सूर्योपासना से आरोग्य की प्राप्ति

August 1989

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वैदिक संस्कृति में सूर्य उपासना से लेकर उसकी समीपता तक की विशेषताओं का भरपूर लाभ उठाने के लिए कहा गया है। ऋषि युग के व्यक्ति कटिवस्त्र और उत्तरीय जैसे हलके और न्यूनतम वस्त्र धारण करते थे और शरीर को अधिकतर खुली हवा एवं सौर ऊर्जा का लाभ लेने के लिए खुला रखते थे। रोग निवारण में सूर्योपचार से कैसे लाभ उठाया जा सकता है, इसकी विधि-व्यवस्था भी उन दिनों सर्वविदित थी। उनके दीर्घ जीवन एवं सुदृढ़ आरोग्य के कारणों में सूर्य सेवन भी अति महत्वपूर्ण रहा है।

वेदों में सूर्य सेवन के लाभों पर जहाँ तहाँ महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है और उससे लाभान्वित होते रहने का परामर्श दिया है यथा ‘उद्यन्नादिव्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोग मनीनशः।’ (अथर्ववेद-....) अर्थात् प्रातःकाल की आदित्य किरणों से अनेकों व्याध्यों का नाश होता है। इस संदर्भ में सुश्रुत का कथन है-’सूर्य रश्मियों के दैनिक प्रयोग से मनुष्य कफ, पित, और वायु दोषों से उत्पन्न रोगों से मुक्त होकर सौ वर्ष पर्यन्त जीवित रह सकता है।

सूर्य का वाहन सप्तअश्व वाला रथ है। यह सात अश्व सात रंग की सात किरणें हैं जो प्रकृति क अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र संचालन करती हैं। साथ ही उनमें सन्निहित सात रंग रोगों की निवृत्ति और आरोग्य की अभिवृद्धि में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस संदर्भ में सूर्य रश्मिचिकित्सा क्रोमोथेरैपी का आविष्कार हो चुका है और उसका उत्साहवर्धक विस्तार हो रहा है।

सामान्यतः सूर्य किरणों में सातों रंग मिले रहते हैं, पर उनमें से किसी या किन्हीं रंग को आवश्यकतानुसार ग्रहण करने या छोड़ने की व्यवस्था भी बन सकती है। सूर्य किरण चिकित्सा का यही आधार हैं रंगीन काँच में से छन कर आने वाली धूम में यह विशेषता है कि वह काँच के रंग वाली किरणों को ही पार होने देती है और शेष को ऊपर ही रोक लेती है। शरीर और सूर्य के बीच में जिस रंग का काँच रखा जायगा उसी वर्ण की किरणों का लाभ मिलेगा। इससे चिकित्सा उपचार में जिन्हें अनावश्यक -समझा जायगा उन्हें उसी अवरोध को मध्यवर्ती बनाकर अलग रखा जा सकेगा।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञानियों ने सूर्य की सप्तवर्णी किरणों में सन्निहित जीवनदायी क्षमताओं को खोज निकाला है और पाया है कि इन रश्मियों से जीवनीशक्ति को बढ़ाया-या घटाया जा सकता है। इन्फ्रारेड, अल्ट्रावायलेट, एक्सरे आदि की क्षमता तो चिकित्सा जगत में सर्वविदित ही है। वैज्ञानिकों ने अब लेसर जैसी मृत्यु किरणों का भी आविष्कार कर लिया है। जिसके माध्यम से क्षेत्र विशेष के प्राणियों तक का संहार किया जा सकता है। इन किरणों का प्रयोग जहाँ विघातक प्रतिफल प्रस्तुत करता है वहीं स्वास्थ्य रक्षा से लेकर समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन की रक्षा करता है। इनमें इन्फ्रारेड किरणें मानवी काया सहित समस्त प्राणियों को गरम रखने एवं जैव रासायनिक क्रियाओं को तीव्र करने का कार्य करती हैं। अल्ट्रावायलेट किरणों से हमारे शरीर में विटामिन ‘डी’ का निर्माण होता है। सूर्य चिकित्सा पर अनुसंधानरत सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक विलियम फिल्डिंग ने अपने विभिन्न परीक्षणों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि इन रश्मियों के प्रकंपन रक्त कणिकाओं विशेषकर लाल रक्त कणों की संख्या में आश्चर्य जनक रूप से अभिवृद्धि करते है। हैं। कैल्शियम, फास्फोरस आदि खनिज लवणों को शरीरोपयोगी बनाने का कार्य भी इन्हीं के द्वारा सम्पन्न होता है। लेसर किरणों को कृत्रिम रूप से पैदा करके रोगों के उपचार में अब प्रयोग होने लगा है। प्रकाश रश्मियों का प्रत्यक्ष रूप से उपयोग अन्य कृत्रिम उपायों से प्राप्त लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा रहता है।

