नाद ब्रह्म की शक्ति एवं उत्पत्ति

June 1989

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संगीत की सृष्टि नाद से होती है। जिस प्रकार मिट्टी या पत्थर से प्रतिमा, रंग-रोगन से चित्र और ईंट से भवन तैयार होते हैं, उसी प्रकार संगीत का उपादान नाद है। इसी से उसकी रचना होती है। अध्यात्म क्षेत्र में इस नाद को ब्रह्म का स्वरूप माना गया है और इसे “शब्द-ब्रह्म नाद-ब्रह्म” कह कर अभिहित किया गया है। यह कोई अलंकारिक अभिव्यक्ति नहीं, वरन् इसके पीछे सचाई छिपी हैं मस्तिष्क का बुद्धि-विपर्यय और चिन्तन का विकृत विचार-प्रवाह का निराकरण करने में यह शत-प्रतिशत सफल सिद्ध होता है। जब अकेले नाद में इतनी सामर्थ्य है, तो नादों के समुच्चय-संगीत में कितनी शक्ति होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। नाद की यह शक्ति सभी जीवधारियों में समान रूप से सक्रिय देखी जा सकती है।

इस तथ्य को और अच्छी तरह स्पष्ट करते हुए डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “डिसेण्ट ऑफ मैन” में अनेक वैज्ञानिक साक्षियों के आधार पर यह बताया है कि पशु-पक्षियों की ध्वनियों में मात्र एक नाद नहीं होता, वरन् अनेक नादों का उसमें सम्मिश्रण होता है, फलतः उनकी बोलियाँ संगीतमय होती हैं। वे आगे लिखते हैं कि उनकी ध्वनियों में भिन्न-भिन्न स्वरों के अन्तराल पाये जाते हैं, जिनका उपयोग मनुष्य समाज अपनी संगीत कला में शुरू से ही करता आ रहा है। उनके अनुसार ‘कुत्ते’ पालतू होने के बाद पाँच स्पष्ट स्वरों में बोलते हैं। ‘घरेलू मुर्गे’ बारह स्फुट स्वरों में बोलते हैं। रेवरेण्ड लौकवुउ ने अमेरिका में पाये जाने वाले एक विशेष जाति के चूहे का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि यह चूहा अपने गले से अर्ध स्वर तक का सच्चा अन्तराल निकालता है। यह कभी-कभी अपने स्वर को ठीक-ठीक एक अष्टक नीचे उतारता है। उन्होंने इस चूहे के प्राकृतिक संगीत की स्वर लिपि भी तैयार की है। बहुतेरे पक्षियों में जो गायक जाति के समझे जाते हैं, गले के स्वरों के नियमानुसार ऊपर-नीचे करके संगीतमय धुन निकालने की विलक्षण क्षमता होती है।

वैज्ञानिकों का यह मत है कि पक्षियों में संगीत का उपयोग विशेष रूप से निराशा, भय, क्रोध, विजय या केवल आनन्द के भाव प्रकट करने में होता है। मनुष्यों में न का कण्ठ-रज्जु स्त्रियों के कण्ठ-रज्जु की अपेक्षा लम्बाई में तिगुना होता है। ऐसा समझा जाता है कि विकास के आदिम काल में प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या आदि के भिन्न-भिन्न स्वरों के कारण कण्ठ के बार-बार व्यवहार से नर का कण्ठ-रज्जु लम्बा एवं स्वर कड़ा होता चला गया है। भिन्न-भिन्न भावों को प्रकट करने में पशु-पक्षी भी भिन्न-भिन्न स्वरों के संयुक्त रूपों का प्रयोग करते हैं और वहीं से संगीत का आरंभ होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जीव-जन्तुओं का संगीतमय भाव-प्रदर्शन प्रकृति की देन है।

सर जेम्स जीन्स ने अपनी पुस्तक “साइन्स एण्ड म्यूजिक” में लिखा है कि संगीत का विकास पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्य तक लगातार होता चला आया है और इसलिए मानव संगीत का विकास भी मानव जाति के विकास के साथ ही साथ हुआ है। आदिम काल में, पशु-पक्षियों की तरह ही मानव जाति में भी संगीत की प्रेरणा प्रेम, ईर्ष्या, द्वन्द्व, विजय आदि भावों के प्रदर्शन के लिए होती थी। मैक्समूलर आदि विद्वानों, नृतत्त्वविदों की यह धारणा है कि भाषा की उत्पत्ति के पहले संगीत की उत्पत्ति हुई, क्योंकि विकास की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि अन्य जीवों की भाँति मनुष्य को भी पहले शुद्ध और व्यापक भावों को व्यक्त करने की प्रेरणा होती है जो केवल स्वर संघातों से किया जाता है। पहले मनुष्य एक विशेष स्वर संघात से प्रेम, दूसरे स्वर संघात से ईर्ष्या और तीसरे स्वर संघात से विजय की भावना की घोषणा करता था, आगे चलकर जब मनुष्य का मस्तिष्क विकसित हुआ तो उसके एक एक व्यापक भाव में विचारों की अनेकानेक धाराएँ खुल पड़ी। इसी प्रकार प्रेम, ईर्ष्या, द्वन्द्व, विजय आदि शुद्ध व्यापक भाव जटिल होने लगे। यहीं से भाषा की उत्पत्ति हुई, तथा भावमय स्वर संघात में स्वर के उतार चढ़ाव में, व्यंजनमुक्त शब्दों और वाक्यों को गूँथकर किसी व्यापक भाव की, अनेक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति होने लगी।

