समयदान-महादान

August 1989

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दान के साथ जो पुण्यार्थ बोधक मान्यता जुड़ी हुई है, उसके साथ पूर्व मान्यता यह भी जुड़ी रहती है कि सत्प्रयोजनों के लिए श्रद्धासिक्त भाव संवेदना के साथ दान की शर्त आरंभ में ही पूरी कर ली गई है। यदि ऐसा नहीं है व उसके साथ दुरभिसंधियाँ जुड़ी रहें तो प्रतिक्रिया और परिस्थिति के अनुरूप वह पाप के समकक्ष है और देने वाले तथा लेने वाले दोनों को ही बदनाम करने के साथ साथ उनके लिए अनर्थ भी उत्पन्न कर सकता है। इसलिए दान भावना को चरितार्थ करने के साथ साथ उत्कृष्टता और विवेकशीलता की शर्त भी पूरी कर ली गई होगी, यही अपेक्षा रखी जाती है। यह अनुभव पूरा होने पर ही यह आशा की जाती है कि दान के साथ जुड़ा हुआ पुण्य-परमार्थ सभी के लिए सब प्रकार श्रेयष्कर होगा। अवाँछनीयता जुड़ जाने पर तो वह अनुचित ही नहीं अहितकर भी कहा जायेगा।

प्रीतिभोज पर बुलाये गये आमंत्रकों को सुस्वादु भोजन परोसने के साथ साथ यदि किसी कारण उसमें विषाक्तता मिल जाय तो खाने वाले बीमार पड़ेंगे और खिलाने वाले को पुलिस कचहरी में धमकाया जायेगा। खोटे सिक्के दान करने वाले को उन्हें चलाने का व्यवसायी मानकर शासन के शिकंजे में कसा जायगा। मरणासन्न गाय का दान करने पर वह वैतरणी पार करवा, देगी, यह आशा नहीं की जानी चाहिए। विक्षिप्त लड़की का कन्यादान कर देने पर पता चलते ही ससुराल वाले धोखा धड़ी का इल्जाम लगायेंगे। धन दान का दान शब्द के साथ जुड़ा हुआ सम्मान और श्रेय तभी मिलता है जब उसका औचित्य हर कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त और भी खरा उतरता है। उसके साथ सत्प्रवृत्ति संवर्धन -उत्कृष्ट भाव संवेदना का समुचित समावेश रखा गया हो।

दान परिवार में धन के उपरान्त दूसरे पदार्थ ‘समय’ की ही गणना होती है। वह सर्व साधारण के लिए सुलभ भी है और उसके सदुपयोग की जाँच-पड़ताल मोटी बुद्धि से भी करते बन पड़ती है। विचारशीलों से परामर्श करने का उसके लिए सहज मार्गदर्शन भी मिल जाता है। स्वार्थी बहुत देर तक उसका अनुचित शोषण भी नहीं कर पाते।

श्रम जनित स्वेद कणों की तुलना मणि मुक्तकों से की गई है। महामानवों के श्रेष्ठ सत्कार्य इसी आधार पर बन पड़े हैं। कारण कि समयदान के साथ-साथ भाव श्रद्धा का गहरा पुट लगा रहना आवश्यक है। अन्यथा व्यस्तता जैसे अनेकों बहाने सहज अभ्यास के अनुरूप बन जायेंगे।

महान मनीषियों की साधना “समय” की तपशिला पर बैठ कर ही संभव हुई हैं उनने जो सोचा, जो सृजा है उसके पीछे उनकी तन्मयता भरी समय साधना ही रही है। वैज्ञानिकों-आविष्कारकों ने अपना मानस और समय प्रमुखतापूर्वक निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित न किया होता तो सफलता की आशा कहाँ बन पड़ती? लोक सेवियों ने अपने समय दान के सहारे एक से एक बड़े कार्य सम्पन्न कर दिखाये हैं। धन से अर्थ सम्पादन सधता है, पर समय को साथ लेकर तो फरहाद जैसे साधन हीन भी अपनी कुदाली के बल पर बत्तीस मील लम्बी नहर खोद कर ला सकने में सफल हो सकते हैं। जिनने इस ऊबड़-खाबड़ धरती को समतल और क्रियाकलाप के उपयुक्त बनाया उनने श्रम साधना को ही अपना आधार बनाया। प्रगति में यों साधनों का भी अपना योगदान रहा है पर उन्हें भी जुटाने में श्रम ही प्रमुख रूप से काम करता दिखाई देता है। साधन तो कुपात्रों के हाथ पड़कर अनर्थ भी कर सकते हैं, जबकि समझदारी के साथ की गई श्रम साधना के सुखद सत्परिणाम देखने को मिलते हैं। यहाँ इतना और याद रखना चाहिए कि समयदान की चर्चा करते समय उसके साथ लगन, मेहनत, हिम्मत और विवेक को भी पूरी तरह समाविष्ट समझा जाय, तभी बात पूरी तरह बन पड़ती है। अन्यथा समय तो किसी तरह भिखारी, आलसी, आवारा और दुर्व्यसनी भी काटते ही रहते है।

