सत्य एक ही है, शाश्वत एवं सनातन है।

June 1989

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“श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ आपका दर्शन करना चाहते हैं भगवन्। सुना है, अनेक धर्म, अनेक सम्प्रदायों की परस्पर विरोधी मान्यताओं के कारण राजन् अत्यधिक विभ्रमित हैं। कल्याणप्रद धर्म को जानने की जिज्ञासा ही उन्हें आपके दर्शनार्थ खींचकर लाई है! आर्य आदेश हो तो उन्हें आपके सम्मुख उपस्थित करूं?” एक भिक्षुक ने भगवान् बुद्ध से निवेदन किया।

तब वे श्रावस्ती के एक सघन एकान्त में बने संघाराम में विश्राम कर रहे थे।

तथागत मुस्कराये और भिक्षुक की ओर एक खोजपूर्ण दृष्टि डालते हुए बोले-”तात! चन्द्रचूड़ महान् धर्मात्मा सम्राट हैं उन्हें शीघ्र ही यहाँ लेकर आओ।”

भिक्षुक चला गया। थोड़ी ही देर में महाराज चन्द्रचूड़ तथागत भगवान बुद्ध के समीप आ पहुँचे। देवमूर्ति को मंगल प्रणाम निवेदन कर वे एक सामान्य अभ्यागत की भाँति एक ओर बैठ गये। जिज्ञासु की उपयुक्त श्रद्धा ही साधक के अन्तःकरण में सत्य का प्रकाश लाती है। श्रद्धा अर्थात् समर्पण-अपने मन को कोरा कागज बनाकर प्रस्तुत करना ताकि सत्य का प्रतिबिम्ब उसमें यथावत् झाँक सके। भगवान् महाराज की विनम्रता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। पर उन्हें इस बात का हार्दिक दुःख भी हुआ कि व्यक्ति की श्रद्धा का तथाकथित स्वार्थ और सम्प्रदायवादी साधु-सन्त किस तरह शोषण करते हैं। श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है सन्देह नहीं किन्तु बुद्धिहीन श्रद्धा-जहर मिले दूध की तरह अभिशाप भी है जो शिष्य और मार्गदर्शक दोनों का ही अहित करती है।

बात थोड़ी टेड़ी थी। चन्द्रचूड़ का समाधान-सारी प्रजा का समाधान हो सकता था, इसलिए बात इस ढंग से समझानी आवश्यक थी, जिससे चन्द्रचूड़ को मतमतान्तरों का वितण्डावाद फिर विभ्रमित नहीं कर पाता और उनकी श्रद्धा का विनाश भी बच जाता। दिग्भ्रान्त बुद्धि ही नास्तिकता है वे यह बात जानते थे। अतएव जिज्ञासु का समुचित समाधान आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी था।

तब तो उन्होंने महाराज के विश्राम की व्यवस्था कराई और सामान्य कुशल मंगल की चर्चा तक ही विचार-विमर्श सीमित रखा किन्तु जैसे ही प्रातःकाल हुआ संघाराम में निवास करने वाले स्नातक-अभ्यागत यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि-वहाँ प्रातःकाल से ही एक मोटा, बलवान् हाथी खड़ा है और एक ओर श्रावस्ती के अनेक जन्मान्ध बैठे हुए कुछ चर्चा कर रहे हैं।

महाराज चन्द्रचूड़ को साथ लेकर तथागत वहाँ जा पहुँचे, उन्होंने अन्धों से प्रश्न किया-”बान्धव! आप लोगों ने हाथी देखा है क्या”? “नहीं भगवन्”-सबने करबद्ध एक स्वर से निवेदन किया। ठीक है कहकर बुद्ध ने एक-एक अन्धे को हाथी दिखाया। हाथ से टटोलते हुए किसी किसी ने हाथ की पीठ, किसी ने सूंड, किसी ने कान, दाँत तथा पाँव को देखकर ही उन्होंने उसी अंग को हाथी समझा तथा यह जानकर बड़े प्रसन्न हुये कि आज उनकी हाथी से पहचान हो गई।

अब तथागत ने प्रश्न किया-”बताइये हाथी कैसा होता है”? एक ने उत्तर दिया खम्भे की तरह-उस बेचारे ने हाथी के पाँव स्पर्श किये थे-तो कान वाले ने हाथी की आकृति सूप जैसी बताई-पूँछ वाले ने उसे रज्जौयथा बताया सिर वाले ने पत्थर के समान यह सब सुनते ही महाराज चन्द्रचूड़ हँस पड़े और बोले भगवन्! यह सब तो हाथी के किसी अंग भर की जानकारी दे रहे हैं, हाथी तो इन सब जानकारियों से मिली-जुली आकृति का होता है। भगवान बुद्ध ने कहा-”तात! धर्म का सनातन स्वरूप भी ऐसा ही है। मत-मतान्तर एक-एक अंग की समीक्षा, प्रशंसा और प्रचार करते हैं। उनसे घबड़ाने की आवश्यकता नहीं उन सबके समन्वय में ही धर्म का मर्म छिपा हुआ है। उठो! अपनी विवेक बुद्धि से हर ग्रन्थ, हर पन्थ को टटोलो तो सत्य धर्म का स्वरूप अपने आप प्रकट हो जायेगा।”


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