अपने युग की असाधारण महाक्रान्ति है।

June 1989

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विश्व इतिहास में कितनी ही ऐसी महाक्रान्तियाँ हुई हैं, जो चिरकाल तक स्मरण की जाती रहेंगी और लोकमानस को महत्वपूर्ण तथ्यों से अवगत कराती रहेंगी। छिटपुट उलट पुलट तो सामयिक तथा क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान हेतु होती ही रहती है, पर विश्लेषण और विवेचन उन्हीं का होता है जिनमें व्यापकता के साथ साथ प्रवाह परिवर्तन भी जुड़ा होता है। ऐसी घटनायें ही महाक्रान्तियाँ कहलाती हैं।

पौराणिक काल का समुद्र मंथन, वृत्रासुरवध, गंगावतरण, हिरण्याक्ष के बन्धनों से पृथ्वी की मुक्ति परशुराम द्वारा कुपथगामियों का ब्रेन-वाशिंग आदि ऐसी ही महान घटनाओं को प्रमुख माना जाता है, जिनने कालचक्र के परिवर्तन में महान भूमिका निभाई, ऐसा कहा जा सकता है। अन्य देशों के मिथकों में भी ऐसे ही मिलते जुलते अलंकारिक वर्णन हैं। यदि वे सब सही हैं तो मानना होगा कि महाक्रान्तियों का सिलसिला चिरपुरातन है।

इतिहास काल में भी कुछ बड़े शक्तिशाली परिवर्तन हुए हैं, जिनमें रामायण प्रसंग, महाभारत आयोजन और कुछ बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन प्रमुख हैं लंकाकाण्ड के उपरान्त रामराज्य के साथ सतयुग की वापसी संभव हुई। महाभारत काल के उपरान्त भारत को विशाल भारत-महान भारत बनने का लक्ष्य पूरा हुआ। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन से तत्कालीन वह विचारक्रान्ति सम्पन्न हुई जिसकी चिनगारियों ने अगणित क्षेत्रों के अगणित प्रसंगों को ऊर्जा और आभा से भर दिया। वह दावानल अनेक मंचों, धर्म सम्प्रदायों, सन्त, समाज-सुधारकों और शहीदों के रूप में पिछली शताब्दी तक अपनी परम्परा को विभिन्न रूपों में कायम रखे रहा। प्रजातंत्र और साम्यवाद की सशक्त नई विचारणा इस प्रकार उभरी जिसने लगभग समूची विश्ववसुधा को आन्दोलित करके रखा दिया। पिछली क्रान्तियों के संदर्भ में इतने ही संकेत पर्याप्त होने चाहिए, जिनसे सिद्ध होता है कि मनीषा जब भी आदर्शवादी ऊर्जा से अनुप्राणित होती है, तो अनेकों सहचरों को खींच बुलाती है और वह कार्य कर दिखाती है जिसे आमतौर से मानवी कहना, गले न उतरने पर दैवी अनुग्रह की संज्ञा दी जाती है। पुरातन कालों के ऐसे ही महान परिवर्तनों के साथ जुड़े हुए झंझावातों को अवतार की संज्ञा देकर संतोष कर लिया जाता है। असंभव को संभव कर दिखाने वाले महा पराक्रमों को मनीषा की प्रखरता भी जनसहयोग के सहारे सम्पन्न कर सकती है, इसे सामान्य स्तर का जनसमुदाय स्वीकार भी तो नहीं करता।

पिछले महान परिवर्तनों को युगान्तर या युग-परिवर्तन भी कहा जाता रहा है। इन दिनों ऐसे ही प्रचण्ड प्रवाह के अवतरण का समय कहा जा सकता है, जिसे पिछले समस्त परिवर्तनों की संयुक्त शक्ति का एकात्म समीकरण कहा जा सकता है। पिछले परिवर्तनों में कितना समय लगता रहा है, इसके संबंध में सही विवरण तो उपलब्ध नहीं, पर वर्तमान महाक्रान्ति का स्वरूप समग्र रूप से परिलक्षित होने में प्रायः सौ वर्ष का समय महत्वपूर्ण होगा। यों उसका तारतम्य पहले से भी चल रहा है और पूरी तरह चरितार्थ होने के बाद भी कुछ समय और लगेगा।

