भाव संवेदनाओं का भांडागार- कारण शरीर

August 1989

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सामान्य बुद्धि काया को ही अपना समझ स्वरूप मानती है और उतने तक ही प्रसन्नता को सीमाबद्ध रखती है। शारीरिक स्वार्थ ही मनुष्य के लक्ष्य बन कर रहते है। उसी को अपना समग्र स्वरूप मानते हुए सोचने और करने की परिधि सीमाबद्ध कर लेते हैं। शोभा, सज्जनता, समर्थता, सम्पन्नता, सरसता ही शरीर को रुचते हैं। इसलिए उन्हीं के निमित्त समूचा प्रयास नियोजित रहता है। पर प्रायः यह भुला ही दिया जाता है कि स्थूल के भीतर दो अन्य सत्तायें भी विद्यमान हैं।

सूक्ष्म शरीर को मोटे रूप से समझने के लिए चेतना के उस पक्ष को आधार मानना पड़ेगा जिसे कल्पना या विचारणा कहते हैं। कुशलता, चतुरता भी। स्वभाव और रुझान इसी स्तर के साथ जुड़ा हुआ है। शिक्षा, अनुभव अभ्यास के आधार पर विचार सत्र का उत्कर्ष किया जाता है। इस दिशा में प्रगतिशील व्यक्तियों को पैनी सूझ बूझ वाला, चतुर, विद्वान् आदि के नाम से जाना जाता है। यह शरीर के साथ संचित कल्मषों के बंधनों से भी बँधा रहता है। इसीलिए उसकी दौड़धूप, कल्पना, इच्छा प्रायः बहिरंग जीवन के निमित्त ही क्रियाशील रहती है। जबकि मस्तिष्कीय गतिविधियों को कायिक निर्वाह के लिए सोचने और साधन जुटाने में संलग्न पाया जाता है।

कारण शरीर का तत्वज्ञान तो बढ़ा चढ़ा है, पर उसे सामान्य परिचय में भाव संवेदना कह सकते हैं। भावना, आस्था, प्रेरणा, साहस, विश्वास, आदर्श जैसे तत्व इसी क्षेत्र में उभरते हैं। किसी को महामानव स्तर तक विकसित करने की अलौकिकता इसी क्षेत्र में उतारना है। उसकी विकसित स्थिति इतनी समर्थ है कि एकाकी निर्धारण कर सके। अकेला चल सके। आदर्शों के लिए कठिनाइयों को सहन कर सके। बिना डगमगाये उच्च लक्ष्य तक पहुँच सके। योगी, तपस्वी, मनीषी, सुधारक, सृजेता इसी स्तर के होते हैं जो मात्र उत्कृष्टता की दिशा में ही कदम बढ़ाते हैं। विचार तंत्र और क्रिया तंत्र को साथ साथ घसीट ले चलने की क्षमता परिष्कृत कारण शरीर में ही होती है। साथ ही यह बात भी है कि इस क्षेत्र पर यदि अनैतिक, अवाँछनीयता, अधिकार जमा ले तो व्यक्ति का घिनौने स्तर का अपराधी आततायी और असुर बना देवी है। इसलिए व्यक्तित्व का स्वरूप निर्धारित करने एवं उसे भला-बुरा, .... -अतः पतित बनाने वाली उमंगे भी कहीं से उठती हैं। मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन जी सकना और महामानवों का स्तर अपना सकना जिस आधार पर संभव होता है उसे कारण शरीर ही कहना चाहिए।

कर्म स्थूल शरीर से बन पड़ते हैं। विचार सूक्ष्म शरीर में उठते हैं और भाव संवेदनाओं का उद्गम कारण शरीर को समझा जा सकता है। उदारचेता, संवेदनशील, आदर्शवादी, परमार्थी स्तर उन्हीं का होता है जिनका कारण शरीर परिष्कृत हो।

सूक्ष्म शरीर के विकृत, विपन्न होने पर कुकल्पनायें उठती हैं। चंचलता छायी रहती है। असंबद्ध भटकाव का दौर चढ़ा रहता है। आदतें बिगड़ती हैं और स्वभाव घटिया हो जाता है। फलस्वरूप मानसिक उद्वेग बने रहते हैं। क्रोध, आतुरता, निराशा, चिन्ता, ईर्ष्या, प्रतिशोध, महत्वाकाँक्षाओं का ऐसा उफान उठता रहता है जिसे समुद्र में उठने वाले ज्वार भाटे या उष्ण वायु में बनने वाले चक्रवात के समतुल्य समझा जा सके। मानसिक तनाव रहने पर शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता क्योंकि मात्र आहार विहार पर ही स्वस्थता निर्भर नहीं है वरन उस तंत्र के संचालन के उपयुक्त ऊर्जा मनः क्षेत्र में ही मिलती है। उद्वेग उभरने पर भूख, प्यास, नींद तक गायब हो जाती है और असंतुलित मनः स्थिति में व्यक्ति सनकी, विक्षिप्त, उन्मादी, जैसा आचरण करने लगता है। दूरदर्शिता कुँठित हो जाने पर सामान्य गतिविधियाँ एवं निर्धारणाएँ भी ठीक तरह नहीं बन पड़ती है। इतना ही नहीं, भीतरी अंग अवयवों पर इतना दबाव पड़ता है कि जहाँ तहाँ से, जिस तिस प्रकार की रुग्णता उभरने लगती है। बाह्य प्रभाव की प्रतिकूलता से जितना अनिष्ट होता है उससे कहीं अधिक अनर्थ मानसिक असंतुलन से होता है। स्वास्थ्य बिगड़ता है और निर्णय निर्धारण क्रिया कलाप उलटे होने लगते है।

