चौथी शक्ति का अभिनव उद्भव

June 1989

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तीन शक्तियों की प्रभुता और महत्ता सर्व विदित है (1) बुद्धिबल जिसमें विज्ञान और साहित्य कला भी सम्मिलित हैं, (2) शासन-सत्ता, उसके साथ जुड़े हुए साधन और अधिकारी भी, (3) धनशक्ति, जिसमें उद्योग व्यवसाय, निजी संग्रह एवं बैंक आदि को सम्मिलित किया जाता। देखा जाता है कि इन्हीं तीनों के सहारे छोटे बड़े, भले-बुरे सभी काम सम्पन्न होते हैं, प्रगति एवं अवगति का श्रेय इन्हीं तीन शक्तियों को मिलता है। सरस्वती, लक्ष्मी, काली के रूप में इन्हीं की पूजा भी होती है। जन-साधारण की इच्छा अभिलाषा इन्हीं को प्राप्त करने में आतुर रहती है। बड़प्पन की यही तीन कसौटियाँ इन दिनों बनी हुई हैं। इनके सहारे वह सब कुछ खरीदा जाता है जो इच्छानुकूल सुविधा साधन अर्जित करने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है।

इन तीनों में भी इन दिनों धन का वर्चस्व और भी अधिक है। उसके सहारे अन्य दो को खरीदा जाता है। ऐसे लोग कम ही हैं जो प्रलोभन की उपेक्षा करते और सिद्धान्त पर अड़े रहकर स्वल्प सुविधा साधनों से काम चलाते हैं और कीचड़ के तालाब में कमलवत् मानवी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं।

नवयुग के अवतरण में चौथी उस शक्ति का उदय होगा जो अभी भी किसी प्रकार कहीं कहीं जीवित है, पर उसका वर्चस्व कहीं कहीं कभी-कभी ही दीख पड़ता है। इसी की दुर्बलता अथवा न्यूनता के कारण अनेकानेक विकृतियाँ उग पड़ी हैं और उनने जलकुम्भी की तरह जलाशयों को अपने प्रभाव से आच्छादित करक वातावरण को अवाँछनीयता से घेर लिया है।

इस चौथी शक्ति का नाम है “प्रखर-प्रतिभा” सामान्य प्रतिभा तो बुद्धिमानों, क्रिया कुशलों, व्यवस्थापकों और पराक्रम परायणों में भी देखी जाती है। इनके सहारे वे प्रचुर सम्पदा कमाते, यशस्वी बनते और अनुचरों से घिरे रहते हैं। आतंक उत्पन्न करना भी इन्हीं के सहारे संभव होता है। छद्म अपराधों की एक बड़ी श्रृंखला भी चलती है। इस सामान्य प्रतिभा से सम्पन्न अनेकों व्यक्ति देखे जाते हैं और उसके बल पर बड़प्पन का सरंजाम जुटाते हैं। तत्काल उसे हुण्डी की तरह भुना लिया जाता है। अच्छे वेतन पर अधिकारी स्तर का लाभदायक काम उन्हें मिल जाता है, किन्तु प्रखर प्रतिभा की बात इससे सर्वथा भिन्न है। प्रखरता से यहाँ तात्पर्य आदर्शवादी उत्कृष्टता से लिया जाना चाहिए। सज्जन और समर्पित संत इसी स्तर के होते हैं। कर्तव्य क्षेत्र में वे सैनिकों जैसा अनुशासन पालन करते हैं। देवमानव इन्हीं को कहते हैं। महामानव युगपुरुष आदि नामों से भी इस स्तर के लोगों का स्मरण किया जाता है।

इनमें विशेषता उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं की होती है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा जैसे तत्व उन्हीं में देखे पाये जाते हैं। सामान्य प्रतिभावान मात्र धन, यश या बड़प्पन का अपने निज के हेतु अर्जन करते रहते हैं। जिसे जितनी सफलता मिल जाती है वह अपने को उतना ही बड़ा मानता है। लोग भी उसी से प्रभावित होते हैं। उसके सहारे कुछ उपलब्ध कर लेने की इच्छा से अनेकों चाटुकार पीछे फिरते हैं। अप्रसन्न होने पर वे अहित कर सकते हैं। इसलिए भी कितने ही उनका दबाव मानते हैं और इच्छा न होने पर भी सहयोग करते हैं। यह सामान्य प्रतिभा का विवेचन है।

प्रखर प्रतिभा संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँची उठी होती है। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोक मंगल और सत्प्रवृत्ति-सम्वर्धन में उसे उतनी ही रुचि रहती है। जितनी कि किसी लालची में किसी भी कीमत पर इच्छापूर्ण करने के लिए आतुरता पाई जाती है।

