प्रभावोत्पादक समर्थता

August 1989

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आम शिकायत एक ही सुनी जाती है कि हम लोगों को सिद्धान्तवादी परामर्श देते हैं, पर वे ध्यान नहीं देते, स्वीकारते नहीं इस कान से सुनते, उस कान से निकाल देते हैं। प्रभाव नहीं पड़ता और जो कहा गया है, उस पर चलने के लिए कोई तैयार नहीं होता।

असफलता की यह शिकायत पूरी तरह सही है। यदि वह गलत रही होती तो जितने धर्मोपदेशक आज हैं, उससे पहले वाले दिनों में भी कम नहीं थे, उनने जमाने को बदल दिया होता। कभी देश में प्रधान सात ऋषि थे। कुछ उनके शिष्य भक्त भी होंगे और उनका व्यक्तिगत संपर्क भी काम करता होगा। पर वह सब नगण्य ही था। उनके निजी व्यक्तित्व इतने प्रभावशाली थे कि कहते हैं कि सातों ने सात द्वीपों में-समूचे संसार में धर्मधारणा की ऐसी हवा चलाई जिससे कोई भी प्रभावित हुए बिना न रहा। देश में साधु-ब्राह्मण सीमित संख्या में थे, पर वे स्थानीय समस्याओं के समाधान से लेकर बिखरे हुए देश के कोने-कोने में पहुँचते थे और उन्हें अनगढ़पन से छुड़ाकर कर्मठता एवं सद्भावना से अनुप्राणित करते थे। जब प्राचीनकाल में धर्मप्रचार के जादुई चमत्कार देखने को मिलते रहे है तो आज उस प्रक्रिया के विपरीत शिकायत करनी पड़े? इसके पीछे कोई बड़ा रहस्यमय कारण होना चाहिए। अन्यथा जो पहले पानी बरसाते थे और अब क्यों धूलि बरसाये और क्यों हर किसी को शिकायत का मौका दें।

यहाँ समझने योग्य बात एक ही है कि वरिष्ठ व्यक्तित्व ही सामान्य जनों को प्रभावित करते हैं। घटिया लोगों में इतनी क्षमता नहीं होती कि हर किसी को अपने कथन की प्रामाणिकता का विश्वास दिला सकें। जो उत्कृष्टता के पक्षधर परामर्श को अपनाने के लिए किसी को सहमत कर सके।

वक्ता ऊँचे मंच पर बैठा करते हैं और श्रवणकर्ता उनसे तनिक नीचे बैठे होने पर कही गई बात को आसानी से सुन लेते हैं। यदि वक्ता नीचे गड्ढे में बैठा हो तो ऊपर बैठे श्रवण कर्ताओं तक बात पहुँचाना कठिन होता है। प्रसंग जब आदर्शों को अपनाने का होता हे तो वक्ता को उसकी कसौटी पर हर दृष्टि से कसे जाने के उपरान्त सही सिद्ध होना चाहिए, अन्यथा कथन-प्रतिपादन हवा में उड़कर रह जायगा।

लोगों का भी अनुमान यही है कि आदर्शों की बात कहने-सुनने भर तक ही सीमित रखने योग्य हे। उसे व्यवहार में नहीं उतारा जा सकता। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि यदि यह संभव रहा होता तो प्रतिपादन पर इतना जोर लगाने वाले पंडित उसे अपने निजी जीवन में अवश्य कार्यान्वित कर सके होते। लोग वक्तृता सुनने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात में लेते हैं कि जो कहा जा रहा है उसे उपदेशक ने अपने निजी जीवन में किस हदतक अपनाया?

शिल्प विज्ञान, गणित, भाषा आदि कि अतिरिक्त जहाँ तक लोकशिक्षण का विषय है वहाँ आत्म परिष्कार और सृजन समाधान के प्रसंग प्रमुख हैं। देश, धर्म, समाज और संस्कृति का अभ्युदय इसी पर निर्भर है कि इससे सम्बन्धित व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की गरिमा से संपर्क में आने वालों को उस विशिष्टता से प्रभावित करे जो आडंबर बनाने से नहीं वरन् भावना, श्रद्धा और जीवनचर्या के साथ जुड़ी हुई निष्ठा पर अवलम्बित है।

