ईश्वर एक बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता का नाम

August 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जे.एस.मिल. लाँग एवं हक्सले आदि विद्वज्जनों ने सृष्टि में अनेकानेक प्रकार की त्रुटियाँ गिनाते हुए कहा है कि यदि कोई इसका सृजेता है, तो निश्चय ही वह निर्दयी, अज्ञानी है। अनेकानेक अवगुणों से युक्त है। उनका कहना है कि यदि सृष्टिकर्ता कोई बुद्धिमान प्राणी होता तो निस्संदेह उसकी रचना त्रुटिहीन होती; पर देखने-सुनने में ऐसा कहाँ प्रतीत है? आये दिन उसकी कोई न कोई कमी उजागर होती रहती है। ऐसा इन नास्तिकों का अभिमत है।

जो ऐसा सोचते हैं, वस्तुतः भारी भूल करते हैं। ईश्वर की सृष्टि न तो अपूर्ण है, न त्रुटियुक्त। वास्तव में इस संसार में उसकी अपने प्रकार की व्यवस्था है। उसी के हिसाब से उसने हर प्रकार की रचनाएं उत्पन्न की हैं। इसमें जो हमें दोष नजर आते हैं, सही अर्थों में न तो वह दोष हैं, न रचनाकार की अयोग्यता। यदि उसकी कोई कृति हमें दोषपूर्ण दीखती भी है, तो आवश्यक है, उसे त्रुटि कैसे कहा जा सकता है? उदाहरण के लिए जर्मन दार्शनिक प्रो. हेल्महोल्ज की शिकायत है कि मनुष्य को जो दृष्टि मिली है, उसमें अन्यान्य प्रकार की कमियों के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण कमी यह है कि उसकी दृष्टि सामर्थ्य अत्यन्त न्यून है। इस प्रसंग पर विचार करने से पूर्व उस बालक पर विचार करना उपयुक्त होगा, जो सामने के बगीचे का दृश्यावलोकन करने के लिए दूरबीन की माँग करता है। पिता उसे .... वाली एक रुपये की दूरबीन लाकर दे देता है। इतने से ही प्रसन्न होकर वह खेलता व तरह-तरह के दृश्य निहार कर खुश होता रहता है। उसकी आवश्यकता पूर्ति इतने से ही हो जाती है। जब बाजार में बिकने वाले खिलौने से ही बालक का कम चल जा रहा है, जो पिता के लिए उसे महंगा दूरबीन देने की कोई ...., ....। उसे देने से तो उल्टे पिता की विवेक-हीनता ही सिद्ध होगी; क्योंकि बालक न तो इसका सदुपयोग कर पायेगा, न इसके कीमती होने का अनुमान लगा पायेगा। अस्तु ऐसी स्थिति में वह इसका भी खिलौने की भाँति ही प्रयोग करेगा और तोड़-मरोड़ कर रख देगा। अतः विवेक यही कहता है कि बालक को जिस स्तर की दूरबीन की आवश्यकता है, उसे उसी स्तर की दी जाय। इसी में पिता की बुद्धिमानी है। इस दृष्टि से मनुष्य को जो आंखें मिली हैं, उस आधार पर ईश्वर को न तो अज्ञानी ठहराया जा सकता है, और न अविवेकी ही। अज्ञानी-अविवेकी तो वह तब कहलाता, जब मनुष्य को आवश्यकतानुरूप दृष्टि ने मिली होती, किन्तु हम देखते हैं कि जो भी दृष्टि-सीमा हमें मिली हुई है, उसी से बिना किसी कठिनाई के भली-भाँति अपना क्रिया-व्यापार चलाते रहते हैं। ऐसा भी नहीं कि परमसत्ता इससे अधिक दृश्य-सामर्थ्य दे ही नहीं सकती। यदि ऐसी बात होती हो उतुँग आकाश में मँडराने वाले चील-गिद्धों को दूरदृष्टि न मिली होती। जन्तुओं में भी कितने ही ऐसे जन्तु हैं, जिन्हें विशेष स्तर की अवलोकन-क्षमता प्राप्त हे। बिल्ली, शेर जैसे जानवर रात और दिन दोनों ही स्थितियों में दृष्टि संबंधी समान प्रकार की क्षमता प्रदर्शित करते हैं। उलूक वस्तुओं को रात में उसी विशिष्टता से देख-समझ सकता है। जितना कोई अन्य जन्तु दिन में। उकाब की आँखें इतनी तीक्ष्ण होती हैं, कि जितनी दूर तक दूरबीन के सहारे भी नहीं देख सकते, उतनी दूरी वह अपनी आँखों से स्पष्टतापूर्वक देख सकता है।