प्रखर प्रतिभा का दिव्य अनुदान एक प्रकार से दैवी अनुग्रह गिना जाता है। जबकि सामान्य लोगों को लोभ मोह के बन्धनों से क्षण भर के लिए भी छुटकारा नहीं मिलता तब प्रखर प्रतिभा-सम्पन्न लोग जन समस्याओं पर ही विचार करते और उनके समाधान की योजना बनाते रहते हैं। भावनाएँ उभरने पर मनुष्य बड़े से बड़ा त्याग और पुरुषार्थ कर दिखाने में तत्पर हो जाता है। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना उन्हीं का काम होता है। मनुष्य शक्ति का पुँज है। उसकी बर्बादी तो लिप्सा, लालसा के क्षुद्र प्रयोजनों में होती रहती है। पर यदि कोई सामान्य स्तर का व्यक्ति भी लोक कल्याण के महान प्रयोजनों में जुट जाता है तो फिर उसका अनवरत श्रम चींटी के गिरि-शिखर पर जा पहुँचने का उदाहरण बनता है।

आकाश बहुत बड़ा है पर उसमें सीमित संख्या में ही तारे चमकते दिखाई पड़ते हैं। उसी प्रकार जनसमुदाय को पेट-प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोचते करते नहीं बन पड़ता किन्तु जिन पर दैवी अनुकम्पा की तरह प्रखर प्रतिभा अवतरित होती है उनका क्रियाकलाप ऐसा बन पड़ता है जिसका चिरकाल तक असंख्यों द्वारा अनुकरण अभिनन्दन होता रहे। भावुक जन इन्हीं को देवदूत, युग अवतार आदि नामों से पुकारते हैं।

साहित्य सत्संग, प्रेरणा परामर्श आदि द्वारा भी सन्मार्ग पर चलने का मार्गदर्शन मिलता है पर वह सब गले उन्हीं के उतरता है, जिनके अन्दर भाव संवेदनाएँ पहले से ही जीवित हैं। उनके लिए थोड़ी सी प्रेरणा भी क्रान्तिकारी परिवर्तन कर देती है। सीप में जल की एक बूँद ही मोती उत्पन्न कर देती है पर रेत में गिरने पर वह अपना अस्तित्व ही गवाँ बैठती है। यही बात आदर्शवादी परमार्थों के सम्बन्ध में भी है। कई बार तो उपदेशकों तक की करनी कथनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर देखा पाया जाता है। भावनाओं की प्रखरता रहने पर व्यक्ति अपने व्यस्त कार्यों में से भी समय और मनोबल निकाल लेता है जिससे अपनी सदाशयता को खाद पानी देकर बढ़ाता रहे और संपर्क में अपने वालों को भी अपने परामर्शों के साथ गहन भाव-संवेदनाओं का समन्वय करके इतना प्रभावित कर सके कि उनके लिए भी कुछ कर गुजरने में रुकना कठिन पड़े।

आम लोग व्यस्तता का बहाना बनाकर युगधर्म के निर्वाह में असमर्थता बताते रहते हैं पर बात वस्तुतः ऐसी है नहीं। निर्वाह के लिए अनेकों समाधान निकल सकते हैं। अपनी पूर्व मान्यता पर अड़े रहना और उसी तरह हल निकालने और समय की पुकार पर कदम न बढ़ाने का हठ हो तो समझना चाहिए कि गाड़ी ऐसे खड्ड में गिर गई जहाँ से उसका निकलना कठिन है। अन्यथा विचार करने पर संचित सम्पदा से लेकर परिवार के अन्य साथियों के काम में लगाने जैसे अनेकों मार्ग ऐसे निकल सकते हैं जिनके सहारे शरीर और परिवार के गुजारे के साधन जुटते रहें और साथ ही युगधर्म के परिपालन की दिशा में भी बहुत कुछ करते बन पड़े। अविवाहित रहने पर भी तो हर कोई युगधर्म के परिपालन में बहुत कुछ कर सकता है। रिटायर्ड लोगों को पूरा समय मिलता है। अन्य कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो घर के आवश्यक काम निबटाने के बाद भी ढेरों समय पाते हैं जिसे आलस्य प्रमाद में गँवाने की अपेक्षा अपने निकटवर्ती क्षेत्र से ही सृजन प्रयोजनों में लगकर साथी सहयोगियों की सहायता से आश्चर्यजनक युग साधना सम्पन्न कर सकते हैं।

सूक्ष्म जगत में भी कई बार समय समय पर ज्वार भाटे जैसे उतार चढ़ाव आया करते हैं। कभी स्वार्थी, लालची, अपराधी, क्रूरकर्मी समाज में बढ़ जाते हैं। स्वयं तो कुछ लाभ उठा भी लेते हैं पर प्रभाव क्षेत्र के अन्य अनेकों का सर्वनाश करते रहते हैं इसे आसुरी प्रवाह प्रचलन कहा जा सकता है। पर जब प्रवाह बदलता है तो उच्च आत्माओं की भी कमी नहीं रहती। एक जैसे विचार ही असंख्यों के मन में उठते हैं और उन सब की मिली जुली शक्ति से सृजन स्तर के कार्य इतने अधिक और इतने सफल होने लगते हैं कि दर्शकों को इसका अवलोकन करके आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। उसे दैवी प्रेरणा कहने में भी कुछ अत्युक्ति नहीं है।

