प्रामाणिकता और प्रखरता ही सर्वत्र अभीष्ट

August 1989

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दार्शनिक उतार चढ़ावों के परिप्रेक्ष्य में श्रेय लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कई सुझाव सुझाये और मार्ग बताये गये हैं। ईश्वर दर्शन, आत्मोद्धार, स्वर्ग-मुक्ति सिद्धि, देवाराधन से मनोकामनाओं की पूर्ति कर्मकाण्डों की चमत्कारी शक्ति, तीर्थ यात्रा की पुण्य परिणति आदि की चर्चाएँ भी होती रही हैं और प्रयोग अभ्यर्थनाएं भी। उनकी उपयोगिता अनुपयोगिता पर प्रकाश डालना यहाँ समीचीन न होगा। सामयिक विचार मंथन का निष्कर्ष एक ही है कि हम सब भ्रान्तियों के युग में रह रहे हैं और मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादा परिपालन में भटक गये हैं। सुधार इन दोनों का ही बन पड़े तो समझना चाहिए उस उपाय का अवलम्बन मिल गया जो युग समस्याओं का समाधान कर सकने में पूरी तरह समर्थ है।

भव बंधनों में बाँधने वाली तीन जंजीरें प्रख्यात हैं। उनका उल्लेख कहीं लोभ, मोह, अहंकार के रूप में किया गया है। कहीं इनकी गणना तृष्णा, वासना, और अहंता के साथ में कराई गई है। दोनों ही प्रतिपादन एक ही तथ्य को अलग अलग शब्दों में व्यक्त करते हैं। लालची को आवश्यक अनावश्यक धन बटोरने की ललक चढ़ी रहती है। इसके लिए वह अनाचार तक करता है और उसके प्रभाव से खिंचते चले आने वाले दुर्व्यसनों का शिकार बनता है। जिसमें लौकिक और परलौकिक दोनों ही स्तर के चित्र विचित्र अनर्थ खड़े होते हैं।

औसत नागरिक स्तर का निर्वाह किसी के लिए कठिन नहीं है। वह कुछ ही घंटों के परिश्रम से जुट जाता है और शेष समय का सदुपयोग पुण्य परमार्थ जैसे दिव्य प्रयोजनों में ही हो सकता है। इसी प्रकार दूसरा भव बंधन है- मोह। जिसका तात्पर्य है स्त्री बच्चों का आश्रित परिवार इतना बड़ा और भारी बना लेना जिसका भार वहन निरन्तर जुते रहने पर ही किसी प्रकार पूरा हो सके। ऐसे लोग मनोरंजन के रूप में ही कुछ परमार्थ कर सकते हैं। पति-पत्नी तभी एक और एक मिल कर ग्यारह बनते हैं जब वे उच्च उद्देश्यों के लिए एक दूसरे के सहयोगी बनते हैं। संतान के दायित्व नहीं के बराबर दीखते हैं। अन्यथा उनका निर्वाह और अमीर बनने का मंसूबा जीवन तत्व का सारा रस निचोड़ लेता हैं परिवार के अन्य सदस्यों की सेवा सहायता करने से विमुख होकर जब अपने निज के बच्चे बढ़ाते चलने का व्यामोह जंजीरों में पकड़ ले तब उसे मोह कहते है। वासना का प्रतिफल भी यह विषफल हैं। सन्तान रहित विवाहों में तो परमार्थ के लिए थोड़ी गुंजाइश भी रहती है। पर जब यह आकर्षण बढ़ता जाता है तो श्रम का नियोजन और मनोयोग उसी प्रयोजन में खप जाता है। यदि परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी भर बनाने तक का लक्ष्य सीमित रखा जाय, उस पर बड़प्पन थोपना अनिवार्य न समझा जाय तो विवाह बंधन नहीं बनता और न वह भार बन कर सिर पर लदता है। जहाँ एक मन और लक्ष्य के दो साथी मिल जायँ वहाँ एक और एक अक्षरों को समानान्तर रखने पर वे ग्यारह हो जाते हैं। यदि प्रतिकूल दृष्टिकोण हो तो एक में से एक घटा देने पर शून्य ही बचा रहता हैं जो भी हो जिस प्रकार लोक सेवियों के लिए निर्वाह व्यय में कटौती करना संभव है वहाँ यह भी उचित है कि परिवार के उद्यान में रहकर दायित्वों के निर्वाह की शिक्षा तो प्राप्त करें पर उसे हथकड़ी बेड़ी की तरह इतना कठोर न बना लें कि उसके अतिरिक्त और कुछ सोचना या करना ही न बन पड़े।