इन सब पर विचार करने से ऐसा लगता है, कि परमेश्वर ने सोच-समझ कर ही हमें यह दृष्टि सामर्थ्य ही है; क्योंकि उसमें अधिक भी देने की क्षमता है और कम भी। वह अधिक दृश्य सामर्थ्य भी दे सकता था और अल्प भी। दूरदृष्टि का मनुष्य जीवन में कोई महत्व है नहीं और अल्प दृष्टि से उसका काम चल नहीं सकता। इसी कारण उसने मध्यम दृष्टि का समावेश मनुष्य में किया जिससे मनुष्य अपना सारा कार्य सुगमतापूर्वक सम्पादित करता रहता है। किसी प्रकार की कठिनाई इससे प्रस्तुत नहीं होती। इस प्रकार स्रष्टा पर लगाया गया यह आक्षेप कि मनुष्य को, इस संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने के नाते दृष्टि भी श्रेष्ठ मिलनी चाहिए, निरस्त हो जाता है।

इतना ही नहीं, अन्य अनेक क्षेत्रों में विचार करने से भी मनुष्य मानवेत्तर प्राणियों से पिछड़ा हुआ ही प्रतीत होता है। कितने ही जन्तुओं में गंध ग्रहण करने की अद्भुत सामर्थ्य होती है। कुत्तों के बारे में सर्वविदित है कि वह इसी आधार पर अपराधी को ढूंढ़ निकालता है। हिरन गंध के आधार पर ही अपने-अपने क्षेत्र की पहचान बनाये रहते हैं। पक्षियों में दिशा ज्ञान की विलक्षण क्षमता होती है। वह वहां में उड़ सकते हैं। मछलियाँ तथा अन्य जलीय जीव पानी में निवास कर सकते हैं। साँप अपनी त्वचा से सुनते हैं। इस पर कोई यह कहे हि चूँकि मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि है, अतः इन सभी विशिष्टताओं का समावेश उसमें होना चाहिए था, यह पक्षपातपूर्ण होगा। कोई सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी है, मात्र इसलिए उसमें सारी श्रेष्ठ क्षमताएँ होनी चाहिए, ऐसा नहीं कहा जा सकता जिसकी जिसमें आवश्यकता ही नहीं, उसे प्रदान करने से तो सृजेता की नासमझी ही साबित होती। मनुष्य को यदि गंध संबंधी विशिष्ट स्तर की सामर्थ्य मिल भी जाती, तो उसका वह क्या करता? कुत्तों-हिरनों में तो इसे इसलिए दिया गया, ताकि भोजन ढूंढ़ने में सुगमता हो और शत्रु से अपनी सुरक्षा का उपाय समय रहते ही ढूंढ़ पायें। मानव में इन दोनों समस्याओं के हल के रूप में हाथ-पैर जैसे वैकल्पिक अंग दिये गये है। इनसे वह भोजन जुटाने और आत्मरक्षा करने के दोनों काम समाज दक्षता से कर सकता है। फिर इसी काम के लिए किसी अधिक उच्चस्तरीय व्यवस्था का कोई औचित्य रह नहीं जाता।

इस तरह ईश्वरीय सत्ता की क्षमता-वितरण प्रक्रिया पर विचार करने पर जो एक बात सामने आती है, वह यह कि सृष्टि रचना के समय उसने उपयोगितावाद पर निश्चय ही ध्यान दिया होगा और विवेकपूर्वक यह विचार किया होगा कि किस जन्तु में किस अंग की कितनी उपयोगिता होगी। बाद में इसी आधार पर विभिन्न जन्तुओं की विभिन्न इन्द्रियों में भिन्न स्तर की क्षमताओं का समावेश किया होगा। वस्तुतः यह परम सत्ता की न्याय बुद्धि का परिचायक है।

कुछ लोग सृष्टि में चलने वाले जन्म-मृत्यु के चक्र को दोषपूर्ण बताते हैं और इसे रचयिता का अज्ञान प्रदर्शित करने वाली क्रिया की नृशंसता कह कर संबोधित करते हैं।

ऐसा समझने वाले पहली भूल तो यह करते हैं कि वे सृष्टि को नित्य समझ बैठे हैं। वस्तुतः सृष्टि किसी समर्थ सत्ता की अनित्य रचना है। जो अनित्य है, उसके प्राणी नित्य कैसे हो सकते हैं? जो बना है, उसका बिगड़ना सुनिश्चित है। जिसका निर्माण हुआ है उसका ना भी जरूरी हैं यदि संसार में यह व्यवस्था नहीं होती, तो कोई भी प्राणी अपने अनादि-अनन्त जीवन की एकरसता से जल्दी ही ऊब और असंतुष्ट हो जाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य से कोई काम होना तो दूर, जीवन ढोना भी भार भूत बन जाता। फिर वहाँ भी ईश्वर की इस व्यवस्था पर आक्षेप लगने आरंभ हो जाते कि आखिर उसने ऐसा संसार बनाया ही क्यों, जिसमें जीवन का आदि अन्त ही न हो। दूसरे असीम जीवन में किसी प्रकार का दुःख तकलीफ लगातार सह पाना उसके लिए कठिन हो जाता, यदि संसार-चक्र की व्यवस्था न होती। जन्म-मृत्यु की सृष्टि में तो वह अपने दुःखों से कुछ समय के लिए अवकाश पा लेता है और उस दौरान पुनः तरोताजा होकर इस स्थिति में आ जाता है कि दुबारा कठिन परिस्थिति का वह भली भाँति साहसपूर्वक सामना कर सके। यदि दुनिया में जीवन-मरण का प्रवाह


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118