यदि शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक सुसंतुलन का ध्यान रखा जाए तो उस स्थिति में बाह्य परिस्थितियों की प्रतिकूलता भी हँसते हँसते सहन करली जाती है। सही चिन्तन चलता रहे तो स्वभाव में ऐसी आदत सम्मिलित नहीं हो पाती जो स्वास्थ्य बिगाड़े, मस्तिष्क तनावग्रस्त रहे। बेतुके आचरण अपनाये और व्यवहार कुशलता के अभाव में जैसे असहयोग तथा विग्रह का सामना करना पड़ता है, उस प्रकार का त्रास सहना पड़े।

मनः स्थिति की विपन्नता ही अकर्म करने के लिए प्रेरित करती है और उसी कारण परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं जिन्हें दुखद या दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सके। एक जैसी परिस्थितियों में जन्मे और पले व्यक्तियों में से कुछ लोकप्रिय होते हैं साथ ही तेजी से प्रगति पथ पर दौड़ लगाते हैं। चुम्बक अपने प्रभाव से लोह खण्डों को घसीटकर अपने साथ चिपका लेता है उसी प्रकार विचारशील व्यक्ति अपने सही चिन्तन को सद्गुणों में बदलता है और सद्गुणों के लिए चिरस्थायी सम्मान एवं सहयोग सुरक्षित रहता है। सही निर्णय, सही स्वभाव, सही आचरण यहीं श्रृंखला अनेकानेक सफलताओं का आधारभूत कारण बनती है। जो इस तथ्य को नहीं समझते वे विचार तंत्र को उच्छृंखलता के खाई खंदकों में भटकने देते हैं फलस्वरूप उनका व्यक्तित्व अवाँछनीय हेयस्तर का बन जाता है। पग पग पर ठोकरें लगती हैं। हर दिशा में तिरस्कार, उपहास, विरोध बरसता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो दुखी रहता ही है साथ ही सम्बद्ध लोगों को, मित्र परिजनों को भी विषम विपन्नता में धकेलता है। कुसंस्कारिता अपने आप में एक विपत्ति है। वह जहाँ भी रहती है वहीं अपने स्तर के अनेक सहयोगियों को न्यौता बुलाती है। ऐसी विसंगतियों से भरा हुआ कोई व्यक्ति न तो स्वयं चैन से रहता है और न ही जिसके साथ जुड़ता है उसे चैन से बैठने देता है। ऐसों की दुर्गति ही होती है वे कभी कहने योग्य सफलता और सज्जनों के द्वारा की गई प्रशंसा के पात्र नहीं बन पाते।

स्वास्थ्य सुधारने और सुन्दर सम्पन्न दीखने के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है उतना ही यदि मन को सुसंस्कारी बनाने के लिए भी किया जाय तो अपेक्षाकृत कहीं अधिक लाभ में रहा जा सकता है। उपलब्धियां - साधन सम्पदाएँ कितनी ही अधिक क्यों न हों उनका सदुपयोग करने की दूरदर्शी विवेकशीलता का अभाव रहे तो दुरुपयोग से अमृत भी विष बन सकता है। कुबेर को भी अभाव रहा सकता है और इन्द्र जैसा सर्व सम्पन्न भी पतित, निंदित एवं अभिशप्त स्थिति में पहुँच सकता है।जिन्हें इस वस्तु स्थिति का ज्ञान है वे सूक्ष्म शरीर को, विचार तंत्र को, परिष्कृत परिमार्जित बनाने पर पूरा पूरा ध्यान देते हैं और हर परिस्थिति में हँसता हँसता हुआ खिलता खिलाता हुआ जीवन जीते हैं। यही है सूक्ष्म शरीर का सामान्य जीवन में सदुपयोग।

कारण शरीर में भाव संवेदनाओं का भण्डार है। असीम शक्ति का स्रोत यहीं से उभरता है। स्थूल शरीर को विकसित करने के लिए कर्मयोगी का, सूक्ष्म शरीर की प्रगति के लिए ज्ञान योग का और कारण शरीर को समृद्ध बनाने के लिए भक्ति योग का आश्रय लेना पड़ता है।


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