संग्रहित सम्पत्ति को बेचकर बैंक में डाल देने से भी उसका ब्याज पाने की कितने ही लोग व्यवस्था बना लेते हैं कि घर खर्च आसानी से चल सके। पूर्वकाल में घर में अन्य कमाऊ लोग परिवार का एक सदस्य परमार्थ के लिए समर्पित करके अपनी गौरव भी परम्परा चलाते रहते थे। सतयुग के ब्राह्मण परिवारों में से एक सदस्य परिव्राजक की तरह भ्रमण शील सेवा साधना में निरत रहता था। आज भी चिन्तन को थोड़ा झकझोरा जा सके तो वैसे पुनरावर्तन की व्यवस्था फिर नये सिरे से बन सकती है और रिटायर्ड व्यक्तियों, ब्रह्मचारियों, विधवाओं, विधुरों, परित्यक्ताओं का एक बड़ा समूह पारिवारिक लदान से लदा होने का बहाना ढूंढ़ने से बच सकता है। प्राचीनकाल में लोक सेवियों को विशेषतया चिन्तन और चरित्र के क्षेत्र में भाव परक उत्कृष्टता भरने वाले अध्यात्म प्रयास में निरत रहते देखा जाता था और देश की मान मर्यादा को उच्च शिखर पर बनाये रखने का श्रेय सम्पादित करता रहता था। इन दिनों आदर्शवादी आकाँक्षाओं में बुरी तरह गिरावट आई है। अपनी जीवनचर्या से दूसरों को कारगर प्रकाश दे सकने वाले प्राणवान ढूंढ़े नहीं मिलते। बकवादी तो पहले से भी अधिक बढ़ गये हैं जो कथनी और करनी में भारी अन्तर रहने के कारण गंदगी बखेरते और अश्रद्धा का वातावरण बनाते देखे जाते हैं।

तीसरा व्यवधान है - अहंकार। समान स्तर के सज्जन व्यक्ति को अपना आपा नम्रता से भरा पूरा रखना चाहिए और दूसरों के साथ व्यवहार वार्तालाप इस स्तर का करना चाहिए जिसमें आदर सम्मान की भावना छलकती हो। अच्छे संबंध बनाये रखने का, अपने को समीपता देने का, अवसर इसके बिना मिलता ही नहीं। अहंकारियों का अनाचरण ठीक इसका उलटा होता है। वे अपने बड़प्पन का ढिंढोरा पीटते हैं। चर्चा में भी प्रायः उसी का बखान करते हैं। दूसरों की कमियाँ बता कर अपने को उन सबसे श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जिससे भी संपर्क साधा गया है वह अपने को तिरस्कृत किया जा रहा अनुभव करता है और कहने वाले को अहंकार के दुर्गुण से घिरा हुआ मान लेता है। ऐसे लोग किसी का सच्चा स्नेह सम्मान भी नहीं पा सकते। उल्लू सीधा करने वाले चापलूसों के अतिरिक्त और कोई न तो सच्चा मित्र होता है और न आड़े समय में काम आता है। ऐसी दशा में उसके परामर्शों प्रतिपादनों में बहुत कुछ औचित्य होते हुए भी व्यक्तिगत संबंधों में गांठ पड़ जाने पर जो उचित है उसे भी स्वीकार करने में आना-कानी करता है। इसलिए अखबारों में नाम फोटो छपवाने के लिए अपने को कोई बड़ा पदाधिकारी के रूप में प्रस्तुत करने के लिए लालायित व्यक्ति ओछे समझे जाते हैं और असहयोग के भाजन बनते हैं। देखा गया है कि अच्छी संस्थाओं में भी उनके साथ महत्वाकाँक्षी बड़प्पन पाने के लिए लालायित लोग ही अनेकों विग्रह खड़े करते हैं। विद्वेष के बीज बोते, पार्टियाँ बनाते और अन्ततः उस संगठन को ही बरबाद कर देते हैं।

युग साधना के लिए अवकाश पाने के लिए लोभ, मोह और अहंकार को जितना अधिक घटाया जा सकेगा उतना ही स्तर इस योग्य बनता जायेगा कि लोग सच्चे मन से आदर भाव रखें और उनके द्वारा दिये गये परामर्श में अपना हित साधन समझें तथा स्वीकार करें।

इस समूचे प्रतिपादन का तात्पर्य एक ही है कि लोक सेवा के क्षेत्र में पदार्पण करने वाले को उपयुक्त बनाने से पूर्व अपने को उन दोष दुर्गुणों से निवृत्त कर लेना चाहिए जो सर्व साधारण तक के लिए अहितकर हैं। फिर जो पुरोहित स्तर का देवमानव बनना चाहता है उसके लिए तो यह किए प्रकार से अनिवार्य ही है कि मार्गदर्शक कहलाने से पूर्व उस मार्ग का स्वयं तो अभ्यास कर ही ले जिस पर चलने वाला अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा उठता है।

