प्रखर प्रतिभा ज्ञान साधना का ही परिपाक

June 1989

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‘छोटी आयु में बड़ी प्रतिभा’-यह कहने सुनने में आश्चर्यजनक भले ही लगता हो, पर यह अविश्वसनीय तथ्य नहीं है जो भारतीय शास्त्रों में वर्णित पुनर्जन्म सिद्धान्त’ को मानते हैं, वे जानते हैं कि मरने के बाद भी मानवी सत्ता ज्यों-की त्यों बनी रहती है। मरता शरीर भर है, आत्मा नहीं। वह तो अमर अविनाशी है, परमात्मा का अंशधर है और उसी में एकाकार हो जाना उसका अन्तिम लक्ष्य है। जब तक वह अपने इस चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेती, तब तक बार-बार शरीर धारण करती रहती है। अतः जो व्यक्ति आज इस संसार में है, उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि यह उनका प्रथम जन्म है। इससे पूर्व भी वे कई बार जन्म ले चुके हैं। इन पिछले जन्मों में व्यक्ति का प्रयास-अभ्यास जिस दिशा में चलता है, धीरे-धीरे वही परिपुष्ट होता जाता और अगले जन्म में विशिष्टता अल्पायु में प्रतिभा के रूप में विकसित होती और समय-समय पर अपना प्रमाण-परिचय देती रहती है।

हमें दैनन्दिन जीवन में ऐसे व्यक्ति देखने को मिलते हैं, जिनकी प्रतिभा उनकी आयु से मेल नहीं खाती। अब आय. क्यू. की परिभाषा ही बदली जा चुकी है व यह कहा जाता है कि प्रतिभा किसी भी क्षेत्र में अपनी झलक दिखा सकती है। प्रयास उसे परिपुष्ट करने का होना चाहिए।

इंग्लैंड के डेवोन स्थान में एक पत्थर तोड़ने वाले श्रमिक का दो वर्षीय पुत्र जार्ज, गणित में अपनी अद्भुत प्रतिभा प्रदर्शित करने लगा। चार वर्ष की आयु में उसने गणित के अत्यन्त जटिल प्रश्नों का दो मिनट में मौखिक उत्तर देना आरम्भ कर दिया, जिन्हें कागज, कलम की सहायता से गणित के निष्णात् आधा घण्टे से कम में किसी भी प्रकार नहीं दे सकते थे। उसकी प्रतिभा भी दस वर्ष की आयु पोषण न मिल पाने के कारण समाप्त हो गई। फिर वह सामान्य लड़कों की तरह पढ़ कर कठिनाई से सिविल इंजीनियर बन सका।

फिल्मी दुनिया में तहलका मचाने वाला बाल अभिनेता विलियम हेनरी वेट्टी बाल्यकाल से ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देने लगा। उसके अभिनय ने सारे यूरोप का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर दिया। 11 वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते वह फिल्म दर्शकों का सुपरिचित प्रिय-पात्र बन गया। ऐसा ही एक दूसरा बालक था लन्दन का काँवेट गार्डन, उसका अभिनय देखने के लिए आकुल भीड़ को हटाने के लिए एकबार तो सेना बुलानी पड़ी थी। उसे इतना अधिक पारिश्रमिक मिलता था, जितना पाने का अन्य किसी कलाकार को सौभाग्य न मिला। एकबार तो ‘हाउस आफ कामन्स’ का अधिवेशन इसलिए स्थगित करना पड़ा कि उस दिन काँवेट गार्डन द्वारा ‘हैमलेट’ नाटक का अभिनय किया जाना था और सदस्यगण उसे देखने के लिए आतुर थे।

जर्मनी की बाल प्रतिभा का कीर्तिमान स्थापित करने वालों में जान फिलिप वैरटियम को कभी भुलाया न जा सकेगा। उसने दो वर्ष की आयु में ही पढ़ना ‘लिखना सीख लिया। छै वर्ष की आयु में वह फ्रेंच और लैटिन भी धारा प्रवाह रूप से बोलता था। सात वर्ष की आयु में उसने बाइबिल का ग्रीक भाषा में अनुवाद करना आरम्भ कर दिया। सात वर्ष की आयु में ही उसने अपने इतिहास, भूगोल और गणित सम्बन्धी ज्ञान से तत्कालीन अध्यापकों को अवाक् बना दिया। सातवें वर्ष में ही उसे बर्लिन की ‘रॉयल एकेडेमी’ का सदस्य चुना गया तथा डाक्टर ऑफ फिलासॉफी की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह भी अधिक दिन नहीं जिया। किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते संसार से विदा हो गया।

