दृष्टिकोण बदले तो परिवर्तन में देर न लगे!

August 1989

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कब किस दान की महिमा अत्यधिक बढ़ी चढ़ी मानी जाती है? इस प्रश्न के उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है कि जब जिस विपत्ति का अत्यधिक प्रकोप हो, तब उसके निराकरण का उपाय ही सर्वश्रेष्ठ दान है। प्यास से संत्रस्तों को पानी, भूख से तड़पतों को अन्न, अग्निकाण्ड का शमन करने के लिए जल, बाढ़ की चपेट में घिरों को नाव, दुर्घटनाग्रस्तों को चिकित्सा उपचार जैसे उन साधनों की आवश्यकता पूर्ति की जाती है जिनके कारण संकटग्रस्तों को अत्यधिक त्रास सहन करना पड़ रहा है।

वर्तमान समय में आस्था संकट के रूप में घोर दुर्भिक्ष जन-जन के ऊपर प्रेत पिशाच की तरह चढ़ हुआ है। लोग बेतरह भूल भुलैयों में भटक रहे हैं। दृष्टिकोण में ऐसी विकृति समा रही है कि उलटा सीधा और सीधा उलटा दीखता है। कौरवों को नवनिर्मित राज महल में प्रवेश करते समय जल में थल ओर थल में जल दीख पड़ा था। इस कारण वे मति भ्रम में पड़े, दुर्गति को प्राप्त हुए और उपहासास्पद भी बने।

इन दिनों जो चिन्तन, प्रचलन, व्यवहार एवं लक्ष्य अपनाया जा रहा है, वह लगभग उलटे स्तर का है। हर किसी को आपाधापी पड़ी है। जो जितना भी, जिस प्रकार भी बटोर सकता है उसमें कमी नहीं रहने दे रहा है। साथ ही जो उपलब्ध है, उसका भौंड़ा उपयोग करने में ही अहंकार की पूर्ति मानी जा रही है। उद्दण्डता ही समर्थता का पर्यायवाचक बनने का प्रयत्न कर रही है। आदतों में घुसी पड़ी विकृतियाँ अशान्ति और उद्विग्नता को दिन दिन बढ़ावा दे रही हैं। असंतोष खीझ, थकान, निराशा के साथ-साथ आक्रमण और प्रतिशोध का कुचक्र ऐसा चल रहा है जिसका ओर छोर कहीं दीख नहीं पड़ता।

अपने समय में सबसे बड़ा अभाव और कष्ट यह है कि लोगों को मानवोचित स्तर पर सोच सकना और तदनुरूप क्रिया-कलापों को काल सकने में सफल होना कठिन जान पड़ता है। पानी ढलान की ओर से सहज बह निकलता है पर ऊँचे उठाने में असाधारण कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस सत्साहस के क्षेत्र में चरम सीमा की दुर्बलता छाई हुई है। भ्रष्ट चिन्तन अपनाते ही दुष्ट आचरण बन पड़ने का सिलसिला तो तेजी से चल पड़ता है। यही सामाजिक विकृतियों की उद्गम स्थली है। जहाँ उभरने वाला प्रवाह अपने प्रभाव क्षेत्र में कीचड़ ही कीचड़ भरता है। पाचन तंत्र खराब हो जाने पर बढ़ती हुई विषाक्तता असंख्यों आकार प्रकार के रोग उत्पन्न करने लगती है। ठीक इसी प्रकार विकृत चिन्तन का अन्धड़ उमड़ पड़ने पर आँखों में धूल भर जाती है और यथार्थता को सही रीति से देख पड़ना कठिन पड़ता है। क्रियाएँ अपने आप नहीं बन पड़ती। उनके पीछे आकाँक्षाओं, मान्यताओं एवं विचारधाराओं का गहरा पुट रहता है। शरीर मन का वाहन है। उसे वही करना पड़ता है, जिसके लिए मन रूपी संचालक उसे निर्देश देता और दबाव डालता है। दृश्यमान अनाचार के पीछे बौद्धिक दुश्चिन्तन ही अपनी समग्र भूमिका निभाता है। कठपुतली को बाजीगर के इशारे पर ही तो नाचना पड़ता है।

सुधार का उपचार करना हो तो एक ही उपाय अपनाना पड़ेगा कि कुविचारों के प्रभावों को मोड़ा और उसकी दिशाधारा को सदुद्देश्यों के साथ जोड़ा जाय। इतना बन पड़ने पर वह सब सरल हो जायेगा, जो इन दिनों सर्वत्र अपेक्षित है। विचारों की गंदगी यथावत् बनी रहने पर मनुष्य रच तो सज्जनता और उदारता के पाखण्ड भी सकता है। पर उनके पीछे श्रेष्ठ आधार न होने पर रची हुई विडम्बना कागज की नाव जैसी अपनी असमर्थता प्रदर्शित करने लगती है।

