गाँधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों सत्याग्रह आन्दोलन चलाया था। तब लोक समझते थे कि इस आन्दोलन से जुड़ना ही सत्याग्रही बनना है; पर क्या यह परिभाषा सही है? क्या किसी आन्दोलन से अपना संबंध जोड़ लेना ही सही सत्याग्रही का सही मापदण्ड है? कदाचित् नहीं।
उन दिनों गाँधी जी ने एक बार अपने एक भाषण में कहा था-”सत्याग्रही की ईश्वर में निष्ठा होनी चाहिए।” किन्तु तब लोग इस वाक्य में छिपे भाव को न समझ कर भ्रम में पड़ गये थे और सोचने लगे थे कि आखिर कौन और किसके ईश्वर में श्रद्धा करूं-ईसाई के? ताओ के? पारसी के? अथवा निरीश्वरवादी जैन, बौद्ध, साँख्यों के? या सगुण-निर्गुण-किसमें?
वस्तुतः सत्याग्रही के लिए किसी प्रकार की कोई शर्त का निर्धारण नहीं है। उसके लिए ऐसा कोई आवश्यक अनुबन्ध नहीं कि किसी आन्दोलन से जुड़ने अथवा किसी मत-मतान्तर से संबंध रखने से ही वह इसका अधिकारी बन सकता है, वरन् सत्याग्रह तो वह तीव्र ‘भावना’ है, जो किसी किसी के हृदय से प्रस्फुटित होकर बारह अभिव्यक्त होती है। यह भावना सामान्य इन्द्रियों के विषयों की अथवा संकल्प-विकल्पों की नहीं है, अपितु यह एक ऐसी प्रतीति है, जिसके कारण उस व्यक्ति में यह विश्वास पैदा हो जाता है कि उसके अन्दर कोई ऐसी बलशाली प्रेरणा शक्ति काम कर रही है, जो विश्व की अन्य सभी शक्तियों से अधिक सबल है, और जो उसकी काया और चेतना की तुलना में उससे कहीं अधिक निकट है।
यही वह शक्ति है, जिसे कई लोग ‘अध्यात्म बल’ कहते हैं; कई इसे ‘नैतिक बल’ कहते हैं; कुछ ‘आत्म बल’ के नाम से पुकारते, अन्य कइयों ने इसको ‘प्रतीति बल’ कहा है’ पर अधिकाँश इसे ‘ईश्वर-निष्ठा का बल’ मानते हैं। इसी बल के कारण महामानव त्याग-पुरुषार्थ करने और परीक्षा की घड़ी में भी अपने आदर्शों पर डटे रहने में समर्थ हो पाते हैं। समाज सेवी स्वयं कष्ट-कठिनाई उठाकर दूसरों को सुख बाँटने और देशभक्त, राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने का साहस सँजो पाते हैं। कई-कई लोग खुद दीन-दयनीय स्थिति में रह कर भी समय और समाज के लिए इतना कुछ कर जाते हैं, जो उन्हें महान बना देता है। प्रकारान्तर से इसमें वही बल काम करता है। गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों ने किस बल के कारण दीवार में चुने जाने का पराक्रम दिखाया? वह कौन-सा बल था, जिसने गैरीबाल्डी और मेजिनी में इटली को स्वाधीन बनाने के लिए मन्यु जगाया? विनोबा में दूसरों के लिए कष्ट-सहन का साहस किसने पैदा किया? वस्तुतः इन सभी में उसी बल की शक्ति काम करती देखी जाती है पर इस बाल की पहचान क्या हो? कोई यह कैसे समझे कि उसके अन्दर जो शक्ति काम कर रही है, वह वही शक्ति है, जो महामानवों में क्रियाशील रहती अथवा सत्याग्रह पर डटे रहने के लिए आवश्यक होती है? इस संबंध में गाँधी जी का कथन है कि इसकी एक ही कसौटी है-यदि संकट की घड़ी में भी उच्च आदर्शों के परिपालन के प्रति मन में उमंग उत्साह और हृदय में साहस बने रहें तथा कार्य करने के लिए सदा कर्ता को प्रेरित करते रहें, तो समझा जाना चाहिए कि यह उसी बल की शक्ति है। फिर चाहे इसे ईश्वर-आत्मा-गॉड-अल्लाह अथवा नैतिक बल-मनोबल किसी भी नाम से पुकारें-सब एक है।
जो लोग अपने जीवन में नैतिकता, सदाचार और उच्च आदर्शों को प्रश्रय देते हैं, वस्तुतः वही अन्त तक सत्याग्रह के मार्ग पर डटे रह सकते और सत्याग्रही बनने का गौरव प्राप्त करते हैं; किन्तु जो मात्र बाह्य साधनों के बल पर सत्याग्रह पर आरूढ़ रहने की बात सोचते हैं, वह सही अर्थों में सत्याग्रही नहीं कहला सकते; क्योंकि सत्याग्रही का बल उसके अन्तः का ही उपार्जित वैभव होता है जिसे आत्मबल, वर्चस आदि नामों से पुकारा जाता है।