बुरे लोग यदि दबंग होते हैं तो साधारण स्तर के अनेक लोगों को अपने दुर्व्यसनों में सहयोगी बनाने के लिए घसीट लेते है। नशेबाजों की मण्डलियाँ बन जाती हैं। चोर लफंगे भी गिरोह बना लेते हैं। वेश्यावृत्ति जहाँ कहीं पैर जमाती है वहीं देखते देखते दायरा बढ़ा लेती है और चाण्डाल चौकड़ी का विस्तार कर लेती है। उद्दण्डता और अनाचारियों के साथी सहयोगी प्रायः बनते रहते हैं। इसका कारण मात्र यही नहीं है कि दुष्प्रवृत्तियों की ओर कुसंस्कारी मन सहज ही आकर्षित होता है। वरन् उससे भी बड़ा कारण यह है कि इस प्रकार के सूत्र संचालकों की कथनी और करनी में एकता होती है। भले ही वह बुरे स्तर की ही क्यों न हो? बिजली के दो तार मिलने पर ही करेन्ट चालू होता है। .... में प्रभाव तभी उत्पन्न होता है जब कहने वाला वैसा ही आचरण कर रहा हो, वैसे ही नियंत्रण अपने पर किये हो जैसा कि अन्यों के सामने उसने अपनी बात प्रस्तुत की है।

आदर्शों के उपदेशकों के लिए एक कड़ी परीक्षा यह है कि वह जिस स्तर पर लोगों को उठाना चाहता है, जैसा परिवर्तन औरों में कर दिखाना चाहता है उसका नमूना अपने को बना कर दिखाये। अन्यथा लोग यही मानते रहे हैं कि वह कथन निभा रहा होता तो उसे उपदेष्टा ने अपने जीवन में ही चरितार्थ करके क्यों न दिखाया होता। जब इतने जोर शोर से अन्यान्यों में बदलाव लाने की बात करता है और उसका महात्म्य फलितार्थ भी उच्च कोटि का बताता है तो उसे अपने आचरण में क्यों नहीं लाता? इस प्रश्न के उत्तर में दो ही बातें उभर कर आती हैं। एक तो यह कि कथन व्यावहारिक नहीं है। सुधार संभव नहीं है। आम लोग जो रीति-नीति अपनाए हुए हैं वही ठीक है। यदि सुधारवादी कथन ठीक है और उसका मार्गदर्शन करने वाले उपदेष्टा उसे स्वयं करने से कतराता है तो यह समझा जा सकता है कि कहने वाला ठग है। दूसरों को फुसलाने वालों से अपना सम्मान कराना चाहता है और स्वयं घटियापन अपनाकर उन लाभों को उठाना चाहता है जिन्हें स्वार्थपरायण लोग अपने ढंग से अपनाते और लाभ उठाते रहे हैं। यही वे सन्देह हैं जिनके कारण आदर्शवाद के उपदेशकों पर से जनसाधारण की निष्ठा उठती जाती है। उनकी वाणी का सम्मोहन ही पसन्द किया जाता है और मात्र उत्सव की शोभा के लिए उन्हें बुलाते हैं। मदारी और दर्शक दोनों ही अपने अपने ढंग से प्रसन्न हो लेते हैं पर उस शक्ति का उदय होता ही नहीं जो जन जीवन में उल्लास उत्पन्न करती है। अपने में बदलाव लाने पर साथियों का विरोध करती है और अन्य आदर्शवादियों की तरह लौकिक रूप से घाटे में भी रहती है। सिद्धान्तवादिता अपनाने पर तो उसकी वास्तविकता अवास्तविकता को हर पैमाने से नापा जाता है। यह गृहस्थियों, तपस्वियों, संत ब्राह्मणों और महामानवों का कार्य है। इस पर चलने वाले तक को निष्ठावान बनना पड़ता है, फिर उसका नेतृत्व मार्गदर्शन जो लोग करते हैं उनका निजी स्तर तो और भी ऊँचा होना चाहिए। वह न बन पड़े बेल पेड़ पर कैसे चढ़े उपदेश गले कैसे उतरे? उस कथन पर कोई ध्यान कैसे दे? उसे अपनाने पर ढर्रा बदलने वालों को जो अड़चने उठानी पड़ती हैं उन्हें क्यों और किस लिए उठायें? साँचे में खिलौने और पुर्जे ढाले जाते हैं। जहाँ ढाँचा ही टेढ़ा हो तो उसमें ढलने वाली वस्तु किस प्रकार सही बने? क्यों कर सही उतरे?

विचार क्रान्ति वकीलों जैसी दलीलें देने से संभव नहीं हो सकती है। उसमें तो अधिक से अधिक यह हो सकता है कि भ्रान्तियों का निवारण बन पड़े। किन्तु कुप्रचलन मात्र इसी कारण नहीं चल पड़े होते हैं। उनके पीछे व्यक्तिगत स्वार्थपरता, अहमन्यता, दूसरों के प्रति उपेक्षा जैसी दुष्ट मान्यताएँ भी छद्म रूप से काम कर रही होती हैं यदि उन पर अंकुश लगाते न बन पड़े तो तथा कथित सुधारक भी मुखौटे बदलते रहने वाले बहुरूपिये मात्र बन कर रह जाते हैं। देखा गया है कि बेटी का विवाह सामने होने पर सभी लोग दहेज विरोधी बनते हैं। पर जब बेटे के व्याह की बारी आती हैं तो प्रकट या गुप्त रूप से लाभ उठाने में चूकते नहीं है। यही कारण है कि “खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती है “ का उद्घोष करते तो अनेकों हैं, पर उसका पालन करने का समय आने पर वे उद्घोषकर्ता ही मुखौटे बदल लेते हैं और वह अति महत्वपूर्ण आन्दोलन मात्र प्रोपेगैंडा का उपहासास्पद विषय बन कर रह जाता है।