इक्कीसवीं सदी में नई दुनिया बनाने जैसा कठिन कार्य किया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में प्रखर प्रतिभा का उफान तूफान आना है। अनेक व्यक्ति उस संदर्भ में कार्य करेंगे। आँधी तूफान आने पर पत्ते तिनके और धूलि कण तक आकाश तक जा पहुँचते हैं। दैवी प्रेरणा का अदृश्य प्रवाह इन्हीं दिनों ऐसा आवेगा जिसमें सृजन सैनिकों की विशालकाय सेना खड़ी दिखाई देगी और उस प्रकार के चमत्कार करेगी जैसे कि खण्डहर बने जापान को वहाँ के निवासियों ने अणु बम गिरने के बाद भी अपने देश को पहले से भी कहीं बेहतर बना लिया है। रूस, जर्मनी आदि ने भी कुछ ही दशाब्दियों में क्या से क्या चमत्कार कर दिखाये उसे अद्भुत ही कहा जा सकता है और इतिहास में अनुपम भी। सृजन शिल्पी इसी प्रकार संसार के कोने कोने में प्रकट होंगे। प्रखर प्रतिभा वे दैवी अनुकम्पा के रूप में अनायास ही प्राप्त करेंगे। प्रवाह कुछ ऐसा चलेगा जिसमें हर प्रतिभाशाली के लिए सृजन, सुधार और परिवर्तन ही रुचि का विषय रह जायगा।

दुर्बुद्धि ने पिछली एक शताब्दी में कितना कहर ढाया है, यह किसी से छिपा नहीं है। दो विश्व युद्ध इसी शताब्दी में हुए। प्रदूषण इतना बढ़ा जितना कि लाखों-वर्षों में भी बढ़ नहीं पाया था। वन बिस्मार हुए। रेगिस्तान बढ़े। अपराधों की बढ़ोत्तरी ने कीर्तिमान स्थापित किया। मद्य, माँस और व्यभिचार ने पिछले रिकार्ड तोड़ दिये। जन संख्या में बढ़ोत्तरी भी अद्भुत क्रम से हुई। जन-साधारण का व्यक्तिगत आचरण लगभग भ्रष्टाचार स्तर पर जा पहुँचा और भी न जाने ऐसा क्या क्या हुआ जिसकी चर्चा सुनकर यही कहना पड़ता है कि मनुष्य क तथाकथित वैज्ञानिक बौद्धिक और आर्थिक प्रगति से समस्याएँ, विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ ही खड़ी कीं। आश्चर्य होता है कि प्रायः एक शताब्दी में ही इतना अनर्थ किस प्रकार जुटाना और द्रुतगति से क्रियाशील किया जाना संभव हुआ। अब रात्रि के बाद दिनमान का उदय होने जा रहा है। दूसरे स्तर का प्रवाह चलेगा। मनुष्यों में से असंख्यों में भाव संवेदनाओं का उभार आयेगा और वे सभी सृजन की, सेवा की, उत्थान की, आदर्श की बात सोचेंगे। इस में लोगों का एक बड़ा समुदाय उगता उभरता दृष्टि-गोचर होगा। गर्मी के दिनों में घास का एक तिनका भी कहीं नहीं दीखता पर वर्षा के आते ही सर्वत्र हरियाली छा जाती है। नये युग का दैवी प्रवाह अदृश्य वातावरण में अपनी ऊर्जा का विस्तार करेगा। फलस्वरूप जिनमें भाव संवेदनाओं के तत्व जीवित बचे होंगे वे अपनी सामर्थ्य का एक महत्वपूर्ण भाग नवसृजन के लिए नियोजित किये हुए दृष्टिगोचर होंगे। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के बहाने एक मजाक बन जायेंगे। उनकी आड़ लेकर कोई भी न अपनी आत्म-प्रवंचना कर सकेगा और न सुनने वालों में से किसी को इस बात का विश्वास दिला सकेगा कि बात वस्तुतः ऐसी भी हो सकती है जैसी कि बहकावे के रूप में समझी या कही जा रही है।

इक्कीसवीं सदी निकट है। तब तक ही इस अवधि में प्रखर प्रज्ञा के अनेकों छोटे बड़े उद्यान रोपे, बढ़ाये और इस स्तर पर पहुँचाये जा सकेंगे जिन्हें नन्दन वनों के समतुल्य कहा जा सके। जिन्हें कल्पवृक्ष उद्यानों की समता ही जा सके।

श्रेष्ठ मनुष्यों का बाहुल्य ही सतयुग है। उसी को स्वर्ग कहते हैं। नरक और कुछ नहीं दुर्बुद्धि का बाहुल्य और उसी का व्यापक प्रचलन है। नरक जैसी परिस्थितियाँ उसी में दृष्टिगोचर होती हैं। पतन और पराभव से अनेक अनाचार उसी के कारण उत्पन्न होते हैं, होते रहे हैं। समय परिवर्तन के साथ सदाशयता बढ़ेगी। नव सृजन की जन-जन के मन में उमंग उठेगी और प्रखर प्रज्ञा की दिव्य आलोक सर्वत्र अपना चमत्कार उत्पन्न करता दिखाई देगा। यह चौथी शक्ति नवयुग की अधिष्ठात्री कही जायेगी।


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