विशेष लेखमाला - “समयदान ही युगधर्म” दान और उसका औचित्य

August 1989

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दान-पुण्य शब्द एक साथ मिला कर बोले जाते हैं और इनके प्रतिफल भी समानान्तर .... होते हैं। अध्यात्म भाषा में उसकी विवेचना स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, वरदान, चमत्कार आदि के रूप में बताई जाती है और बोल-चाल की भाषा में उसे प्रगति, सफलता, वरिष्ठता प्रदाता तक बताया जाता है।

दान अर्थात् “देना”। यही पुण्य है। लेना अर्थात् अधिकारों का अपहरण। यही पाप है। पाप की परिणति लौकिक और पार-लौकिक क्षेत्र में अवगति-दुर्गति स्तर की होती है। नरक इसी का अलंकारित प्रतिपादन है। दोनों में से अपनी गतिविधियाँ किस पक्ष के साथ विनियोजित करना यह मनुष्य की अपनी इच्छाओं की बात है। परिस्थितियाँ कई बार इस चयन के विपरीत दबाव भी डालती देखी गई हैं पर अन्ततः होता वही है, जिस पर इच्छाशक्ति संकल्प बनकर केन्द्रीभूत होती है।

हरिश्चंद्र, कर्ण, बलि, दधीचि, भामाशाह आदि की कथाएँ इसी तथ्य का प्रतिपादन करती हैं। स्वर्ग जाने वाले और मुक्ति पाने वालों को इससे भी बढ़कर आत्म समर्पण करना पड़ता है। भक्ति का एक ही स्वरूप है- अपनी इच्छा आकाँक्षाओं को आराध्य के साथ घुला मिला देना। ईंधन इसी आधार पर तुच्छ होते हुए भी दावानल बनकर जाज्वल्यमान होता है। भगवान को भक्तवत्सल कहा गया है। वह समर्पण कर्ता के हाथों अपने को सौंप देता है और उसके इशारे पर नाचता है। मीरा के साथ सहनृत्य करना, सूर की लकुटी पकड़ कर सेवक की तरह कार्यरत रहना, ऐसे ही उदाहरण हैं। सुदामा, चैतन्य, हनुमान, अर्जुन आदि की गणना ऐसे ही भक्तों में होती है। जिनने भगवान के खेत में अपना सर्वस्व उदारतापूर्वक बोया और बीज की तुलना में हजार गुना अन्न भण्डार अपने कोठे के भरे पूर रूप में सँजोया। यह भगवत भक्ति और कुछ नहीं, आदर्शों के प्रति अपना आत्म समर्पण हैं धन दान तो इस भाव संवेदना का प्रतीत चिन्ह है।

धन दान हर व्यक्ति नहीं कर सकता है। जिसका अपना पेट ही खाली रहता है वह अन्नदान की चिन्ह पूजा ही कर सकता है। जो खुद ही ठंडक में पैर पेट में ठूँस कर सिकोड़ता हुआ सोता है, वह वस्त्रदान कैसे करे? जो स्वयं ही अनपढ़ है, उससे विद्यादान की आशा कैसे की जाय? कारण एक और भी है कि अभाव ग्रस्तों की करुणा भी सो जाती है। शास्त्रकारों ने कृपण नरों के निष्करुण होने की बात बहुत हद तक ठीक ही कही है।

दूसरी ओर दान की आवश्यकता भी अपरिहार्य है। उससे बच निकलने का भी कोई शॉटकट नहीं। माता यदि अपना शरीर निर्वाह कर भ्रूण का परिपोषण न करे तो यह पुत्रवती कैसे कहलाए। बीज गलना स्वीकार न करे तो वृक्ष स्तर के कैसे पहुँचें? बादल न बरसे तो प्रजा कैसे जिये? धरती यदि उपजाने-उगलने का धर्म छोड़ दे तो यहाँ सूखी चट्टानों से भरी नीरवता के अतिरिक्त और कहीं क्या कुछ दीख पड़े?

श्रद्धास्पद श्रेष्ठ जनों को देवमानव कहा जाता है। उनके अनुदानों के प्रति सृष्टि का कण कण अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। यहाँ समस्त महामानव मात्र एक ही अवलम्बन अपना कर उत्कृष्टता के प्रणेता बन सके हैं कि उनने संसार में जो पाया उसकी तुलना में उसका प्रतिफल स्वरूप असंख्य गुना करने का व्रत निबाहा। यदि कृपणता उन्हें घेरे रही होती तो प्रेत पिशाचों की पंक्ति में ही गिने जाने योग्य बने रहते। भले ही उनकी संचित सम्पदा और विशेषता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न रही हो?

