महत्वाकाँक्षाओं के व्यामोह में न उलझें!

August 1989

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महत्वाकाँक्षा का मतलब है महत्व को जिस-तिस तरह हथिया लेने की ललक। इस तरह के लोगों के प्रयत्न-पुरुषार्थ इसी घेरे में सिमट कर रह जाता हैं। उन्हें न किसी की हानि से मतलब होता है न लाभ से। समूची शक्तियों की खपत इसी में होती रहती है कि महत्व को कैसे पाया जाय?

आकाँक्षाएँ अपने आप में बुरी नहीं यदि उनका नियोजन सदुद्देश्य में किया जाय। इनसे जीवन में क्रियाशीलता बनी रहती है। सामान्य इच्छाओं के दायरे से ऊपर उठे महापुरुष भी लोक कल्याण की आकाँक्षा बनाए रखते हैं, उनकी सारी सक्रियता इसी में नियोजित होती रहती है। आकाँक्षा का स्वरूप एवं सक्रियता का समुचित नियोजन उन्हें महानता की प्राप्ति कराने वाला होता है। किन्तु यदि आकाँक्षाओं का दायरा-सिर्फ महानता के महत्व पाने भर में सिमट जाय-तो छद्म पनपना स्वाभाविक है।

अक्सर लोग महान बनने की आकाँक्षा और महत्वाकाँक्षा को एक दूसरे का समानार्थी मान लेते हैं। किन्तु असलियत में यह एक भूल है। महान बनने का प्रयत्न एक साधना है। इसमें व्यक्ति को गुणवान बनने के लिए लगातार पुरुषार्थ करना होता है इसके बाद कहीं महानता की सीढ़ी पर चढ़ पाना बन पड़ता है इन महान लोगों के सम्मुख सहज ही लोगों का मस्तक नत होता है। इसे कमाना कष्ट साध्य हैं महत्वाकाँक्षी व्यक्ति की रुचि इन कष्ट साध्य प्रयत्नों में नहीं होती। महानता के महत्व को वह जैसे-तैसे पाना चाहता है, ताकि लोग उसे भी प्रणाम करें, गरिमापूर्ण समझें। इसे यों भी कहा जा सकता है कि उसकी चाहत होने की नहीं दिखाने की है।

इतिहास ऐसे लोगों के क्रियाकलापों से भरा पड़ा है। इन्होंने महत्व को अपनी झोली में डालने के लिए जो कुछ किया, उससे मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है। सिकन्दर, हिटलर आदि राजाओं को विश्व विजयी होने के सम्मान पाने के लिए लाखों-करोड़ों लोगों को मारने- काटने में तनिक भी तकलीफ नहीं हुई। यही बात नेपोलियन, मुसोलिनी के सम्बन्ध में भी है। भारत के इतिहास में भी ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने पिता को मार कर राज सिंहासन के महत्व को हथियाया। इनकी दृष्टि में किसी भी स्नेह पूर्ण सम्बंध मर्यादाओं का कोई स्थान नहीं है इन्हें चाहिए सिर्फ महत्व।

धार्मिक महत्वाकाँक्षा किसी भी व्यक्ति को धूर्त और पाखण्डी बना देते के लिए काफी है। जो होता नहीं ऐसी अच्छाइयों को दिखाने का प्रयत्न और भीतर की कमजोरियों को छुपाने की कोशिश पाखंडीपन की शुरुआत है, जो बढ़ते बढ़ते विषवृक्ष का रूप ले लेती है। इस क्षेत्र में जिस तपोमय जीवन की अनिवार्यता है, उसके लिए तो हिम्मत नहीं पड़ती। सरल यही लगता कि धार्मिक होने का जो महत्व है उसे जिस किसी तरह समेट लिया जाय। इसी समेटने के चक्कर ने सैकड़ों भगवान, अवतार, लाखों गुरु पैदा कर दिए हैं। धार्मिक उपकरण, वेश विन्यास, परिवेश भोग और सम्मान के सेवक बनते चले जा रहे हैं।

यही दशा सामाजिक क्षेत्र में है। महत्व लूटने की चाह ऐसे अवसर स्थितियाँ तलाशती रहती हैं जिसको पाकर इस चाहत को पूरा किया जा सके। यही कारण है कि सम्मान पाने के लिए नकली समाज सेवी, पनपते हैं। अमीरी पाने के लिए चोरी, बटमारी, तस्करी फैलती है। धनिक बनने के लिए सही तरीके भी है पर इसके लिए जो जरूरी है उसे करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती।