भारत की पुरातन गरिमा पर दृष्टिपात करते हैं तो उसके मूल में एक ही तथ्य उजागर होता है-साधु-ब्राह्मणों का-वानप्रस्थ परिव्राजकों का भावभरा योगदान। यह पुरोहित वर्ग न्यूनतम निर्वाह में अपने काम चलाता रहा और शेष सारा समय परिपूर्ण लगनशीलता के सहारे लोक मंगल की सामयिक आवश्यकताओं को पूरा करने में जुटता रहा। उनकी सेवा साधना ने जन-जन का मन जीता और परामर्श-प्रतिपादनों को जीवनक्रम में उतारने में कुछ उठा न रखा। व्यक्तित्वों में सन्निहित प्रतिभा इसी आधार पर प्रसुप्ति से विरत होकर जाग्रत कर्म निष्ठा में परिणत हुई और सर्वतोमुखी प्रगति का वातावरण बन बया। यही है, सतयुग में समुन्नत वातावरण बने रहने का प्रमुख कारण।

अनाचारों की रोकथाम के लिए शासन का राजदंड भी काम करता है, पर सद्भाव संवर्धन के लिए धर्मतंत्र की भाव-संवेदनाएँ ही समर्थ हो सकती हैं। सुख-शान्ति उसके अवलम्बन से बन पड़ती हैं। उत्कर्ष, अभ्युदय और विकास का आधार भी इसी के सहारे खड़ा होता है। इतिहास साक्षी है कि भारतीय परिव्राजकों ने विश्व के कोने-कोने में पहुँचने की कष्ट-साध्य यात्राएँ सम्पन्न कीं और वहाँ के पिछड़ेपन को हटाने एवं उत्कर्ष का बहुमुखी सरंजाम जुटाकर परिस्थितियों में जादुई परिवर्तन कर दिखाया। देशव्यापी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाये रहने में इस साधु-ब्राह्मण वर्ग का ही अथक प्रयास कार्यरत रहा है। उपयोगिता और गरिमा का मूल्याँकन करने वालों ने उन्हें भूसुर देवमानवों की पंक्ति में प्रतिपादित किया हैं। उनके अभिनंदन, सान्निध्य, मार्गदर्शन का अपने सर्वतोमुखी कल्याण का वर्णन किया है।

भारतीय धर्मतंत्र का एक अनिवार्य पक्ष रहा है-वानप्रस्थ। साँसारिक प्रयोजनों में जीवन की आधी अवधि लगाने के उपरान्त शेष आधी को लोक मंगल के लिए लगाया जाना आवश्यक माना जाता था। गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ हलकी-फुलकी रखी जाती थीं। कोई बुद्धिमान ऐसे परिवारों का सृजन नहीं करता था जिनका भार वहन करते-करते ही जिन्दगी का कचूमर निकल जाय। जो गृहस्थ में प्रवेश करते थे, वे भी न्यूनतम संख्या में सन्तानोत्पादन आरंभिक दिनों में ही पूरा कर लेते थे, ताकि अधेड़ होते-होते घर-परिवार के बंधन में इस बुरी तरह न बँधे रहें वैसा कुछ करते-धरते ही न बन पड़े, जिसके साथ मानव जीवन की सार्थकता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। स्वावलम्बन और सुसंस्कारिता के लिए समुचित मार्गदर्शन ही अभिभावकों को कर्तव्य रहता था। उत्तराधिकार में धन छोड़ मरने की बात तो कोई सोचता तक न था। कमाऊ व्यक्ति मिल जुलकर असमर्थ अविकसितों का भरण-पोषण कर लेते थे। हर घर पीछे एक व्यक्ति पूरे समय के लिए लोक मंगल के लिए समर्पित होता था। इसी में किसी गृहस्थ की शान समझी जाती थी। राजपूतों में से हर घर पीछे एक व्यक्ति सेना में भर्ती होता था। सिखों में से एक को गुरु कार्या के लिए समर्पित होकर रहना पड़ता था। उदारचेता, धर्मनिष्ठ परिवारों में से एक सदस्य जनकल्याण के लिए समर्पित किया जाता था। उसके हिस्से में आने वाली जिम्मेदारियों को घर के अन्य लोग मिलजुल कर पूरी कर लिया करते थे। यही थी वह महान परम्परा जिसके कारण भारत भूमि “स्वर्गादपि गरीयसी” रही और यहाँ के नागरिकों को देवमानव के रूप में समस्त संसार जानता था। इन देवमानवों की सेवा साधना ने ही इस देश को ज्ञानक्षेत्र में जगद्गुरु, विज्ञान क्षेत्र में चक्रवर्ती शासक और व्यवसाय क्षेत्र में स्वर्ण सम्पदाओं का स्वामी बनाया था। इतिहास अपनी वज्र चट्टान पर अभी भी अवस्थित है और तुमुलनाद के साथ उद्घोष करता है कि उन पुरातन परम्पराओं को यदि किसी प्रकार फिर जीवन्त किया जा सके तो सतयुग लौट आने की संभावना फिर सुनिश्चित हो सकती है। दुर्बुद्धि के दावानल में जलती हुई दुनिया को फिर से नये वातावरण में साँस लेने की सुखद संभावनाएँ हस्तगत हो सकती हैं।