सच्चाइयां कितनी ही कष्ट साध्य क्यों न हो, अपने स्थान पर अकेले ही समुद्र के बीच अवस्थित प्रकाशस्तम्भ की तरह अपने स्थान पर अविचल ही बनी रहती हैं ऐसी ही सच्चाइयों में से एक यह भी है कि जो जितना देता है, वह उसी अनुपात में पाता है। मसखरी करने वालों को बदले में उपहास ही हाथ लगता है। यह बात इस संदर्भ में कही जा रही है कि देने के नाम पर अँगूठा दिखाने वाले और लेने के लिए कंधे पर बड़ा थैला लादे फिरने वाले मात्र निराशा थकान और खीज ही लेकर लौटते हैं। भले ही उन्होंने मुफ्त में तुर्त फुर्त बहुत कुछ पाने का शेखचिल्ली जैसा सपना ही क्यों न सँजो रखा हो?

संसार में व्यावहारिकता का ही प्रचलन है। यहाँ इस बाजार में एक से एक बढ़िया वस्तुएँ भरी और आकर्षक ढंग से सजी पड़ी हैं। पर उसमें से एक को भी मुफ्त में पा सकना कठिन है। जो ऐसी चेष्टा करते हैं, वे चोरों की तरह पकड़े जाते हैं या फिर भिखारियों की तरह हर द्वार से दुत्कारे जाते हैं।

दुनिया का सम्मान और सहयोग उन के लिए सुरक्षित है जो देते बहुत हैं, पर बदले में कम पाने पर भी काम चला लेते हैं। कम देना और बहुत पाना तो प्रबंधकों, पाखण्डियों और अनाचारियों के ही गले उतरता है। वस्तुतः इस प्रत्यक्ष संसार और अप्रत्यक्ष परलोक का एक ही शाश्वत क्रम है कि पहले दो बाद में पाओ। पहले पाने और बाद में उसका एक अंश खैरात कर देने की नीति तो लुटेरे ही अपनाते हैं। उनकी भी घात सदा नहीं लगती।

तो क्या सचमुच ही ऐसा है कि कुछ महत्वपूर्ण पाने के लिए वैसा ही महत्वपूर्ण किये बिना काम नहीं चल सकता? इस प्रश्न का प्रत्युत्तर दसों दिशाओं से गूँजते सुना जा सकता है कि “दो और पाओ” “बोओ और काटो” “बाँटो और झोली को कभी खाली होते न पाओ।” इस शाश्वत सत्य को कृपणता अनादि काल से झुठलाती चली आ रही है, फिर भी यथार्थता को अपने स्थान से एक इंच .... हटाया नहीं जा सका है।

प्रश्न फिर घूमकर वहीं आ जाता है कि जब अधिकाँश लोग अभावों से ग्रसित है और गरीबी की रेखा से नीचे रहकर दिन काटते हैं, तब दान पुण्य की परम्परा चरितार्थ कैसे बन पड़े? प्रश्न में बालकों जैसे भोलेपन की झलक-झाँकी मिलती है। समझा जाता है कि धनदान ही एक मात्र दान है। क्योंकि हर जगह उसी का बोल बाला दीख पड़ता है। चर्चा और प्रशंसा उसी की होती है। प्रचलन को देखते हुए ऐसी मान्यता बन जाना कुछ आश्चर्यजनक भी नहीं है।

जो रिश्वत की, उपहार की, करामात जानते हैं उनका दावा है कि बेचारा मनुष्य तो चीज ही क्या है? देवताओं तक को भेंट उपहार के स्तवन, मनुहार के सहारे अपने पक्ष में बनाया जा सकता है। भले ही वह अनुग्रह कितना ही अनैतिक व अवाँछनीय क्यों न हो? इस मान्यता वालों का एक बड़ा समुदाय है।

ऐसी दशा में यदि दान शब्द का अर्थ धन दान के साथ जुड़ गया हो और फिर मनोविनोद तक के लिए किये जाने वाले अपव्यय को भी खर्च की मद में लिखे जाने के कारण दान समझा जाने लगा हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है? कानून शास्त्र में अश्लील हरकतों को रक्तदान वीर्यदान जैसे नामों से पुकारा गया है। बुद्धकाल में पूजा पाठ में एक विधि पशु वध की भी सम्मिलित थी और उसे बलिदान कहा जाता था। हरिजनों को कभी जूठन दान दिया जाता था, जिसे अब उन्होंने अपना अपमान माना है और लेने से अस्वीकार कर दिया है। रोगियों के उतरे हुए कपड़े कभी जाति विशेष के लोग खुशी खुशी ले जाते थे। पर अब इस “उतरन दान” को स्वाभिमानी नितान्त निर्धन भी स्वीकार नहीं करते। विवाह शादी की धूमधाम में उलीचा गया धन कन्यादान, बागदान आदि के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार दान शब्द का दुरुपयोग जहाँ तहाँ भिन्न भिन्न रूपों में देखा जा सकता है।