संसार के कोने कोने में स्थानीय परिस्थितियों और प्रचलनों के अनुरूप असंख्यों प्रकार की अवांछनियताएं अनेक रूप में उभरती देखी जाती है। सोचने वाले उन सब को स्वतंत्र समस्या समझकर सामयिक एवं स्थानीय उपाय ही अपनाते हैं। इसका परिणाम आहत स्थान पर सुन्न करने वाले लेप लगा देने जैसा होता है। हाथों हाथ तो कुछ सुधार दीख पड़ता है पर जैसे ही उस लेप का प्रभाव हलका होता है व्यथा ज्यों की त्यों फिर उभर आती है। इस खिलवाड़ में समय नष्ट करते रहने की अपेक्षा उपयुक्त यही है कि विचारक्रान्ति का तूफानी सरंजाम जुटाया जाय और उसे इतना प्रबल-प्रचण्ड बनाया जाय कि जो कुछ भी कचरा जहाँ भी जाता है वह अन्धड़ के साथ उड़ता और कहीं से कहीं पहुँचता जाता दिखाई पड़े। प्राकृतिक सफाई तो तूफानी अन्धड़ और घटाटोप वर्षा का प्रबल प्रवाह ही व्यापक रूप से सम्पन्न कर पाता है यों घर आँगन में बुहारी लगा कर सफाई की चिन्ह पूजा तो किसी प्रकार होती ही रहती है।

भटकाव में पड़ने की अपेक्षा हमें लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए अपनी समूची तन्मयता एवं तत्परता को उसी में नियोजित करना चाहिए। इसके लिए तर्क और तथ्यों पर आधारित यथार्थता का प्रबल प्रतिपादन बहुत हद तक काम दे जाता है। इन शताब्दियों में प्रजातंत्र और साम्यवाद की तो विचारधारा मनीषियों ने इस प्रकार प्रस्तुत की कि उनने संसार के दो तिहाई मस्तिष्कों को अपने प्रभाव की परिधि में जकड़ लिया। जो एक तिहाई शेष हैं, वे अपने निहित स्वार्थों की वकालत में ही असहमति प्रकट करते देखे जाते हैं। विरोध उनका उथला होता है और ऐसा होता है जिसका खंडन किये जाने पर बगलें झाँकने और सीखें निपोरने के अतिरिक्त और झाँकने और कुछ बन नहीं पड़ता। शालीनता की पक्षधर विचारक्रान्ति की दृढ़ता और यथार्थता के सम्बंध में भी यही बात कही जा सकती है। उसके प्रयोग जहाँ कहीं, जहाँ किसी, जितनी सशक्तता के साथ प्रयुक्त किये गये हैं उनने अपना चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत किया है। यह बात अगल है कि उन विचारों में संभवतः व्यावहारिकता न रही हो और संकीर्ण स्वार्थों का समूह उनके साथ पूर्वाग्रह की तरह जुड़ा हुआ हो और जैसा प्रभाव-परिणाम हो सकता हो, वैसा न हुआ हो। विचार क्रान्ति का ही परिणाम है कि उसके एक झकझोर ने इन्हीं दिनों राजशाही सामंतशी, साहूकारी, व्यवसाय, जातिगत ऊँच-नीच दास-दासीप्रथा, सती प्रथा जैसे चिरकाल से जड़ जमाये बैठे अनौचित्यों को जड़मूल से उखाड़ कर फेंक दिया है। अब उनके खण्डहरों पर इतिहास के विद्यार्थियों की ही नजर पड़ती है। पुरातन काल जैसा वैभव और जलजला उनका कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता।

नई विचार क्रान्ति में व्यक्तित्वों का परिमार्जन प्रमुख है। इन दिनों निजी जीवन में व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलबाला है। इसके स्थान पर प्रतिष्ठापना यह की जाती है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसकी समाज निष्ठा अक्षुण्ण रहनी चाहिए। भले ही इसके लिए निजी लोभ, मोह और अहंकार को नियंत्रित अनुबंधित करना पड़े। नीर-क्षीर विवेक वाली दूरदर्शिता को प्रश्रय मिले, भले ही इसके लिए कितने ही पुराने प्रचलनों को ताक पर उठाकर रखना पड़ता हो। जन-जन को ऐसी रीति-नीति अपनाने के लिए बाधित किया जाय, जिससे मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई सद्भाव सम्पन्न शालीनता के अनुरूप ही आचरण करते बन पड़ें। सहकार, शिष्टाचार एवं सज्जनता के उदार समावेश का हर कार्य में भली प्रकार सम्पुट हो।