पारिवारिक क्षेत्र में यही स्थिति है। हर परिवार की यही चाहत रहती है कि उसे श्रेष्ठ समझा जाय। श्रेष्ठता पाने के अनेक तरीके हैं, पर उद्देश्य श्रेष्ठ बनना नहीं श्रेष्ठ दिखना है। इस दिखावट के लिए भाँति- भाँति के फैशन असली नकली जेवर खुद के अथवा उधार माँगे कपड़े और न जाने क्या क्या इस्तेमाल किया जाता है। कोशिश यही रहती है, जनमानस के द्वारा हमें सम्मान मिले।’

महत्व को पाने की ललक ऐसा विष है, जो जिस क्षेत्र में घुलेगा, उसे विषैला बनाएगा इसकी टोह में लगा आदमी अन्दर से नीति, मर्यादाओं, अनुशासन की अवहेलना करते हुए बाहर से नैतिक, मर्यादित और अनुशासनप्रिय दिखाने का प्रयत्न करता है। क्योंकि उसकी नियत नीति-मर्यादाओं से मिलने वाले महत्व अर्थात् लोक सम्मान को किसी भी तरह पाने की होती है।

इस तरह नैतिकता या अच्छाई का खोल ओढ़े लोगों से अनैतिक अमर्यादित दिखने वाले लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक खतरा है। बुराई बुराई हे पर अच्छाई के गर्भ में बुराई को भरण-पोषण मिलना और अधिक भयंकर है पाप को समझ लेने के बाद उससे बचा जा सकता है, लेकिन जो पाप पुण्य की आड़ में किया जाता है। किसी निश्चित चीज को हथियाने के लिए पाप को पुण्य बताने और स्थापना करने की हिमाकत की जाती है, उससे बच पाना बहुत कठिन है। बुराई का अपना कोई स्थान नहीं वह अच्छाई में घुसकर पनपती है।

शत्रु से बचाव आसान है, पर मित्र बने शत्रु से बच पाना असम्भवप्राय है। जितने व्यक्ति जहर से नहीं मरते उतने मिठाई में जहर छिपा कर दिये जाने से समाप्त हो जाते हैं। डाकू को पहचानना और उससे बचना सामान्य क्रम है किन्तु साधु के वेष में घूमने वाले डाकू से बच पाना आसान नहीं है। डाकू संसार की जितनी हानि नहीं करते तथा कथित सफेद पाश उससे कहीं अधिक परेशानी खड़ी करते हैं।

इन सब परेशानियों से बचने एवं स्वयं के जीवन तथा सामाजिक परिवेश को परिष्कृत करने के लिए अच्छा यही है कि महत्वाकाँक्षी बनने की अपेक्षा महानता को वरण करना सीखें। वास्तविक महत्ता गरिमा, तो इसी को जीवन में उतारने पर प्रस्फुटित होती है। ज्यों-ज्यों गुणवान होने की ओर कदम बढ़ते हैं, सुख-संतोष की यथार्थता अनुभव होने लगती है। जबकि केवल महत्व को तलाशने वाला इसे पा लेने पर भी अन्तर के ताप से सन्तप्त रहता है। उसे स्वयं की स्थिति में किसी तरह सन्तोष नहीं होता, हमेशा यही डर बना रहता है कि कहीं भेद न खुल जाय। कोई विरोधी हमारी स्थिति को झटक न ले।

जबकि महानता कमाई जाती है इसे किसी तरह छीनना-झपटना सम्भव नहीं। अच्छा यही है कि हम जैसे हैं, वैसे ही बाहर दिखें। अपनी स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का प्रयत्न विकास की राह से भ्रष्ट कर देता हैं। स्वयं की स्थिति का यथार्थ भाव रहने पर ही आगे बढ़ने के लिए पुरुषार्थ कर पाना सम्भव बन पड़ता है। धीरे-धीरे किन्तु सतत् इस ओर बढ़ने से जैसे-जैसे गुणों का विकास होता जाता है महानता उसी अनुपात में आती जाती है। इसका सम्बन्ध किसी बाह्य पद प्रतिष्ठा, सम्मान से न होकर अन्तराल की विकसित स्थिति से है।

कबीर-रैदास के पास किसी तरह का बाहरी सम्मान न था किन्तु इसके बाद भी उनकी महानता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। महानता के साथ महत्व भी जुड़ा हुआ है पर दूसरे से मिलने वाला महत्व नहीं आत्म गौरव से गौरवान्वित होने का महत्व। जिसे एक बार पा लेने पर फिर वंचित नहीं होना पड़ता। इसे पा लेने पर शारीरिक स्तर पर सुख मानसिक स्तर पर शान्ति एवं आत्मिक स्तर पर आनन्द का सतत् अनुभव किया जा सकता है। इसे उपलब्ध करने के ब्यामोह में न उलझ कर हमारे कदम महानता की ओर बढ़ें।


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