संग्रहित धन का आयकर से बचत हेतु किसी मान्यता प्राप्त संस्था को देकर दुहरा लाभ उठा लिया जाता है। टैक्स की बचत और दान वीरों की श्रेणी में अपनी गिनती। चंदा माँगने वालों का दबाव, कुटुम्बी संबंधियों पर अनुग्रह, तीर्थ यात्रा के नाम पर पर्यटन-पिकनिक भी दान है। मनोरंजन के लिए उद्यान पार्क, स्विमिंगपूल इत्यादि बना देना भी जनहित कहकर मन को समझाया जा सकता है। रिश्वत में दी गई राशि भी उदारतापूर्वक दी जाने के कारण दान ही है। यहाँ तक कि नशा पीने से पहले उसे शंकर भगवान को अर्पण कर दिये जाने पर वह भी भोग प्रसाद बन जाता है। यश के लिए कहीं जैसा देकर प्रतिष्ठा प्राप्त करना और उस “इमेज” का लाभ किसी दूसरी प्रकार से भुना लेना भी दान की श्रेणी में गिना जा सकता है। इस प्रकार दान शब्द व्यवहार में जिस प्रकार प्रयुक्त होता है उसे आदान-प्रदान कहा जाय तो अधिक उपयुक्त हो सकता है। उद्योगपतियों की विज्ञापन मद में खर्च की गई राशि जहाँ टैक्स में राहत दिलाती है, वहाँ उन अखबारों को कृतज्ञ बनाकर उसके बदले में प्रशंसा के पुल बँधवाने में भी सहायक होती है। इन सम्भावनाओं को देखते हुए पुण्य का पर्यायवाची शब्द बन सकने योग्य दान के किस स्वरूप को मान्यता दी जाय यह कह सकना अति कठिन है।

दान को पुण्य उसी आधार पर कहा जा सकता है कि उसको प्रामाणिक माध्यमों से उच्चस्तरीय सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाय। इसके विपरीत इस मद में खर्ची गई राशि यदि आलस्य, प्रमाद, पाखण्ड, प्रवंचना, दुर्व्यसन, अन्धविश्वासों के विस्तार में निमित्त कारण बनती है, तो उससे ठीक उलटा प्रतिफल भी हो सकता है। परिणाम और प्रयोग के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टता ही पुण्य का आधार बनती है और उसकी प्रतिक्रिया पुण्य के साथ जुड़ने वाले अनेक कल्याण-कारक रूपों में सामने आती है। इसके विपरीत यदि उससे दुर्जनों का, दुष्प्रयोजनों का परिपोषण हुआ तो समझना चाहिए कि वह देने की तरह खर्च किये जाने पर भी ऐसे दुष्परिणाम भी उत्पन्न कर सकती है, जो नरक जाने की तरह अपने तथा दूसरों के लिए अनेकों संकट खड़े करती है।

प्रवंचनाओं के अतिरिक्त दान क्षेत्र में और भी अनेकों व्यवधान हैं मुफ्तखोरी की आदत बढ़ाना किसी के अधःपतन का द्वार खोलना है। आपत्तिग्रस्तों को सामयिक सहायता देकर उसे अपने पैरों खड़े होने की स्थिति तक पहुँचा देना एक बात है और मुफ्तखोरी की आदत डालकर वैसा स्वभाव बना देना एक प्रकार से भले चंगे को अपाहिज बना देने के समान है।

ऐसी दशा में यह अति विचारणीय है कि न्यायोपार्जित धन इतनी मात्रा में कहाँ से पाया जाय जिसे प्रशंसा पाने योग्य स्तर पर दान के नाम पर बिखेरा जा सके। वस्तुतः धनिकों का दान उनके संचित पापों का प्रायश्चित है। फोड़े से भरे मवाद को निचोड़ देने के बाद इसमें लेने वाले की कम और देने वाले की भलाई अधिक है।

औचित्य इस बात में है कि हर व्यक्ति औसत नागरिक स्तर का जीवन जिये। “सादा जीवन उच्च विचार” की नीति अपनाये। न्यायोपार्जित पसीने की कमाई पर संतोष करें। चोरी बदमाशी का इस हेतु प्रयोग न करें। यदि अपने खर्च से बच जाता है तो उसे बिना रोके अवाँछनीयता जैसी अव्यवस्थाओं से निबटने के लिए खर्च कर दें। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन की व्यवस्था न जुट पाने से ही श्रेष्ठता और प्रगतिशीलता की पौध सूख रही है। उसे सींचने के लिए जो भी कुछ बन सकता हो करें यही सतयुगी परम्परा रही है, यही किया भी जाना चाहिए।


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