वरिष्ठता और श्रेष्ठता सदैव अध्यात्म की ही

August 1989

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जब तक जीवन रहता है, सुन्दरता, समर्थता, प्रतिभा, बुद्धिमत्ता आदि अनेकों विशेषताएँ दीख पड़ती हैं। जीवन समाप्त होते ही उनमें से एकाएक तिरोहित हो जाता है। स्पष्ट है कि काया का दृश्यमान पक्ष पड़ तत्वों से विनिर्मित प्रत्यक्ष भौतिक विज्ञान का ही चमत्कार है। अदृश्य चेतना अध्यात्म है। दोनों के समन्वय से ही जीवन की स्थिरता रहती है। उनके विगठित होने पर जो कुछ बन पड़ता है, वह घिनौनी, अस्पृश्य, अनुपयोगी स्तर का ही होता है। संसार के संबंध में भी यही बात है। जब तक उसमें उपरोक्त दोनों महाशक्तियों का सही अनुपात में तालमेल है तभी तक उनकी महत्ता विद्यमान है। संतुलन बिगड़ने पर सब कुछ गड़बड़ा जाता है। व्हेल जैसे विशालकाय प्राणी शरीर की दृष्टि से विशालकाय होने पर भी चेतना के अविकसित रहने के कारण किसी प्रकार गहरे सागरों में दिन गुजारते है। मनुष्य की चपेट में आ जाने पर वे अपने प्राण भी गंवा बैठती हैं।

यहाँ प्रधानता भौतिक पदार्थ के असाधारण संचय होने की नहीं है। वरन वस्तुस्थिति ऐसी है कि चेतना का स्तर ऊँचा हो तो छोटे प्राणी भी अपनी विशिष्टता का परिचय देते देखे जाते हैं। चींटी और मधुमक्खी की जीवनक्रिया नजदीक से देखने पर प्रतीत होता है कि वे अपनी छोटी काया के भीतर भी कितना कौशल और अनुशासन संजोये हुए हैं। अस्तु प्रशंसा उन्हीं की होती है। व्हेल का तो तेल भर निकाला जाता है। आदि काल के महागज,महासरीसृप और महागरुड़ विशालकाय होते हुए भी प्रकृति की तनिक सी प्रतिकूलता सहन करने में असफल रहने पर अपना अस्तित्व गंवा बैठे जबकि मनुष्य की कुछ प्रजातियाँ ध्रुव प्रदेश क अति विकट परिस्थितियों में भी चिरकाल से अपनी सत्ता बनाये हुए हैं। यहाँ चेतना परक अध्यात्म को ही वरिष्ठ मानना पड़ेगा। सुविधा-साधनों वाला विज्ञान तो उसके उपयोग या उपभोग की उथली सी सामग्री मात्र है।

समझा यह जाना चाहिए कि यद्यपि पदार्थ संसार में विशाल आकार-प्रकार में विद्यमान है, दीख पड़ता भी वही है और उपयोग भी उसी का होता है। इसलिए मोटी दृष्टि यही बताती है कि यहाँ पदार्थ ही प्रमुख है। विज्ञान ने तो चेतना की परख न कर पाने पर यहाँ तक कहना शुरू कर दिया कि चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पदार्थ की ही एक स्थिति चेतना बना जाती है और समयानुसार विलुप्त भी हो जाती है। पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। चेतना के जड़ से अलग होने की स्थिति में भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने के प्रमाण मिले हैं। मरणोत्तर जीवन संबंधी सभी जानकारियाँ इसी तथ्य को प्रकट करती हैं कि पदार्थ की स्थिति विशेष को चेतना मानना ठीक नहीं। वरन सही यह है कि चेतना अपने संकल्प के अनुसार कलेवर विनिर्मित कर लेती है। विकासक्रम का इतिहास यही बताता है कि प्राणियों की जब जैसी इच्छा, आकाँक्षा, आवश्यकता प्रबल हुई तब उनने इसी प्रकार के आकार विकसित विनिर्मित करने आरंभ कर दिये। अमीबा से लेकर असंख्य प्राणियों की प्रजातियाँ इसी इच्छाशक्ति के आधार पर बनती और विकसित होती रही हैं।

सूक्ष्म शरीरधारी पितर एवं सिद्ध पुरुषों के प्रमाण यह बताते हैं कि चेतना एकाकी रहने पर भी पदार्थ प्रयोजनों की आवश्यकता अपनी संकल्प शक्ति से ही गढ़ लेती है और जीवित मनुष्यों से भी कहीं अधिक बढ़े चढ़े पराक्रम दिशा सकने में समर्थ रहती है।