इन दिनों असल की नकल बनाने में मनुष्य की चतुरता ने कमाल हासिल कर लेने जैसी प्रवीणता प्राप्त कर ली है। खिलौने वाले की दुकान पर खड़े होकर सभी जानकारी के नमूने थोड़े से पैसे खर्च करके खरीदे जा सकते हैं। इतना ही नहीं जिस देवता की भी चाहें मिट्टी की मूर्तियाँ बिना किसी कठिनाई के खरीदी जा सकती हैं। इतने पर भी असली और नकली का अन्तर लोग समझ ही लेते हैं और क्रियाशीलता रहित होने के कारण उन्हें असली मान बैठने के भ्रम में नहीं पड़ते। खिलौना गाय दूध कहाँ देती है? खिलौना हाथी की पीठ पर बैठकर लम्बा सफर कहाँ किया जा सकता है? खिलौना मुर्गी अंडे कहाँ देती है? और मिट्टी का बैल हल में चलने के लिए मारने पीटने पर भी तैयार नहीं होता। यही कारण है कि असली जानवर खरीदने और उनसे लाभ उठाने के लिए पूरा सरंजाम जुटाना पड़ता है, जब कि खिलौने स्तर के प्राणी एक बार थोड़े पैसे खर्च कराने के बाद आजीवन आलमारी की शोभा बढ़ाते है पर प्रकृति के साथ दूर का भी रिश्ता नहीं रहता।

यही बात सुखी और समुन्नत संसार में सतयुगी वातावरण बनाये रखने वाले देव मानवों के संबंध में भी है। वे संख्या में इन दिनों भी साठ लाख के लगभग हैं। धर्मप्रचार की आड़ में जिस तिस बहाने अनुदान और सम्मान बटोरने वालों की इतनी बड़ी संख्या है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है कि इतने धर्मसेवकों के रहते विश्व का न सही तो देश का अभ्युदय तो चरम स्तर पर रहा ही होता। पर दीख इससे ठीक उलटा पड़ता है। जिन्हें देश का-विश्व का भार उठाना चाहिए था वह उलटे भारभूत बन कर रह रहे है।

यहाँ दान धर्म की विवेचना करते हुए सर्वसुलभ समयदान की चर्चा की जा रही है और इस विचारणा में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आमंत्रित किया जा रहा है कि फिर से लोक मंगल के लिए समयदान की प्राचीन परम्परा को किसी प्रकार पुनर्जीवित कर सकना क्या संभव हो सकता है? उज्ज्वल भविष्य की संरचना में प्रमुख भूमिका निशा सकने में समर्थ इस महान प्रचलन को अपनाने के लिए विचारशील पीढ़ी में क्या नया उल्लास-नया आवेश उपजाया जा सकता है?