इन दिनों मनुष्य की निजी आदतों से लेकर समाज, शासन व्यवसाय आदि में अवाँछनीयता के ऐसे तत्वों का असाधारण रूप से समावेश हो गया है जिन्हें नहीं ही पनना चाहिए था। आवश्यकता इसी सफाई की है। इसके लिए प्रतिभाशाली हर व्यक्तित्व को अपनी क्षमता के अनुरूप योगदान देना पड़ेगा। मनीषियों की लेखनी और वाणी को सशक्त अस्त्र–शस्त्रों की भूमिका निभानी चाहिए। वक्ता की वाणी इतनी मुखर होनी चाहिए कि उसकी यथार्थता मिश्रित ओजस्विता हर सुनने वाले को ध्यान देने और अनौचित्य से विरत होने के लिए बाधित कर सके। युग गायक सरसता की ऐसी स्वर लहरी निर्धारित कर सकता है जिससे उसके ऊपर लगा कामुकता भड़काने का कलंक धुल सके। धनिकों के लिए प्रायश्चित का ठीक यही समय है। व्यक्तिगत सम्पदा को शासकों से लेकर ईर्ष्यालुओं तक कोई भी सहन न करेगा। उसकी प्रधान प्रकृति भी दुर्व्यसनों अपव्ययों, विपत्तियों, विग्रहों के साथ विदा होने की है। अगले दिनों की उथल पुथल पर यह बिजली सबसे पहले संचित सम्पदा पर ही गिरेगी क्योंकि अनेकानेक समस्याओं, संकटों और विडम्बनाओं का प्रमुख कारण उसी लोभ, लिप्सा को माना जाता रहा है। अच्छा हो जिनके पास अनावश्यक संग्रह है, वे उसे युगधर्म की पुकार को सुनने समझने के उपरान्त उसी हेतु विसर्जित कर दें।

जन मानस को प्रभावित करने वाले और भी अनेक तंत्र है। इसमें प्रेस ने अपना मजबूत स्थान बना लिया है। अभिनय भी बल कौशल का प्रतीक प्रतिनिधि बनकर रह रहा है। जिनमें नेतृत्व कर सकने की प्रतिभा हो वे उन्हें अपनी विशिष्टता सिद्ध करने के लिए यश लोलुपता में खर्च न करें वरन् लोक मानस के साथ गुँथकर ऐसा प्रबल प्रयत्न करें कि बुद्ध, गाँधी, शंकर, दयानन्द, विवेकानन्द, विनोबा की तरह सही मार्गदर्शन की आवश्यकता पूरी कर सकें। इस संबंध में किसी को भी अपनी क्षमता कम करके नहीं आँकनी चाहिए। टिटहरी का समुद्र सुखाने का संकल्प अगस्त्य की सहायता से पूरा होकर रहा था। कार्लमार्क्स, लेनिन, रूसो जैसे विचारक किसी युनीवर्सिटी के प्राध्यापक नहीं थे। कबीर और रैदास जैसों ने यथार्थता के प्रतिपादन में इतना साहस दिखाया कि जमाने के सामने अकेले ही अड़ जाने की उनकी प्रतिज्ञा अन्त तक निभी रहीं। हजारी किसान ने नितान्त अनपढ़ होते हुए भी अपने संपर्क क्षेत्र में हजार आम्र उद्यान लगाने में सफलता पाई थी। धुन के धनी इतने शक्ति सम्पन्न होते हैं कि साधनों और सहयोगियों की परवाह न करते हुए भी वे अपनी नाव चलाते और उसमें बिठा कर अनेकों को पार करते हैं।

युगधर्म ने जिस एक आधार को प्रमुख घोषित किया है वह है “विचार क्रान्ति” जनमानस का परिष्कार। प्रचलनों में विवेक सम्मत निर्धारणों का समावेश। यह सब क्रिया परक कम और भावना प्रधान अधिक है। इसके लिए विचारणा से लेकर भावसंवेदनाओं की मानसिकता को झकझोरने से काम चल जायगा। दृष्टिकोणों में बदलाव आने पर प्रचलनों में उलट पुलट होकर रहेगा। जिस दिशा में प्रतिभाएँ समूचे मनोयोग के साथ बढ़ेगी, उस पर पीछे चलने वाले अनुयायियों की कमी रहने वाली है ही नहीं।

आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहन लिया जाता है सभी वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ती हैं। दर्पण में अपना ही चेहरा दीखता है। गुम्बद में अपनी ही आवाज गूँजती है। छाया अपने साथ-साथ ही चलती है। मनुष्य का विकसित व्यक्तित्व जब आदर्शवादी मार्ग पर चलने का संकल्प करता है तो उसकी शक्ति हजारों गुनी हो जाती है। सहयोगियों और साधनों की कमी नहीं रहती। आवश्यकता केवल एक है- अपनी मनस्वी सत्ता के जागरण की और उसको उत्कृष्टता के साथ जोड़ते हुए आदर्शवादिता के मार्ग पर धकेल देने की।


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