समय का एक बड़ा अंश नवसृजन में लगे।

August 1989

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अति महत्वपूर्ण सामर्थ्यों की इस दुनिया में कमी नहीं पर विधि की कुछ ऐसी विडम्बना है कि वे प्रायः प्रसुप्त स्थिति में उनींदी पड़ी रहती हैं। प्राणि समुदाय का निर्वाहक्रम किसी प्रकार चलता रहे उतना ही पक्ष क्रियाशील रहता है। यदि उस अति शक्तिमान उद्देश्य को क्रियान्वित करना हो तो उसके विशिष्ट जनों को विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, अन्यथा इतना ही कुछ दृश्यमान होता है जिससे समय चक्र किसी प्रकार अपनी धुरी पर लुढ़कता रहे, ढर्रा किसी प्रकार चलता रहे।

समुद्र में विपुल सम्पदा अनादि काल से छिपी पड़ी थी। उसका किसी को पता तक न था पर जब प्रजापति के परामर्श से देव-दानवों ने मिलजुल कर प्रयत्न-पुरुषार्थ किया तो वे चौदह रत्न निकले जिनके कारण धरती से लेकर स्वर्गलोक तक में चमत्कारी सम्पदाओं का बाहुल्य उभर पड़ा। विष्णु क्षीरसागर में लम्बी चादर तान कर अपनी विभूति लक्ष्मी के साथ सदा सोते ही रहते हैं। आड़े समय में आवश्यकता पड़ने पर ऋषियों की गुहार और देवताओं की जुहार ही उन्हें जगाती है और अड़े हुए अवरोध उनसे दूर करती है। ऐसी पौराणिक मान्यता चली आयी है। समय-समय पर अवतारों का प्रकटीकरण इसी आधार पर हुआ है। ब्रह्मा के कमंडलु में तैरती छोटी सी मछली जब मन्त्रशक्ति से तिलमिलाई गई तो मत्स्यावतार बनकर समूचे समुद्र में छा गई। देवता प्रायः चतुर्मास के चार महीनों में सोते रहते हैं तथा देवोत्थान एकादशी को जब सक्रिय जन कोलाहल मचाते हैं तो देवता भी उनका साथ देने और सहयोग के लिए चल पड़ते हैं। सूर्य तक के बारे में कहा जाता है कि मुर्गा बाँग लगाकर उन्हें जगाता है। प्रभातकालीन ब्रह्ममुहूर्त उन्हें बिस्तर छोड़ने के लिए विवश करता है। शंकर की समाधि भी सदैव लगी रहती है। तपस्वी जन ही अपने प्रचंड पुरुषार्थ से उन्हें आँख खोलने पर सहमत करते हैं। उन्हें हरकत में लाने के लिए तो कामदेव तक कमर कस कर क्षुभित करने में सफल हो गया था। सड़ी गली प्रकृति को विश्राम देने और उसकी नये सिरे से संरचना करने के लिए शिव ताँडव की ही भूमिका अभीष्ट उद्देश्य पूरा करती है। देवता तो देवता, दैत्य तक अपने आलस्य के लिए प्रसिद्ध हैं। कुम्भकरण, रावण से अधिक बली और विशाल था पर वह इस आदत से लाचार था कि छै महीने सोव और मात्र एक दिन के लिए जगे। जब जगता था तब कहर ढाता था। यदि वह वर्ष भर जगता रहता तो न जाने क्या कहर ढाता।

इन दिनों करने योग्य एक ही काम है-‘‘जन जागरण’’ सोया हुआ मनुष्य अर्द्धमृत जैसी स्थिति में पड़ा रहता है पर जब जगकर कार्यरत होता है तो विशालकाय जलयानों को चलाता और वायुयानों को उड़ाता दीखता है। प्रकृति की अदृश्य क्षमता को और नियति की महती संभावना मात्र उसके आह्वान की प्रतीक्षा करती रहती है। पुकारा जाय तो वे गंगा की तरह स्वर्ग से धरती पर दौड़ी दौड़ी आने के लिए सुर्त फुर्त तैयार हो जाती हैं।

अवाँछनीयता की जकड़न और प्रगति की तड़पन अनुभव तो सभी करते हैं, पर गाड़ी यहीं अड़ जाती है कि दैवी गरिमा की प्रतीक प्रतिनिधि मानवी क्षमता को जगाने के लिए तैयारियाँ कहीं होती नहीं दीखतीं। यदि नारद जैसे कुछ ही लोग जागृत गान गाने में निरत रहे होते तो मानवी पराक्रम और दैवी अनुग्रह का सुयोग सहज ही बन जाता और परिवर्तन भरा ऐसा वातावरण उद्भूत होता जिसे युग परिवर्तन का कायाकल्प हुआ समझा जाता।

