तालाब के कितने ही घाट होते हैं। उनमें से किसी में जाकर घड़ा भरा जा सकता है। धर्म एक है। सम्प्रदाय उसके घाट हैं। जो सरल पड़े वहाँ से प्यास बुझाई जा सकती है। अपना जल या अपना घाट उत्तम है। इसके लिए हठ करना व्यर्थ है।
न होता, और सिर्फ जन्म ही होता चला जाता, तो प्राणियों की संख्या इतनी अधिक हो जाती कि वह संसार ही उसके लिए अपर्याप्त साबित होता। फिर साथ-साथ इतनी विशाल संख्या का रह पाना मुश्किल हो जाता। इसके साथ ही तरह-तरह की समस्याएँ उत्पन्न होने लगतीं, जिनमें आवास और भोजन संबंधी मुख्य होतीं। ऐसी सृष्टि में तब डार्विन का “स्ट्रगल फाँर एग्जिस्टेन्स” और “सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट” का सिद्धान्त और मत्स्य न्याय का जंगली कानून सर्वत्र दृष्टिगोचर होता।
इन्हीं सब व्यावहारिक कठिनाइयों को ध्यान में रख कर ईश्वर ने ऐसी सृष्टि बनायी है, जिसमें जीवन चक्र की उपयोगिता के आधार पर जीवधारियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षमताओं की व्यवस्था की है। इससे सृजेता की बुद्धिमत्ता का ही परिचय मिलता है। इस प्रकार यह कहना कि इस संसार का रचनाकार अल्पज्ञ और मन्दमति है, सर्वथा अनुचित होगा।