अपने समय का महा-परिवर्तन “युगान्तर” के नाम से जाना जा सकता है। युग परिवर्तन की प्रस्तुत प्रक्रिया का एक ज्वलन्त पक्ष तब देखने में आया, जब प्रायः दो हजार वर्षों से चले आ रहे आक्रमणों-अनाचारों से छुटकारा मिला। शक, हूण, कोल, किरात, यवन लगातार इस देश पर आक्रमण करते रहे हैं। यहाँ का वैभव बुरी तरह लुटता रहा है। विपन्नता ने इतना पराक्रम भी शेष नहीं रहने दिया था, कि आक्रान्ताओं को उल्टे पैरों लौटाया जा सके। फिर भी महा-क्रान्ति ने अपना स्वरूप प्रकट किया। दो विश्व युद्धों ने अहंकारियों की कमर तोड़ दी और दिखा दिया कि विनाश पर उतारू होने वाली कोई भी शक्ति नफे में नहीं रह सकती। दोनों महायुद्धों का विनाश-विवरण सामने है, पर उससे भी बढ़ कर विधेयक पक्ष उभर कर ऊपर आया। भारत ने लम्बे समय से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता का जुआ देखते-देखते उतार फेंका। दावानल इतने तक ही रुका नहीं। अफ्रीका महाद्वीप के अधिकाँश देश साधारण से प्रयत्नों के सहारे स्वतंत्र हो गये। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे द्वीपों तक ने राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की ली।

इसी बीच सामाजिक क्रान्ति का किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित परिवर्तन नहीं हुआ वरन् उसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। दास-दासियों की लूट-खसोट और खरीद फरोख्त बन्द हुई। इतने पुराने प्रचलन को इतनी तेजी से उखाड़ना संभव हुआ, मानो किसी बड़े तूफान ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया हो। राजतंत्र का संसार भर में बोल-बाला था। सामंतों की सर्वत्र तूती बोलती थी। अमीर-उमरा और जमींदार ही छत्रप बने हुए थे। वे न जाने किस हवा के झोंके के साथ टूटी पतंग की तरह उड़ गये। वैभव के प्रतीक विशालकाय और लोहे जैसे सुदृढ़ स्तर के दुर्ग अब केवल खण्डहरों की तरह किसी समय की स्थिति का परिचय मात्र देते हैं। स्त्री और शूद्र के रूप में तीन चौथाई जनता, किसी प्रकार अपने मालिकों के अनुग्रह पर निर्भर रह कर जीवन-यापन भर के साधन मात्र स्वीकार कर लेने पर काम चलाऊ मात्रा में जीवन यापन कर पाती थी। वह स्थिति अब कहाँ रही? “नर और नारी एक समान”, “जाति वंश सब एक सामान” का निर्धारण प्रायः विश्व के अधिकाँश भागों में सिद्धान्ततः स्वीकार कर लिया गया है। व्यवहार में उतरते-उतरते कुछ समय तो लग रहा है और कठिनाई भी अड़ रही है, पर देर सबेर में यह समस्या भी पूरी तरह सुलझ जायेगी। समय की बदलती हुई चाल को देखते हुए विश्वास किया जा सकता है।

यह सारे परिवर्तन प्रायः इसी बीसवीं शताब्दी में सम्पन्न हुए हैं, जबकि इन प्रतिगामिताओं को जड़ जमाने में हजारों वर्ष लग गये थे।

भूतकाल की समीक्षा आसानी से बन पड़ती है, क्योंकि तथ्यों की रूपरेखा बन चुकी होती है और प्रमाणों का संकलन क्रमबद्ध रूप से हो चुका होता है। वर्तमान का आकलन कठिन पड़ता है क्योंकि बिखरा हुआ होता है और अपरिपक्व स्थिति में भी। फिर भी जो परिस्थितियों का आकलन और पर्यवेक्षण कर सकते हैं, वे देखते हैं कि इन दिनों भी परिवर्तन का प्रवाह कम तीव्र गति नहीं अपनाये हुए है।

कठिनाई एक ही अड़ गई है कि विज्ञान, बुद्धिवाद ने तात्कालिक लाभ को प्रमुखता देना और दूरदर्शिता की उपेक्षा करना एक प्रकार का दुराग्रह बना लिया है। इस आवेश के सामने आदर्शवादिता का पक्ष अपनी उपयोगिता और प्रामाणिकता पूरी तरह प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है। तात्कालिक लाभ उठाने का प्रचलन इतना अधिक कार्यान्वित होने लगा कि मानवी गरिमा के उपयुक्त आदर्श उपस्थित करने वाले उदाहरण कठिनाई से ही जहाँ-तहाँ दीख पड़ते हैं। इस निराशा ने यह मान्यता बना दी है कि संकीर्ण स्वार्थपरता ही व्यावहारिक और लाभदायक है। भले ही उसके लिए कितने ही छल, प्रपंच, अनाचार, आतंक आदि का सहारा क्यों न लेना पड़े।