धर्मोपदेश देने वाले सच्चे अर्थों में पालन करें, तो कोई कारण नहीं कि अनुकरणकर्ताओं की कमी रहे। ऐसे अनेक सन्त हुए है जिनने अपने सशक्त प्रचार से लोगों को आन्दोलित ही नहीं उन प्रतिपादनों को कार्य रूप में परिणत करते हुए घाटा और संकट भी उठाया है। नानक, कबीर जैसे सन्तों की प्रामाणिकता और प्रखरता भावनाशीलों को असाधारण रूप से आन्दोलित करती और असंख्यों को ऐसे अनुयायी बनाती रही है जो कष्ट कठिनाइयों की कसौटियों पर भी लगातार खरे उतरते रहे।

मैले कपड़े को धोने के लिए अच्छा साबुन और साफ पानी चाहिए। कीचड़ से कीचड़ को धोया जा सकना संभव नहीं। काँच को तराशने के लिए हीरे की नोंक वाली कलम चाहिए। इससे कम में उसके टूटने का खतरा है। पानी की भाप बनाने के लिए उबलने जितनी गर्मी का तापमान चाहिए। सही साधनों से ही सही प्रयोजन सधते हैं। धारदार चाकू ही कड़ी चीजें काटने के काम आते हैं। ऊँचे उद्देश्यों की प्राप्ति और पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्तित्व चाहिए जो वाणी या लेखनी से उपदेश देने की प्रक्रिया अपनाकर कर्तव्य की इतिश्री न मान लें। वरन् ऐसे प्रतिभाशाली चाहिए जो प्रयोग को अपने ऊपर करने के उपरान्त दूसरों को यह विश्वास दिला सकें कि उपदेष्टा की अपने प्रतिपादन पर कितनी गहरी निष्ठा है। इस प्रकार का विश्वास दिलाने के लिए अपने आप या चमचों द्वारा प्रशंसा के पुल बाँधना अपर्याप्त है क्योंकि लोगों का मन इन दिनों कम शंकाशील नहीं है। दूध का जला बिना फूँके छाछ को भी पीने के लिए तैयार नहीं। प्रभावित मात्र वे ही होते हैं जिनने निकट से किसी को जाना परखा है। इससे कम में कोई किसी पर इतना विश्वास नहीं कर सकता कि अपनी अभ्यस्त मान्यताओं को बदले और ऐसे राह अपनाये जिसमें अपने आप से तथा दूसरे सहकर्मियों के साथ झंझट मोल लिए बिना परिवर्तित दिशा में चल पड़ना संभव ही नहीं हो सकता।

प्रस्तुत कठिनाइयों से निबटने का निर्धारण लगभग सही स्तर का मिल गया है कि लोक मानस को भ्रान्तियों से उबारा और परिष्कार कर विवेकशीलता अपनाने के लिए तर्क, तथ्य, अनुभव और प्रमाणों के आधार पर सहमत किया जाय। यही विचार क्रान्ति हैं इसका दूसरा चरण है क्रियात्मक परिवर्तन। इसे दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन भी कह सकते हैं। प्रवाह को रोकने और उलटे को उलटने के लिए साहस भरा पुरुषार्थ चाहिए। प्रतिभा परिष्कार इसी का नाम है। इन दिनों यही दो चरण बढ़ाते हुए महाक्रान्ति का लक्ष्य पूरा करना संभव है। सतयुगी प्रचलन के लिए वातावरण बनाना इसी आधार पर बन पड़ेगा।

निर्णायक निर्धारण यह है कि इसके लिए जीवट के धनी प्राणवान् प्रतिभाओं का भावभरा समयदान चाहिए। दानों में सर्वोत्कृष्ट समयदान इसलिए माना गया है कि उसमें ईश्वर प्रदत्त समय, शरीरगत पुरुषार्थ का प्रत्यक्ष रूप श्रम और अन्तःकरण की भावसंवेदना का गहरा पुट रहने पर ही यह प्रक्रिया सशक्त रूप में बन पड़ती है। प्रभावी समयदान वही है जिसमें समय, श्रम और संकल्प का त्रिविध समन्वय परिपूर्ण रूप में हुआ हो। ऐसा समयदान ही युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया सम्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकता है।


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