मानवी गरिमा को व्यक्तित्ववान ही जीवित रख पायेंगे!

June 1989

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प्रगति की दिशा में पिछले दिनों बहुत कुछ हुआ है। विज्ञान, उद्योग, शिक्षा और कला के क्षेत्र में इतनी अधिक उपलब्धियाँ हस्तगत की जा चुकी हैं कि उन पर गर्व किया जा सकता है। पाँच सौ वर्ष पूर्व का कोई व्यक्ति यदि कहीं जीवित हो और आकर आज की समृद्धि का अवलोकन करे तो उसे आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा।

अणुबमों और रासायनिक अस्त्रों, मिसाइलों के माध्यम से एक मनचला व्यक्ति क्षणभर में संसार का विनाश कर सकता है। उपग्रह सौर मण्डलों को खोजने के उपरान्त अब अन्तर्ग्रही उड़ानों पर निकल रहे हैं और ब्रह्माण्डव्यापी सभी प्रकृति रहस्यों को खोज निकालने के प्रयत्न चल रहे हैं। समुद्र की गहराई और आकाश की ऊँचाई कोई ऐसी समस्या नहीं है जहाँ तक मनुष्य की पहुँच न हो सके। आविष्कारों का नित नया उद्घाटन हो रहा है। लगता है कि मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि बनने तक संतुष्ट न रह कर सर्वशक्तिमान पद पाने के लिए आतुर है एवं उसी आकाँक्षा से सरंजामों को जुटा रहा है।

इस एक सदी के अन्दर समृद्धि का असाधारण उत्पादन हुआ है। भले ही वह मुट्ठीभर लोगों तक सीमित क्यों न हो? किलों, महलों, कोठियों, बंगलों के साथ जुड़े हुए वैभव को देखकर प्रतीत होता है कि सम्पदा कुबेर के घर से चलकर धरती पर आ गई है, भले ही उसका उपयोग मुट्ठी भर लोग ही क्यों न कर पा रहें हों? कला के सभी पक्ष पशु प्रवृत्तियाँ भड़काने वाले प्रयोजनों की सेवा नौकरी करने में लग गये हैं। प्रेस ने साहित्य तो सृजा है पर ऐसा नहीं जिसको पढ़कर पाठक की अन्तरात्मा आदर्शों को अपनाने के लिए मचले। लोकरंजन के अनेकानेक साधन विकसित हुए हैं, पर उनमें वह जीवट देखने में नहीं आती जो साथ-साथ लोक मंगल का प्रयोजन भी पूरा करे। जन साधारण को लोकतंत्र में प्रतिपादित मौलिक अधिकारों का लाभ तो मिला है पर उनका उपयोग अवाँछनीय स्वेच्छाचार में प्रमुख रूप से हो रहा है।

इन शताब्दियों की भौतिक प्रगति से तो इनकार नहीं किया जा सकता, पर चिन्ता का प्रधान विषय यह है कि ऐसे व्यक्तियों का निर्माण नहीं हो रहा है; जो प्रगति के साथ साथ उपलब्धियों का सदुपयोग कर पाते? यह एक ऐसा कठिन प्रश्न सामने है, जिसके बिना जो कुछ कमाया पाया गया है वह सब कुछ बेकार हो जाता है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष हो जाता है। धन का दुरुपयोग मनुष्य की वासना, विलासिता और अहमन्यता के अभिवर्धन में ही सहायक होता है। बढ़ी हुई तृष्णा सामर्थ्य को अनाचार स्तर के कार्य करने के लिए प्रेरित कर रही है। विज्ञान ने विकसित आयुधों द्वारा विश्व विनाश का खतरा उत्पन्न कर दिया है। बढ़ती बुद्धिमत्ता प्रत्यक्षवाद की पक्षधर होती चली जा रही है और उसे तात्कालिक लाभ ही सब कुछ दीखता है। भले ही कुछ समय उपरान्त उसके भयावह दुष्परिणाम भुगतने पड़ें। प्रचलनों ने एक से दूसरे को अधिक संकीर्ण-स्वार्थी बनने में प्रतिस्पर्धा करने के लिए प्रेरित किया है। माँसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति से पशु पक्षियों की जान पर बन आई है। कामुकता का उन्माद इस स्तर तक बढ़ चला है कि नर नारी के बीच सदाचरण का सेतु बाँधे रहने वाली शालीनता का तिरोधान ही होता जा रहा है। यही है वह विकृति जिसने प्रजनन के बाहुल्य का संकट खड़ा किया है और धरती ने बढ़ती जनसंख्या का भार वहन करने से इनकार कर दिया है। प्रजनन विकार अगले दिनों अणुबमों के विस्फोट से अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रकार की अगणित विभीषिकायें आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में बढ़ रही हैं। फलतः भ्रष्टाचार सर्वत्र उपस्थित शैतान की तरह अपनी पतन पराभव से जुड़ी हुई भयंकरता का परिचय दे रहा है। वह आर्थिक क्षेत्र तक सीमित न रह कर सामाजिक, पारिवारिक व्यक्तिगत क्षेत्रों को भी घेरता चला आ रहा है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार के सभी क्षेत्रों पर उसका प्रभाव और दबाव बढ़ रहा है।