अत्यन्त छोटी आयु में विलक्षणता का परिचय देने में समस्त विश्व इतिहास को पीछे छोड़ देने वालों में लुवेक, जर्मनी में उत्पन्न हुआ बालक फ्रेडरिक हैनिकेन था। वह सन् 1721 में जन्मा। जन्मने के कुछ दिनों के बाद ही वह बातचीत करने लगा। दो वर्ष की आयु में बाइबिल के सम्बन्ध में पूछी गई किसी भी बात का विस्तार पूर्वक उत्तर देता था और बताता था कि वह प्रकरण किस अध्याय के किस मन्त्र में है। इतिहास और भूगोल में उसका ज्ञान अनुपम था। डेनमार्क के राजा ने उसे राजमहल में बुलाकर सम्मानित किया।

वरमाँट निवासी आठ वर्षीय बालक जेराकोलबर्न ने बिना गणित का क्रमबद्ध अध्ययन किये-और बिना कागज कलम की सहायता के दिमागी आधार पर कठिन प्रश्नों के उत्तर देने की जो क्षमता दिखाई उससे बड़े-बड़े गणितज्ञ चकित रह गये। जिन कठिन सवालों को केवल अच्छे गणित ज्ञाता ही काफी समय लगाकर हल कर सकते थे उसने उन्हें बिना हिचके आनन-फानन में कैसे हल कर दिया, इसे देखकर सब दंग रह जाते थे। आश्चर्य यह था कि पुस्तकीय आधार पर उसे गणित के सामान्य नियम भी ज्ञात न थे। हमारी संस्कृति के अग्रदूतों में रामचरित मानस रचयिता तुलसीदास, शुकदेवजी एवं मुनि अष्टावक्र की बाल्यकाल में ही प्रतिभासित विलक्षण प्रतिभा के उदाहरण से विज्ञपाठक परिचित हैं ही।

फ्राँस में जन्मे लुईस कार्डेक चार वर्ष की आयु के थे। तभी अँग्रेजी, फ्राँसीसी, जर्मनी तथा अन्य योरोपीय भाषायें बोल लेते थे। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह था कि वह 6 माह की आयु में ही बाइबिल पढ़ लेते थे। 6 वर्ष की आयु तक पहुँचने पर कोई भी प्रोफेसर गणित, इतिहास और भूगोल में उनकी बराबरी नहीं कर पाता था। जो ज्ञान और बौद्धिक क्षमतायें इतने अधिक अध्ययन और अभ्यास से विकसित हो पाती हैं और वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार क्रमशः समयानुसार ही बढ़ना चाहिये था, वह शारीरिक विकास के अभाव में इतने विकास तक कैसे जा पहुँची? यह एक अनसुलझी गुत्थी है।

ब्लेइस पास्कल ने 12 वर्ष की आयु में ही ध्वनि-शास्त्र पर निबन्ध प्रस्तुत कर सारे फ्राँस को आश्चर्य में डाल दिया था। जीन फिलिप बेरोटियर को 14 वर्ष की आयु में ही डाक्टर आफ फिलासफी की उपाधि मिल गई थी। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि दिन याद कराने भर की देर होती थी एवं वे उस दिन की व्यक्तिगत, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय घटनायें भी टेप की भाँति दुहरा सकते थे। जाँनी ले नामक आस्ट्रेलियाई बालक को जब तीन वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रवेश कराया गया तो वह उसी दिन से 8 वीं कक्षा के छात्रों की पुस्तकें पढ़ लेता था। उसे हाईस्कूल में केवल इसलिए प्रवेश नहीं दिया जा सका, क्योंकि उस समय उसकी आयु कुल 5 वर्ष थी, जबकि निर्धारित आयु 12 वर्ष न्यूनतम थी।

कोई भी अल्पबुद्धि व्यक्ति यह समझ सकता है कि यह असामान्य ज्ञान पूर्व जन्मों के ही संचित संस्कार हो सकते हैं। हमारे मनीषी निरन्तर स्वाध्याय की आवश्यकता अनुमोदित करते रहे और यह बताते रहे कि ज्ञान आत्मा की भूख-प्यास की तरह है। उससे उसका विकास होता है। यह बात समझ में आने वाली है कि चेतना का विकास मात्र ज्ञान की साधना से ही सम्भव है, जो अद्भुत क्षमता के रूप में हर किसी को सहज उपलब्ध है। बालकों के आहार, वातावरण, पोषण आदि की समान सुविधायें होने पर भी बौद्धिक स्तर में असमानता प्राच्यदर्शन की मान्यताओं का ही समर्थन करती हैं। यह एक तथ्य और दर्शाती हैं कि ज्ञानार्जन, सत्साहित्य का पठन-मनन कभी व्यर्थ नहीं जाता। जितनी अवधि तक सार्थक जीवन जीना हो, मनुष्य को अपनी प्रसुप्त क्षमताओं को जमाने, प्रतिभा को खरादते रहने, स्वाध्यायशील ही बने रहने का प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयास क्रिया की प्रतिक्रिया की तरह सुनिश्चित प्रतिफल देता है।


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