श्रद्धा संवर्धन से ही नाव पार लगेगी

August 1989

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चेतना की मन, बुद्धि चित्त, अहंकार चेतन-अवचेतन, सुपरचेतन आदि अनेक परतें हो सकती हैं। पर यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण है। मोटे तौर पर इन सबका समुच्चय “बुद्धि” के नाम से एक शब्द में भी प्रतिपादित किया जा सकता है। यह चेतना का व्यवहार में निरन्तर काम में आने वाला स्वरूप हैं।

“बुद्धि” एक प्रकार की तराजू है जो जिस पलड़े में अधिक वजन हो उसी की ओर झुक जाती है। आमतौर से लोभ, मोह,और अहंकार का उन्माद हर किसी पर छाया रहता है क्योंकि उसके आधार पर अधिक सुविधाएँ पाने, अहंता की अधिक तृप्ति होने का संयोग बनता है। प्रत्यक्ष में स्वार्थ सिद्धि ही सुखद प्रतीत होती है और उसमें से लाभ उठाने की रसास्वादन करने जैसी अनुभूति होती है। यही कारण है कि सामान्य बुद्धि जो कुछ सोचती है, निर्णय करती है और कर गुजरने का ताना-बाना बुनती है, उसके पीछे यही तथ्य काम करता है कि जो चाहा गया है, वही सरलतापूर्वक उपलब्ध हो। भले ही इसके लिए अधिकारों का अपहरण कर अनाचार बरतना पड़े तथाकथित बुद्धिमान यही करते देखे जाते हैं। बुद्धि के साथ ‘मान’ शब्द जुड़ा है। उससे स्पष्ट है कि बुद्धि + मन दोनों मिलकर बुद्धिमान बनते हैं। भ्रष्टाचार, षडयंत्र, विध्वंसकारी आविष्कार, वकीलों की दलीलें यही वर्ग अपनाता है।

इस स्थिति से निबटने का एक ही विकल्प है कि बुद्धि को भाव संवेदनाओं के साथ जोड़ा जाय, उसे हृदयपरायण बनाया जाय। इसी आस्था को श्रद्धा कहते हैं। इसी का दूसरा नाम भक्ति है, समर्पण है। सदाशयता का, शालीनता का, उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समुच्चय ही सद्भावना के नाम से जाना जाता है। इसी की पक्षधर होने पर विचारशक्ति को प्रज्ञा, मेधा, श्रद्धा आदि नामों से जाना जाता है। इस ओर बुद्धि को मोड़-मरोड़ देने की प्रक्रिया ही अध्यात्म साधना के नाम से जानी जाती है। इसी की प्रतिक्रिया व्यक्ति को निश्चिन्त प्रसन्न और प्रफुल्ल बनाती है। समीपवर्ती क्षेत्र में उसी की परिणति सज्जनता, सेवा साधना एवं धर्म धारणा के रूप में परिलक्षित होती है। मनुष्य अपने में स्नेह सौजन्य, सद्भाव और उदार शिष्टाचार बरतने लगे तो स्पष्ट है कि लोगों के बीच चलने वाला सद्व्यवहार ऐसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगा। जिससे तुष्टि, पुष्टि और शक्ति की कमी न रहे। समृद्धि और प्रगति का पथ प्रशस्त होता चले।

बुद्धि को भाव संवेदनाओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए। आत्मा संयम एवं पुण्य परमार्थ इसी आधार पर बन पड़ता है। बहिरंग जीवन में जो उत्कृष्टता दीख पड़ती है, उसका कारण अन्तरंग की श्रेष्ठता ही होता है। दृष्टिकोण, रुझान और निर्धारण यदि सदाशयता की दिशा अपनाले तो समझना चाहिए कि वह उच्च स्तर प्राप्त हुआ जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘भक्ति’ कहते हैं। श्रद्धा इसी का पर्यायवाचक है।

इन दिनों कोई अध्यात्म उपचारों की क्या व्याख्या करता है और उन्हें चरितार्थ करने के लिए क्या क्रिया कृत्य करता है, यह न विचारा जाय तो ही ठीक है। उलटी दिशा में चलने वालों का सोना भी यदि उलटा हो तो आश्चर्य क्या है? विडम्बनाओं और भ्रान्तियों के इस युग में श्रद्धा-भक्ति जैसी उच्चस्तरीय उपचारों के भी यदि दुर्दिन बने तो यही समझना चाहिए कि जब उलटा सोचने और उलटा करने का ही प्रचलन चल पड़ा है तो अध्यात्म तत्वज्ञान ही उससे अछूता कैसे रह सकता है? हमें लोक प्रवाह को नहीं वास्तविक तत्वदर्शन को महत्व देना और उसे ही अपनाना चाहिए।

तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के फर में प्रायः बुद्धि उसी ओर झुकती है जिसमें तात्कालिक स्वार्थ की सिद्धि होती है। वकील अपने क्लाइण्ट के पक्ष में ही दलीलें देता और उसी को सही सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। भले ही वास्तविकता विपरीत ही क्यों न हो? बुद्धि के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। उसने इन दिनों अपने प्रतिपक्षी न्याय और प्रेम के प्रतिकूल इतने तर्क खोज निकाले हैं जिनके आधार पर यही प्रतीत होता है कि तात्कालिक लाभ जितनी जल्दी एवं जिस भी प्रकार उठाता जा सके, उसे उठाते में चूकना नहीं चाहिए। लोक चिन्तन का प्रवाह प्रायः इसी दिशा में बह रहा है और उसकी प्रतिक्रिया अनेकानेक अनर्थों के रूप में सामने आ रही है। हर अपराध कर्मी अपने कृत्यों के पक्ष में इतनी दलीलें और साक्षियां प्रस्तुत करता है कि साधारण सोच वाले को यही ठीक लगता है कि तत्काल लाभ को प्रधानता देने वाला बुद्धिपरक प्रतिपादन ही सही है। भ्रान्तियाँ इसी आधार पर पनपती हैं। अवांछनियताएं इसी रीति से बन पड़ती है फलतः व्यक्तिगत रूप में असंतोष भरी अशाँति की बाढ़ आती है। सामूहिक जीवन में इस निर्धारण के आधार पर चित्र-विचित्र स्तर के अनाचार बन पड़ते हैं। भ्रष्ट चिन्तन का परिणाम दुष्ट आचरण के रूप में ही परिलक्षित होता है।

घड़ी का पेंडुलम एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचने के उपरान्त फिर वापस लौटता है। वर्तमान सर्वव्यापी विक्षोभ से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य को क्या करना होगा? इस संदर्भ में एक ही विकल्प अब सामने हे कि बुद्धि को शिखर से लौटकर भक्ति की ओर मुड़ने के लिए विवश किया जय। भाव संवेदनाओं के साथ जुड़ी उत्कृष्टताओं का महत्व समझने और समझाने का प्रयत्न किया जाय। नीचे गिरते चलने के उपक्रम पर ब्रेक लगाया जाय और दिशा परिवर्तन कर यह प्रयास किया जाय कि उस उत्कृष्टता को फिर से उपलब्ध किया जाय जिसके साथ कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना सुनिश्चित रूप से जुड़ी हुई है।

साधनों, प्रतिभा व बुद्धि से जुड़ी विनाशलीला देखी जा चुकी। चैन किसी को नहीं है, शान्ति किसी को नहीं है। अगले दिनों के संबंध में निश्चिन्तता किसी को नहीं है। ऐसी दशा में वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रति किसी को भी ऐसी आशा या सहानुभूति नहीं कि वे शान्ति, सुरक्षा व प्रसन्नता का माहौल बना सकेंगी। चले ही वे अगले दिनों कितनी ही बढ़ी चढ़ी सम्पदा या सुविधा के रूप में ही प्रस्तुत परिलक्षित क्यों न हो?

सच्चा आनन्द भावनाओं में है। संतोष भी, सहयोग भी। सद्भाव ही परस्पर स्नेह सौजन्य का उद्भव करते हैं। उत्कृष्टता के प्रति उभरी हुई श्रद्धा ही, भावनाओं को तरंगित करती है और उसी के सहारे ऐसा कुछ सोचते करते बन पड़ता है जिससे स्वल्प साधनों में भी असीम आनन्द अनुभव किया जा सके। न्याय और नीति तक ही सीमित न रहकर जहाँ उदारता, सेवा और आत्मीयता का उद्भव होता है, वहाँ पारस्परिक सहयोग तो सघन होता ही है, आन्तरिक उल्लास की भी कमी चली रहती।

विज्ञजनों का यही अभिमत है कि स्वल्प साधनों का सदुपयोग भी आवश्यकता पूरी करने, शान्ति और प्रगति का माहौल बनाये रहने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं। शर्त एक ही है कि व्यक्ति भाव संवेदनाओं का महत्व समझे, उन्हें अपनाये, बढ़ाये और ऐसा वातावरण उत्पन्न करे जिससे आत्मीयता विकसित होती हो, लेने की अपेक्षा देने में आनन्द अनुभव होता हो। ऐसी भाव श्रद्धा का संवर्धन ही ऐसी सद्बुद्धि का विकास करेगा जो विश्व शान्ति का चिरस्थायी आधार बन सके। आने वाला समय निश्चित ही भक्ति युग का होगा, यह दावे से कहा जा सकता है।


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