भवितव्यता उत्कृष्टता का पक्ष लेते हुए उसे फलित करने का वातावरण बना रही है, पर निहित स्वार्थों का समुदाय इतना बड़ा बन और बढ़ गया है कि उसे हटाना और उखाड़ना सहज नहीं दीख पड़ रहा है। बुझता हुआ दीपक पूरी लौ उठाता है। रात्रि के अन्तिम चरण में अँधेरा सबसे अधिक गहरा होता है। हारता जुआरी दूना दुस्साहस अपनाता है। “मरता सो क्या न करता” वाली उक्ति ऐसे ही समय पर चरितार्थ होती है। वैसा ही इन दिनों भी हो रहा है। नीति और अनीति के बीच इन दिनों घमासान युद्ध हो रहा है। कुहराम और धकापेल का ऐसा माहौल है जिसमें सूझ नहीं पड़ता कि आखिर हो क्या रहा है? इस आँख मिचौनी में धूप छाँह में किसे पता चल पा रहा है कि हो क्या रह है? इतने पर भी अदृश्य को देख सकते हैं, वे सुनिश्चित आधारों के सहारे विश्वास करते हैं कि सृजन ही जीतता है। विजय सत्य की ही होती है। अतः उज्ज्वल भविष्य का दिनमान उदय होकर रहेगा और आँखों को धोखे में डालने वाला तम मिटेगा।

महा-क्रान्ति के वर्तमान दौर में क्या हो रहा है? क्या होने जा रहा है? क्या बन रहा है? क्या बिगड़ रहा है? इसका ठीक तरह-सही स्वरूप देख पाना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं? दो पहलवान जब अखाड़े में लड़ते हैं तो दर्शकों को ठीक तरह पता चल नहीं पाता कि कौन हार रहा है और कौन जीतने जा रहा है? पर यह असमंजस अधिक समय नहीं रहता। वास्तविकता सामने आकर ही रहती है। वर्तमान में बिगाड़ होता अधिक दीखता है और सुधार की गति धीमी प्रतीत होती है फिर भी प्रवाह की गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हम पीछे नहीं हट रहे, आगे ही बढ़ रहे हैं। अनौचित्य का समापन और औचित्य का अभिवर्धन ही निष्कर्ष का सार संक्षेप है।

भविष्य का सुनिश्चित निर्धारण तो नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, वह उसे बना भी सकता है और बिगाड़ भी। बदलती हुई परिस्थितियाँ भी पासा पलट सकती हैं। इतने पर भी अनुमान और आकलन यदि सही हो तो संभावना की पूर्व जानकारी का अधिकतर पता चल जाता है। इसी आधार पर संसार की अनेक योजनाएँ बनती और गतिविधियाँ चलती हैं। यदि भावी अनुमान के संबंध में स्थिति सर्वथा अनिश्चित रहे तो किसी महत्वपूर्ण विषय पर कुछ सोच सकना ही संभव न होगा। अग्रगमन की दिशा में कदम भी न उठ सकेंगे।

यह महाक्रांति की बेला है, युग परिवर्तन की भी। अशुभ की दिशा से शुभ की ओर प्रयाण चल रहा है। प्रवाह बह रहा हे। तूफान की दिशा और गति को देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुओं को किस दिशा में धकेला और बढ़ाया जाता है। नदी के प्रवाह में गिरे हुए झंखाड़ बहाव की दिशा में ही दौड़ते चले जाते हैं। तूफानों की जो दिशा होती है उसी में तिनके पत्ते और धूलि कण उड़ते चले जाते हैं। महाक्रान्ति सदा सृजन और संतुलन के निमित्त उभरती है। पतन और पराभव की विडम्बनाएँ तो कुसंस्कारी वातावरण आये दिन रचती रहती हैं। पेड़ पर लगा हुआ फल नीचे की ओर गिरता है। पानी भी ढलान की ओर बहकर निचाई की ओर चलता जाता है। किन्तु असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए जब महाक्रान्तियाँ उभरती हैं तो उसका प्रभाव-परिणाम ऊर्ध्व गमन, उत्कर्ष, अभ्युदय ही होता है। इसलिए उन्हें ईश्वरेच्छा या भगवान का अवतार भी कहा जाता है। उस उभार को देखते हुए यह सहज विश्वास किया जा सकता है कि भविष्य उज्ज्वल है। हम सब शान्ति और प्रगति का लक्ष्य पाने की दिशा में चल रहे हैं। प्राप्त करके भी रहेंगे।


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