भीड़ का नहीं न्याय का राज्य चले!

August 1989

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उन दिनों भीड़ का राज्य था। यों नाटक न्याय का ही रचा जाता था। पर भीड़ की चिल्लाहट में इंसाफ की आवाज इतनी धीमी पड़ती थी कि कोई उसे सुन ही न पाता था।

ईसा के तीखे उपदेश लोगों की धर्म भावनाओं को नई दिशा दे रहे और सुनने वालों को यथार्थता और परम्परा के बीच का अन्तर बता रहे थे। पुरातन पंथियों के लिए इस प्रकार के प्रयास सदा रोष का कारण बनते रहे हैं। ईसा भी उससे बच न सके।

उस वर्ष महायाजिक ‘हन्ना’ था धर्म पुरोहित ही अभियोग बनाते थे और हाकिम दण्ड देता था। हन्ना चाहते थे कि ढर्रे में अवरोध उत्पन्न करने वाले ईसा को प्राण दंड मिले। सो उनके अधीनस्थ पुरोहितों ने जाकर उन्हें पकड़ा और महायाजक के सामने उपस्थिति किया।

याजक ने पूछा-”क्या तुमने धर्म और राजा के विरुद्ध विद्रोह करने के उपदेश दिये है?”

ईसा ने कहा -”मैंने जो कुछ कहा है ख्ले में और मन्दिरों के आँगन में कहा है-सो सुनने वालों से ही पूछिये कि क्या मैंने ऐसा कुछ कहा है?”

एक पुरोहित ने ईसा को चाँटा मारा और कहा”महायाजक के सामने बढ़ चढ़ कर बोलता है?”

ईसा ने कहा-”मैं झूठ कहता हूँ तो कहो मैंने क्या झूठ बोला? बिना कारण मारने से क्या होगा?”

पुरोहित मण्डली के गवाह आगे आये। उसने कहा “यह कहता है पुराने मन्दिरों के स्थान पर नये मन्दिर खड़े होने चाहिए। पुराने राजा के स्थान पर नये राजा का शासन स्वीकार करना चाहिए।”

ईसा ने कहा- “मैंने मन्दिरों का नहीं उनकी आड़ में पलने वाली अधार्मिकता का विरोध किया है और धरती के राजा के विरोध में नहीं स्वर्ग के राजा के शासन के बारे में कहा है।”

महाजायक ने प्रतिवादी की एक न मानी और दोष लगाने वालों की बातों पर ही कान धरते रहे। उन्होंने अपराध लगाते हुए प्राण दण्ड देने की सिफारिश के साथ ईसा को न्यायाधिकारी पीलातुस के पास भेज दिया।

पीलातुस ने छानबीन की और ऐसा कुछ न पाया। वह चाहते थे इस निर्दोष को दण्ड न दिया जाय। पर भीड़ ने चिल्लाकर कहा “ईसा विद्रोही है उसे फाँसी पर लटकाया जाना चाहिए।” न्यायाधिकारी ने पूछा-”क्या कोड़े लगाने की सजा से काम चल सकता है? भीड़ के राज्य में न्यायाधिकारी की क्या चलती है। ईसा को क्रूस की ओर घसीटा जाने लगा तो पीलातुस ने एक और प्रयत्न किया उस दिन पर्व का दिन था। पर्व पर एक अपराधी को क्षमादान दिये जाने की प्रथा थी। सामने दो अपराधी थे। एक हत्यारा डाकू वरअब्वा, दूसरे ईसा। दोनों में से न्यायाधीश ईसा को छोड़ना चाहते थे। पर भीड़ चिल्लाई “वरअब्वा को भले ही छोड़ दिया जाय पर ईसा को तो क्रूस पर ही चढ़ना चाहिए।”

न्याय की एक न चली, हुआ वही जो भीड़ ने चाहा।

भीड़ में इतनी समझ कहाँ होती है कि वह विवेकपूर्ण निर्णय कर सके। आवेश के प्रवाह में लोग किधर भी बहते रहते हैं। इसलिए भीड़ की माँग को नहीं, न्याय की पुकार को मान्यता मिलनी चाहिए। ईसा के पवित्र बलिदान से निकले,यह निष्कर्ष अनन्त काल तक आकाश में गूँजता रहेगा।


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