत्रों में प्रचण्ड शक्ति विद्यमान तो है पर वे मात्र अपनी धुरी पर ही परिभ्रमण कर सकते हैं। यंत्र को दिशा देनी हो अथवा उलट पुलट करनी हो तो उसमें चेतना को ही अपना पुरुषार्थ प्रकट करना होगा। ठीक इसी प्रकार अन्तर्ग्रही प्रवाहों में सामर्थ्यानुसार चेतना द्वारा अतिरिक्त अभीष्ट परिवर्तन लाया जाना संभव है। इसके लिए मनुष्य की प्रचंड चेतना शक्ति को नियोजित करना होगा। अन्तर्ग्रही शक्तियों की विशालता और प्रचण्डता अद्भुत और कल्पनातीत है, इतने पर भी यह तथ्य समझा जाना चाहिए कि चेतना की प्राण शक्ति का प्रभाव उस प्रवाह में सारे अभीष्ट परिवर्तन उत्पन्न कर सकता है। ऐसे परिवर्तन जो पृथ्वी के प्राणियों के लिए आसन्न अविज्ञात कठिनाइयों को रोकने और अदृश्य अनुदानों को बढ़ाने में समर्थ हो सकें। ग्रह विज्ञान की पूर्णता इसी में है कि वह स्थिति की जानकारी तक सीमित न रहकर अभीष्ट हेर-फेर कर सकने की सामर्थ्यवान भी हो। ज्योतिर्विज्ञान न केवल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति से अवगत कराता है वरन् सूक्ष्म जगत में उनके अदृश्य प्रभावों प्रवाहों के अनुकूलन का भी प्रबंध करता है।

चिरपुरातन ज्योतिर्विद् यह भली भाँति जानते थे कि ग्रह नक्षत्रों, सौर मण्डल का गतिविधियों, उनके आपसी सम्बन्धों और परस्पर एक दूसरे पर, पृथ्वी के वातावरण, वृक्ष, वनस्पति एवं जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी देने के अतिरिक्त भी ज्योतिर्विज्ञान का एक पक्ष है-सूक्ष्म अन्तरिक्ष में चलने वाले चैतन्य प्रवाह और उनकी भली-बुरी प्रतिक्रियाओं से मानव को अवगत कराना। इसीलिए उस काल के ज्योतिर्विज्ञान के आचार्य न केवल अन्तर्ग्रही गतिविधियों के ज्ञाता होते थे वरन् आत्म विज्ञान-चेतना के क्षेत्र में भी उनकी पहुँच होती थी। फलतः सौरमण्डल की जानकारियाँ प्राप्त करने के साथ-साथ उनमें अभीष्ट उथल-पुथल करने के आध्यात्मिक उपचारों से परिचित होने के समय-समय पर इस प्रकार के प्रयोग-परीक्षण, अनुष्ठान- उपचार, सामूहिक आध्यात्मिक प्रयोग किये जाते थे।

इस दिशा में प्राचीन भारतीय ज्योतिर्विदों ने गहन अनुसंधान किये एवं निष्कर्ष निकाले हैं। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, काल क्रिया पाद, गोलपाद, सूर्य सिद्धान्त और उस पर नारदेव, ब्रह्मगुप्त के संशोधन परिवर्धन, भास्कर स्वामी के महाभास्करीय आदि दुर्लभ और अमूल्य ग्रन्थ अनेकानेक रहस्यों एवं निष्कर्षों से भरे पड़े हैं। ज्योतिष सिद्धान्त पुस्तक के प्रथम पाद में गणित का सम्बन्ध ज्योतिर्विज्ञान से स्थापित किया गया है। काल क्रिया पाद में खगोलशास्त्र का विशद वर्णन है। इसी तरह उसका अन्तिम पाद पचास श्लोकों का अध्याय ‘गोलपाद’ अपने में ज्योतिष विज्ञान के महत्वपूर्ण रहस्यों पर प्रकाश डालता है। अपने “पंच सिद्धान्तिक” में वाराह मिहिर ने पौलिश, रोपक, वाशिष्ठ, सौर और पितामह नामक पाँच ज्योर्तिसिद्धान्तों का वर्णन किया है, जो ज्योतिर्विज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं।

मौसम से लेकर राजनैतिक घटनाक्रमों तक का पूर्वानुमान लगाकर लोग अपनी योजनाओं का निर्धारण परिवर्तन करते रहते हैं। ग्रहों की स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के सम्बन्ध में यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसकी जानकारी देने वाला ज्योतिर्विज्ञान मात्र फलित ज्योतिष, ग्रह नक्षत्रों के प्रभावों को बताकर लोगों को भयभीत करने वाली प्रपंचविधा नहीं है, वरन् गणितीय आधार पर अनुकूलताओं का-सम्भावनाओं का पूर्वानुमान लगाकर अपने क्रियाकलापों में हेर-फेर करने की सूचना देने वाली एक विज्ञान सम्मत विधा है। इसके प्रयोग से वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख शान्ति एवं प्रगति के ऐसे सूत्र मिल सकते हैं, जो संभवतः उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अत्यंत लाभदायक सिद्ध हो सकें। आने वाले समय में ज्योतिर्विज्ञान की उपयोगिता इसी क्षेत्र में होगी ताकि मूढ़ मान्यताओं, भाग्यवाद आदि को बढ़ावा न मिले एवं अनिष्ट का निवारण तथा अनुकूलता का लाभ उठाने के लिये सामूहिक धर्मानुष्ठानों का प्रचलन जन–जन में चल पड़े।


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