अभूतपूर्व समय जिसे चूका न जाय

August 1989

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समय साधारण भी होते है और असाधारण भी। साधारण समय को जिस-तिस प्रकार काट लेना भी बहुत भारी नहीं पड़ता पर जब निर्णायक घड़ियाँ हों तो फैसला करने में अचकचाते रहना, असमंजस में अवसर गँवा देना बहुत भारी पड़ता है। समर्थ गुरु रामदास को विवाह मंडप में जब ‘सावधान’ कहा गया तो उनने उस संकेत को कप्तान के अनुशासन की तरह शिरोधार्य किया और ऐसे घटनाक्रम से बच गये जिसमें पड़ने के उपरान्त वे कोल्हू का बैल बने रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते थे। बाहरी संकेत को अन्तरात्मा ने गंभीरतापूर्वक अपना लिया तो वे वह बन गये, जिसका स्वरूप राष्ट्र उद्धारक के रूप में अनादिकाल तक स्मरण किया जाता रहेगा। शंकराचार्य, विवेकानन्द, दयानन्द, विनोबा आदि ने भी अपना लक्ष्य निर्धारित करने में वर्षों का समय नहीं गँवाया था। ईसा सच ही कहते थे कि -”महानता अपनाने के लिए बायाँ हाथ सक्रिय हो तो उसी से पकड़ लें। ऐसा न हो कि दाहिना हाथ सँभलने की थोड़ी सी अवधि में ही शैतान बहकाले और जो सुयोग बन पड़ रहा था वह सदा-सदा के लिए अपनी राह चला जाय।”

प्रसव काल की लापरवाही जच्चा और बच्चा दोनों के प्राण हरण कर सकती है। मोटर दुर्घटनाओं में भी ड्राइवर की तनिक सी असावधानी गजब ढा देती है। निशाना साधने वाले का हाथ जरा-सा हिल जाय तो तीर कहीं से कहीं चला जायेगा। मनुष्य जीवन ऐसा ही अलभ्य अवसर है। यह किसके पास कितने दिन ठहरेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।

यह युग संधि की बेला है। बीसवीं सदी विदा हो रही है और इक्कीसवीं सदी का प्रभात पर्व की तरह अरुणोदय हो रहा है। संध्याकाल की महिमा सर्वत्र असाधारण बतलाई गई है। चिड़िया तक उसका स्वागत करने में चहचहाने का स्वागत गान गाने में चूकती नहीं। हर जीवन्त प्राणी अपने-अपने ढंग की क्रियाशीलता अपना लेता है। रात का अँधेरा हटते-हटते हर किसी को कोई अदृश्य संदेशवाहक झकझोर कर उठा देता है। निष्क्रियता को सक्रियता में बदलते देर नहीं लगती। सूर्योदय की भाँति ही सूर्यास्त का समय भी असाधारण हलचलों से भरापूरा होता है। पशु-पक्षी तक अपने विश्राम स्थलों को लौट जाते हैं। कार्यरत व्यक्ति नींद भर सोने की व्यवस्था बनाते हैं। प्रकृति की शोभा दोनों ही अवसरों पर देखते बन पड़ती है। यह समय पूजा-अर्चना के लिए विचारवानों ने अनादिकाल से निर्धारित किया हुआ है।

युगसंधि का अवसर असाधारण है। ऐसे ही अवसर पर मेघ गहराते और पेड़-पौधे एक बसन्ती परिधान ओढ़कर सजते हैं। जन्म का आरंभ और मरण का समापन भी कुछ विचित्र प्रकार का माहौल बनाते और नई तरह के संवेदन उभारते हैं। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ है जीवन्तों को कुछ ऐसे निर्णय करने पड़ते हैं जो उनकी गरिमा के अनुरूप हों।

इन दिनों स्रष्टा की अदम्य और प्रचण्ड अभिलाषा एक ही है कि सड़ी दुनिया को बदलने में उसके लिए काया कल्प जैसा नया सुयोग बनाया जाय। यही है “इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य”। यही है मनुष्य में देवत्व का उदय एवं प्रतिभा परिष्कार का महा अभियान। इसी को लोक विचार क्राँति की लालमशाल का प्रज्वलन भी कहते हैं। इस दैवी उत्कंठा की पूर्ति में जो जितना सहायक बनेंगे, वे उतना ही अपने को समग्ररूप से कृतकृत्य हुआ अनुभव करेंगे।


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