तथाकथित प्रगति के प्रत्यक्ष लाभों की तुलना में वे विनाशकारी दुष्प्रवृत्तियाँ कहीं अधिक भयावह हैं जो मानवी गरिमा के स्तर को बुरी तरह गिराने में लगी हुई हैं। पतनोन्मुख व्यक्ति या समुदाय अपने आप में खोखला बनता है विनाश के गर्त में तेजी से गिरता है। अधिक साधन मिलने पर यह उपक्रम और भी अधिक तेज हो जाता है। अशिक्षित और अनगढ़ व्यक्ति जितनी हानि पहुँचा सकता है उसकी तुलना में अधिक योग्य, अधिक शिक्षित, अधिक सम्पन्न व्यक्ति अपेक्षाकृत कहीं अधिक विनाश लीलायें रचा कर खड़ी कर सकता है। कर भी रहा है।

साधनों की वृद्धि प्रसन्नतादायक और सुख शान्ति के सम्वर्धन में सहायक तभी हो सकती है, जब उपलब्धियों का सदुपयोग बन पड़े। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों में शालीनता का समुचित सम्पुट भी लगा रहे, अन्यथा वह प्रगति अवगति से भी महँगी पड़ेगी जो अनैतिक लोगों द्वारा अवाँछनीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त की जाने लगे। माचिस की उपयोगिता सर्वविदित है पर यदि कोई उद्धत व्यक्ति उसे खिलवाड़ का साधन बना कर घर की वस्तुओं को जलाने में प्रयुक्त करने लगे तो अपना घर ही नहीं, पड़ोस से लेकर समूचा गाँव अतिवायु से भस्म हो सकता है। अस्तु साधनों के उपार्जन के साथ साथ यह अंकुश भी रहना ही चाहिए कि उपलब्धियों का मात्र सदुपयोग भी बन पड़े।

सुदपयोग मात्र सज्जनों से ही बन पड़ता है। उत्कृष्ट चरित्र और सुसंस्कृत व्यक्ति ही साधनों का सदुपयोग कर सकते हैं। गये गुजरे लोग तो पतन ही सोचते और विनाश की ही संरचना करते हैं। जितने अधिक साधन उनके पास होते हैं, उसी अनुपात में उनका अनाचार भी बढ़ता जाता है।

तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि व्यक्तियों में सुसंस्कारी शालीनता का समावेश उससे भी आवश्यक है जितना कि सम्पदा और योग्यता का अभिवर्धन है।

इन दिनों कारखानों और योजनाओं को बनाने में मूर्धन्य लोगों की क्षमता एकात्म भाव से जुड़ी हुई है। उन्हें इसी में समाज की भलाई दीखती है। इस आवेश में यह भुला दिया जा रहा है कि चरित्रवान आदर्शवादियों का अभिवर्धन भी आवश्यक है जिनके सहारे सौंपे हुए कार्य ईमानदारी और तत्परता के साथ सम्पन्न किये जा सकें। अन्यथा कैसी ही अच्छी मशीन या योजना क्यों न हो, गये गुजरे लोग प्रमाद ही बरतेंगे, उनमें से व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि के उपाय ही सोचेंगे, कारखाने बनें, पर उन्हें चलाने के लिए प्रखर प्रतिभायें भी तो चाहिए। बन्दूक कैसी ही अच्छी क्यों न हो पर चलाने वाला अभ्यस्त नहीं है तो उसका प्रयोग अनर्थकारी ही होगा। इंजन कितना ही कीमती क्यों न हो, ड्राइवर की उच्छृंखलता उस गाड़ी में लदे सामान और बैठे मुसाफिरों के लिए संकट बन कर ही रहेगी। साधनों की अभिवृद्धि कुछ समय के लिए रोकी भी जा सकती है किन्तु प्रामाणिक व्यक्तियों के निर्माण की आवश्यकता ऐसी है जिसे प्रमुखता प्राथमिकता ही मिलनी चाहिए। समझा और समझाया जाना चाहिए कि साधनों की प्रगति वास्तविक प्रगति नहीं है। निष्ठावान व्यक्ति तो कम साधनों में भी हँसते हँसाते गुजर कर लेते हैं पर उद्दण्डता और अनगढ़ता बनी रहने पर विपुल साधन भी मात्र विग्रह अनाचार और विनाश के ही सरंजाम जुटाती हैं। साधनों की प्रगति में उत्साह दिखाये जाने में हर्ज नहीं पर व्यक्तित्व को घटिया रहने देना उस तथा कथित प्रगति पर पानी फेरना ही हो सकता है।


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