संगीत का अर्थ केवल प्रेम, श्रृंगार या प्रसन्नता के भावों से ही नहीं है। यह मनुष्य के सारे भाव, सारी कामनाओं की अभिव्यक्ति का साधन है। अब भी यह देखा जाता है कि शोक या दुःख के समय विशेष रूप से स्त्रियों का विलाप संगीत के रूप में ही होता है। अफ्रीकावासी हब्शी जब उत्तेजित होते हैं, तो उनके मुँह से वाक्य संगीत में ही निकलते हैं। दूसरा हब्शी भी उसका जवाब संगीत में ही देता है। धीरे धीरे सारी मण्डली एक स्वर से गाने लगती है। आरम्भ में मानव जाति के सारे भावों को संकेत संगीत के द्वारा ही किया जाता था। आगे चलकर जब भाषा प्रस्फुटित हुई, तो संगीत की उपयोगिता कम हो गई। फिर भी जहाँ समष्टि रूप से आनन्द या प्रसन्नता के भावों को अभिव्यक्त करना या सारे समुदाय को युद्ध के लिए उत्तेजित करना होता था वहाँ संगीत को ही प्रमुखता मितली थी। इसी से आदिम जातियों में समुदाय संगीत और आगे चलकर सभ्य मानव समाज में ग्राम्य संगीत लोक संगीत का प्रादुर्भाव हुआ।

आज भी यह देखा जाता है कि जब किसी विचार को भावों से अनुप्राणित करना होता है या श्रोताओं के हृदय में विचारों के द्वारा किसी भाव की उत्तेजना पैदा करने की आवश्यकता होती है, तो वक्ता एक स्वर के बदले स्वरों के उतार चढ़ाव या अन्तराल से काम लेता है, अर्थात् सार्थक वाक्यों में संगीत का पुट डालता है। ऐसा न करने वाला वक्ता सफल नहीं होता। ऐसे लोग भावों को एक ही धारा के द्वारा अभिव्यक्त नहीं कर पाते। साधारण बोलचाल में भी वाक्यों का उच्चारण समरसता की स्थिति में या एक स्वर में नहीं होता।

इस प्रकार यह देखा जाता है कि वार्तालाप, व्याख्या प्रक्रिया में भी संगीत के मूलभूत नियमों का ही पालन करना पड़ता है, तभी वह प्रवचन य वार्तालाप प्रभावी सिद्ध होता है और सामने वाले पर अपनी छाप छोड़ पाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भावों के उतार चढ़ाव के लिए स्वरों का उतार-चढ़ाव आवश्यक है। यदि कोई वक्ता एक ही प्रकार के स्वर में बोलता चला जाय तो वह भिन्न-भिन्न भावों को अभिव्यक्त करने में सर्वथा विफल रहेगा और तब उसकी वार्ता प्रायः निष्फल ही साबित होगी।

इस प्रकार संगीत स्वरों के उतार-चढ़ाव का ही दूसरा नाम है। जिस संगीत में स्वरों अथवा नादों का आरोह-अवरोह नहीं, वह संगीत नहीं हो सकता अथवा यों कहा जाय कि वह संगीत निष्प्रभावी साबित होता है शास्त्रों में जिस संगीत की विरुदावली गायी गई है, वह प्राकृतिक संगीत ही है। प्राकृतिक संगीत अर्थात् पशु-पक्षियों की आरोह-अवरोहयुक्त बोलियों के आधार पर विकसित संगीत। ऐसे ही संगीत के लिए शास्त्रों में “नाद ब्रह्म” जैसे शब्द का प्रयोग किया गया है और इसी में वह सामर्थ्य भी है, जो चिकित्सीय प्रयोजनों के लिए काम आ सके। पर दुर्भाग्यवश आज संगीत अपने उस शुद्ध और प्राकृतिक स्वरूप को खोता चला जा रहा है। अब उसकी जगह राँक और पाँप जैसी पश्चिमी धुनें लेती जा रही हैं, जो न सिर्फ अप्राकृतिक हैं, वरन् आरोग्य-लाभ देने की क्षमता से वंचित भी। अतः संगीत को उसके विशुद्ध चिरपुरातन प्राकृतिक रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है, तभी हम शब्द-ब्रह्म की शक्ति से लाभान्वित हो सकती हैं।


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