इन दिनों सेवा क्षेत्र में करने योग्य तो अनेकानेक क्रिया-कलाप हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा सम्पन्नता के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना है। सुविधा संवर्धन के साधन जुटाना भी आवश्यकता है। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति उत्कृष्ट चिन्तन का अभ्यासी बनाने के साथ साथ अपनी समस्याओं का अपने बलबूते स्वयमेव हल खोज सके। अपने बलबूते स्वावलम्बी बन सके। स्थायित्व इसी में है। अन्यथा दूसरों के साधन अनुदानों का आसरा तकते तकते आन्तरिक दृष्टि से भी दीन हीन बन बैठेगा और देवताओं से लेकर श्रीमंतों शक्तिशालियों के सामने गिड़गिड़ा कर कुछ प्राप्त कर लेने की तरकीबें ढूँढ़ता रहेगा। दीनता हीनता की स्थिति अपना लेगा। स्वाभिमान और स्वावलम्बन की दृष्टि से यह अनुपयुक्त ही है।

गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता ही वास्तविक सशक्तता है। जिसके द्वारा व्यक्ति प्रामाणिक विश्वस्त एवं कर्तव्यपरायण समझा जाता है। जहाँ भी जाता है वहीं सम्मान पाता है और समर्थन-सहयोग का वातावरण सहज ही बनता दीख पड़ता है।

वानप्रस्थ में प्रवेश करने से पूर्व परमार्थ मार्ग पर चलने वालों को आरण्यक आश्रमों में रहकर आत्म साधना की तपश्चर्या करनी पड़ती है। साधु और ब्राह्मण भी कार्य क्षेत्र में उतरते हैं जब वे आत्म परिष्कार की कसौटी पर खरे सिद्ध हो पाते हैं। इस प्रकार की आध्यात्मिक सम्पदा में जहाँ ईश्वर भक्ति का, जप-तप का, विधान है वहाँ उससे भी पूर्व यम नियमों के दस अनुशासन पालन करते हुए इस स्तर की तैयारी करने का विधान है, जिसमें मानवोचित सामान्य गुणों से आग बढ़ कर देवोपम पद ता जा पहुँचने का निर्धारण है। ऐसे लोगों को लोभ, मोह की लिप्सा-लालसा में कटौती करके सेवा साधना के उपयुक्त निरहंकारिता को स्वभाव के हर कण में सम्मिलित करना चाहिए। अहंकारी यश लोलुप और अपना वर्चस्व बढ़ाते रहने के लिए लालायित व्यक्ति सेवा साधना के उस उच्च पद के अधिकारी ही बने रहते हैं। जिन्हें अनायास ही सर्व साधारण का विश्वास और सहयोग प्राप्त होते रहना चाहिए।

इक्कीसवीं सदी के अवतरण में भगीरथ जैसे तपस्वी व्यक्तियों की आवश्यकता है। ऐसे तपस्वी जो मानवी सद्गुणों अभ्यास करने के उपरान्त देवोपम विशेषता के क्षेत्र में प्रवेश पा चुका हो। जो दूसरों के अवगुणों पर जीत पा लेता है, वह ‘वीर’ कहलाता है पर इससे भी अगली श्रेणी का ‘महावीर’ वह है जिसने अपने आप को जीत लिया। ऐसे महामानव ही हनुमान स्तर के रीति नीति अपनाने और आदर्शों के समुच्चय भगवान के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित रह कर जन जन की श्रद्धा के भाजन बनते हैं। दैवी अनुग्रह तो उन पर अजस्र रूप से बरसता ही है। यह धारणा ठीक है कि अपना पुरुषार्थ भी कम न था, पर उसे सफल बनाने के लिए अदृश्य लोक से जितने अनुदान बरसे उनका महत्व भी कम करके नहीं आँका जा सकता।

खरे सोने की ही पूरी कीमत उठती है भले ही उसे स्वर्ण विक्रेता की दुकान पर क्यों न ले जाया जाय। खोटे सिक्के पर जगह दुत्कारे जाते हैं, उनकी असलियत तो अंधा भिखारी भी अनुमान लगाने भर से जान लेता है। बड़े कामों के लिए बड़ी हस्तियाँ ही अभीष्ट होती हैं। इक्कीसवीं सदी के साथ एक से एक बढ़ कर वजनदार और महत्वपूर्ण कार्य जुड़े हुए हैं। उन्हें सम्पन्न करने के लिए मनोबल के धनी और चरित्र बल में मूर्धन्य स्तर के व्यक्ति ही चाहिए। तलाश उन्हीं की हो रही है। प्रतिभा परिष्कार का अभियान इसी दृष्टि से चलाया जा रहा है उस परिष्कार से तप कर निकले हुए व्यक्ति न केवल अपने में अग्रगामी वरिष्ठ जनों में गिने जाने योग्य बनेंगे, वरन दूसरों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, में भी अपनी विशिष्टता का परिचय दे सकेंगे। अगले दिनों ऐसे ही बहुमूल्य मणि मुक्तकों की आवश्यकता पड़ेगी। उनकी ढूँढ़ खोज करने के प्रयास इन्हीं दिनों अति तीव्र किये जाने की आवश्यकता है।


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