युग परिवर्तन की योजना भले ही अदृश्य सत्ता की हो, पर उसे क्रिया रूप में परिणत करने के लिए तो मनुष्य को ही आगे आना पड़ेगा। यहाँ मनुष्य शब्द से अर्थ-प्रतिभावानों का है। अग्निकाण्ड, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष, दुर्घटना जैसे आपत्तिकाल सामने होने पर कोई भावनाशील निष्क्रिय बैठा ही नहीं सकता, उसे अपनी सामर्थ्य भर निवारक उपाय अपनाने के लिए बाधित होना ही पड़ेगा। इसके बिना अन्तरात्मा ऐसी बुरी तरह कचोटने लगेगी कि पलभर बैठ सकना दुर्लभ हो जायगा। यह हो भी रहा है। यही होने भी जा रहा है।

युगधर्म है- जनजागरण के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ में जुट पड़ना। यही होने भी जा रहा है। प्रतिभाएँ अग्रिम मोर्चे पर एकत्रित हो रही हैं और व्यापक जन जागरण की क्रमबद्ध सुव्यवस्थित योजना बना रही हैं। विकृत चिन्तन आगे भी इसी स्थिति में नहीं रहेगा।

विचार परिवर्तन यदि- ब्रेन वाशिंग स्तर का करना हो और उसकी परिधि संसार भर में बसने वाले 600 करोड़ व्यक्तियों तक सुविस्तृत करनी हो, तो उसके लिए बड़े कदम उठाने होंगे और उस कार्य में रीछ-वानरों की तरह हर छोटे बड़े का अपने-अपने ढंग का योगदान होगा।

विचार परिष्कार के लिए लेखनी और वाणी के दृश्य और श्रव्य स्तर के सभी माध्यमों का उपयोग करना होगा। इस संदर्भ में युग साहित्य से जन-जन को अवगत कराने की आवश्यकता पड़ेगी। कार्ल मार्क्स, रूसो, हेरियट स्टो जैसों की क्रान्तिकारी लेखनी का चमत्कार और परिणाम अनेकों ने देखा है। तीन चौथाई दुनिया को उस प्रतिपादन ने अपनी प्रभाव परिधि में ले लिया है।

युग साहित्य को झोला पुस्तकालयों और ज्ञानरथों के माध्यम से घर बैठे बिना शुल्क हर शिक्षित तक पहुँचाने का प्रयत्न किया जा रहा है। साथ ही अनुबंध भी जोड़कर रखा गया है कि बिना पढ़ो को उसे सुनाते रहा जाय। यह कार्य प्रधान रूप से अभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सम्पन्न हुआ है। अगले ही दिनों उसे देश की-विश्व की समस्त भाषाओं में समुद्री ज्वार-भाटे की तरह फैलता और कुहराम मचाते देखा जायगा।

श्रव्य प्रयोजनों के लिए बिना खर्च वाले दीपयज्ञों की इतनी विशाल योजना चल पड़ी है कि गाँव गाँव इस माध्यम से युग चेतना का आलोक वितरण का सिलसिला द्रुतगति से चलता रहेगा। विचारशील वर्ग की अतिरिक्त गोष्ठियों का क्रम भी चल पड़ा है जिसके आधार पर समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी जीवन में उतार कर दिखाने के लिए हर जाग्रत आत्मा का प्राण हलसने लगे।

टैपरिकार्ड माध्यम से उद्बोधनों और संगीतों को घर-घर पहुँचाने की योजना बन रही हे। अभिनय भरे संगीत के आयोजन का सरल माध्यम नये रूप में अपनाया गया है। बन पड़ा तो इसके लिए वीडियो, स्लाइड प्रोजेक्टरों का ऐसा उपक्रम अपनाया जायगा जो देश की गरीब जनता तक अपनी पहुँच को बहुत आगे तक ले जा सके।

सूर्य पूर्व से उदय होता है। इतिहास साक्षी है कि भारत ने ही समय-समय पर विश्व का प्रगतिशील मार्गदर्शन किया है। इस बार भी बारी उस की है न केवल भारतवासी नवयुग की विचार धारा से अनुप्राणित होंगे, वरन भाषायी समस्या के अनुरूप यदि प्रबन्ध बन पड़ा तो संसार भर की प्रतिभाओं को आगे आना होगा एवं परिवर्तन कर अपने अपने ढंग से अपना-अपना योगदान प्रस्तुत करते देखा जा सकेगा।

प्रचार प्रक्रिया के साथ लोकसेवा का गहरा पुट लगा होना आवश्यक है। ईसाई मिशन इसी रीति-नीति को अपना कर प्रायः एक सहस्त्राब्दी से कम में आधी दुनिया को अपना मतावलम्बी बना चुके हैं। युग निर्माण की जन जागरण योजना के दो विधेयात्मक और दो निषेधात्मक कार्यक्रम प्राथमिकता के स्तर पर हाथ में लिए गये हैं।

जिनमें से एक है-हर शिक्षित द्वारा न्यूनतम दो अशिक्षितों को शिक्षित बनाया जाय। इससे

*समाप्त*


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