पदार्थ में अपनी विशेषताएँ है। इसे मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं। पर उन विशेषताओं को प्रसुप्ति से जाग्रति में पहुँचाने का, रहस्यों को उद्घाटित करने का श्रम चेतना को ही जाता है। वैज्ञानिक आविष्कारों की भरमार बुद्धि वैभव के द्वारा ही बन पड़ी है। वे स्वयं अपने आप कहीं भी प्रकट नहीं हुए हैं। आदिमकाल का मनुष्य आग की, पहिये की, धारदार औजारों तक की विधा से अवगत न था, तब तक वनमानुषों की ही तरह अभावग्रस्त निर्वाह करना पड़ता था। सुविधाओं के अम्बार-आडंबर जिन आविष्कारों ने प्रस्तुत किये और मनुष्य को अतिशय शक्तिशाली बनाया, उसमें उसके बुद्ध वैभव का विकसित स्वरूप ही काम करता दिखाई पड़ता है। इतना सामान्य पर्यवेक्षण करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि हलचलें और प्रगति प्रक्रियाएँ बुद्धि की ही देन हैं। यद्यपि उपयोग स्थूल पदार्थों का ही होता है। बुद्धि को चेतना का प्रतीक माना जा सकता है और कहा जा सकता है कि संसार में दृश्यमान स्थूल पदार्थ ही सब कुछ नहीं है। उसे अनगढ़ स्थिति से उपयोगी और सर्वांग सुन्दर बनाने में विकसित चेतना की ही प्रधान भूमिका रही है। भविष्य में भी जो कुछ शुभ या अशुभ बन पड़ेगा, उसके पीछे भी बौद्धिक वरिष्ठता ही काम करती देखी जाएगी।

चेतना और पदार्थ का अपना-अपना अस्तित्व है। फिर भी दोनों को मिलाकर चलने में ही सुन्दरता और सुविधा-उपयोगिता बन पड़ती है। दोनों पृथक रहने लगें तो इनमें से किसी को भी अपनी विशिष्टता प्रदर्शित करने का अवसर न मिलेगा। अस्तु! यह विवाद समाप्त ही होना चाहिए कि मात्र पदार्थ ही सब कुछ है। मानना यह भी होगा कि चेतना की शक्ति अदृश्य होते हुए भी इतनी प्रचण्ड है कि अनगढ़ पदार्थ सामग्री को सुनियोजित करके इसी संसार में स्वर्गोपम सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकती है। भूतकाल की सतयुगी अवधि में ऐसा होता भी रहा है कि रचनात्मक उच्च प्रयोजनों में संलग्न रहकर स्वल्प साधनों की स्थिति में असीम सुविधाओं और मनोरम परिस्थितियों का रसास्वादन किया जाता रहा है। इसके विपरीत यह भी संभव है कि पिछले एक हजार वर्षों में बौद्धिक दुरुपयोग के कारण पदार्थ का युद्ध महायुद्धों के रूप में विनाशकारी दुरुपयोग बन पड़ा है। अणु आयुधों के विस्फोट से धरातल का अस्तित्व तक मिट सकता है, इसकी एक झलक झाँकी जापान पर गिराये गये दो बमों द्वारा पूर्व चेतावनी के रूप में अनुभव में लाकर दिखा दिया गया है।

इसलिये कहा जा रहा है कि विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होना चाहिए, दोनों को मिलाकर चलना चाहिए अर्थात् दूरदर्शी विवेकशील की तराजू पर तौलते हुए दोनों का संतुलन इस प्रकार बिठाया जाना चाहिए जिससे असंतुलनजन्य विग्रहों और बुद्धि के रूप में दृष्टिगोचर होने वाली चेतना ने उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया तो उस आधार पर मात्र संकीर्ण स्वार्थपरता का ही बोलबाला दीख पड़ेगा। फिर नैतिकता के लिए कोई स्थान न बचेगा। अधिक चतुरता मात्र अधिक स्वार्थ साधना के पक्ष में ही तर्क प्रस्तुत करती है और इसी के लिए मन लुभाता ललचाता है कि जिस प्रकार भी संभव हो, अपने स्वार्थ को अधिकार के रूप में परिभाषित प्रस्तुत करते हुए “जिसकी लाठी उसकी भैंस”, वाला मत्स्य न्याय चरितार्थ करके दिखाया जाय।

इसमें मुट्ठी भर सामर्थ्यवानों को तानाशाही बरतने का अवसर मिल सकता है, पर सर्व साधारण को तो शोषण-अपहरण और उत्पीड़न का ही सामना करना पड़ेगा। इसलिए इतिहास के पृष्ठों की साक्षी प्रस्तुत करते हुए यह कहा जा सकता है कि पदार्थ की वरिष्ठता और उसी के लिए ललचाने वाली बुद्धिमत्ता का यदि प्राधान्य बना रहा तो संसार भर में विजेता और पराजित में से किसी को भी चैन न मिलेगा, भले ही सम्पदा का बाहुल्य कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो?


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