प्रकाश के अभाव में शरीर का बाह्य स्वरूप ही प्रभावित नहीं होता, वरन् उसके आतंकित-अवयवों और उनकी प्रक्रियाओं पर भी उतना ही कुप्रभाव पड़ता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के रोगों का शिकार बनना पड़ता है उसकी जैविकलय बायोलॉजिकल रिद्म गड़बड़ा जाती है और मानसिक विकृतियाँ घेर लेती है। इस संदर्भ में यू.एस. एस.आर.एकेडेमी के वरिष्ठ सदस्य एवं इंस्टीट्यूट ऑफ साइटोलॉजी एण्ड जेनेटिक्स के संचालक डा. डी.के बेलियायेव ने गहन अनुसंधान किया है। सिद्ध कर दिखाया है कि सूर्य संपर्क से मनुष्य अपने जीवन लय को व्यवस्थित एवं नियमित बना सकता है। इतना ही नहीं वह इसे नियंत्रित कर वाँछित दिशा में मोड़-मरोड़ कर अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति भी कर सकता है।

जर्मनी के प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी डा. लुईकुनी का कहना है कि सूर्योपासना में रोगों को नष्ट करने एवं प्राणी मात्र को स्वास्थ्य और नवजीवन प्रदान करने की अपूर्व प्राकृतिक शक्ति है। उन्होंने कई रोगों के उपचार के लिए सूर्य-किरणों का उपयोग सफलतापूर्वक किया। इसी तरह द्वितीय महायुद्ध के समय प्रसिद्ध चिकित्सक डा. सोरेल ने भी घायल सिपाहियों के उपचार के लिए रवि रश्मियों का उपयोग किया था। पहले तो उन्होंने केवल घावों पर सूर्य रश्मियों का प्रयोग किया, बाद में पूरे शरीर पर प्रयोग करके देखा तो अपेक्षाकृत अधिक लाभ हुआ। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञानी हिपोक्रेट्स सूर्य किरणों द्वारा लोगों की चिकित्सा करने के लिए विख्यात थे। अमेरिका के चिकित्साशास्त्री डा. जॉन ठोन ने इस माध्यम से क्षय जैसी प्राणघातक बीमारी से कितने ही रोगियों की जीवन रक्षा की है।

सूर्य चिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि सभी प्रकार के रोगों में सूर्य की किरणों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। भूख ने लगना, डिसेन्ट्री, खाँसी, त्वचा विकार, नेत्र रोग, मानसिक असन्तुलन आदि सबसे सूर्य किरणों की लाभदायक शक्ति का उपयोग हो सकता है। कैल्शियम की कमी एवं विटामिन ‘डी’ की अल्पता में तो इन रश्मियों का उपयोग लाभप्रद है ही।

इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध सूर्य चिकित्सा विज्ञानी डा. स्किली का कहना है कि रोगों से छुटकारा पाने, स्वस्थ होने के लिए रवि-रश्मियों का विधिवत् उपयोग अत्यन्त लाभकारी होता है। प्रातः धूप में बैठना शारीरिक कान्ति वृद्धि के लिए असीम उपयोगी है। फेफड़े के टी.वी. में प्रकाश किरणें सीधे शरीर पर न पड़ने पायें बल्कि कपड़े या काँच से छनकर आती हुई किरणों का उपयोग किया जाय।

शीत प्रधान देशों में जब धुन्ध और बदली नहीं रहती और स्वच्छ प्रकार धरती पर आता है तो लोग सूर्य सेवन के लिए आतुर हो उठते है। शरीर को लज्जावस्त्र के अतिरिक्त निर्वस्त्र करके उस पर खुली किरणें देर तक पड़ने देते हैं। उन देशों में सूर्य सेवन को अलभ्य अवसर मानकर उसका लाभ आतुरता पूर्वक उठाने के लिए अनेक विधि-विधान बनाये गये हैं। पर भारत जैसे देशों में तो वह सहज सुलभ है। इसलिए यहाँ मध्याह्न की तेज धूप से बचने एवं प्रातःकाल की स्वर्णिम रश्मियों को अधिक हितकारक मानने का जो प्रचलन है उसी को पर्याप्त माना जा सकता है। सूर्य सान्निध्य शक्ति सम्वर्धन एवं रोग निवारण दोनों ही दृष्टियों से एक दैवी वरदान है।


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