प्रतिभावान तस्कर, आक्रान्ता और दुष्ट-दुराचारी अपने अनुरूप वातावरण बना लेते हैं। ढेरों साथी-सहयोगी उत्पन्न कर लेते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि यदि परमार्थ परायण उदारचेता समयदानी उत्पन्न होने पर प्रस्तुत अवांछनियताओं का उन्मूलन करने में सफल-समर्थ न हो सकें।

सच्चे अर्थों में समयदान करते तभी बन पड़ता है, जब अन्तराल की गहराई से आदर्श पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस उठती हो, ऐसे लोग अपने प्राणप्रिय लक्ष्य की दिशा में बढ़ चलने के लिए आकुल-व्याकुल होकर तीर की तरह सनसनाते हुए चलते हैं। प्रलोभन और अवरोध उनके मार्ग में न आते हों सो बात नहीं, पर उस ओर उपेक्षा बरते जाने पर दबाव अनुभव ही नहीं होता और लगता है, जो मच्छर काटने जैसा दिनचर्या का अंग है, जो ध्यान भर बँटाता है, पर ऐसा कुछ नहीं कर पाता जिससे मार्ग बदलने जैसा कुछ सोच आड़े आये। ऐसी दशा में उन अवरोधों और आकर्षणों का उनकी दृष्टि में कुछ महत्व ही नहीं रह जाता है जो संकल्पहीन व्यक्तियों को बहकाने, बरगलाने, फुसलाने और रास्ता भुला देने के लिए पर्याप्त होते हैं।

पूर्व संचित कुसंस्कार, प्रचलन का प्रभाव, लालच का दबाव, तथा कथित हितू जनों का प्रभाव मिलकर एक ही सूझ सुझाते हैं कि जिस तरह भी संभव हो अधिकाधिक सुविधा-साधन जुटाने और मनमौजी उपयोग करना ही प्रसन्नता का मार्ग हैं। स्वार्थ ही सर्वोपरि है। सोचना अपनी सुविधा के बारे में ही चाहिए, इसके लिए दूसरों को असुविधा हो तो परवाह नहीं करनी चाहिए। नीति-अनीति का अन्तर कहने सुनने भर का विषय है। व्यवहार में इस झंझट से दूर रहना चाहिए। अधिक से अधिक इतना हो सकता है कि प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए सफेद पोशों जैसा आवरण ओढ़ लेना चाहिए। व्यवहार में भले ही इससे ठीक उलटा आचरण क्यों न करना पड़े। उदाहरण के लिए इर्द-गिर्द से ही ऐसे असंख्यों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जो देशभक्ति की, समाज कल्याण-जनहित की, आदर्शों के समर्थन की चित्र-विचित्र बोलियाँ बोलते हैं, किन्तु भीतर जो मान्यताएँ भरी होती हैं उनमें कथनी और करनी के साथ कोई संगति नहीं बैठती ऐसे लोग फोटो खिंचवाने, अखबारों में नाम छपाने में किसी संस्था के अधिकारी बनने में तो रुचि दिखाते हैं, पर वैसा कुछ ठोस कदम उठा नहीं पाते जिससे सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए कुछ कहने योग्य ठोस कार्य करते बन पड़े। औसत आदमी का मन इस दुहरी चाल को चलने में ही अपनी चतुरता अनुभव करता है और जब-तब न्यूनाधिक सफलता भी उस दुरंगी चाल से प्राप्त कर लेता है।

पर यह सब है एक प्रकार का प्रहसन-अभिनय ही, जो मंच पर क्रीड़ा कौतुक दिखाकर पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो जाता है। छल छिपता नहीं। वस्तु स्थिति कल नहीं तो परसों प्रकट होकर रहती है। ऐसी दशा में बहुरूपियापन विचारशीलों की दृष्टि में उपहासास्पद बन कर ही रह जाता है। बच्चे ही उस छलावे को न समझ पाने के कारण कुछ देर तक तालियाँ बजा सकते हैं। इस अर्थ-प्रधान युग में किसी को भी खरीद कर उससे कुछ भी कहलाया, कराया या लिखवाया जा सकता है, पर इस समूचे प्रपंच में इतना दम नहीं होता कि प्रस्तुत प्रपंच को लम्बे समय तक जीवित रख सकें। फिर उस खिलवाड़ से बालू के महल सजाये भले ही जायँ, पर वे कुछ ही क्षणों में गिर कर धराशायी हो जाते हैं। ऐसी विडम्बनाएँ आये दिन रची जाती और उजड़ती देखी जा सकती है। इसे कौतुक-कौतूहल के अतिरिक्त और क्या कुछ कहा जाय? ऐसों का व्यक्तित्व उपहासास्पद बन जाता है और पता चलने पर निकटवर्तियों से लेकर सहयोगियों तक पल्ला झाड़ कर अलग हो जाते हैं। सूक्तिकार ने ठीक ही कहा है कि-पाखंडी से बढ़ कर अभागा और कोई नहीं जिसका बुरे दिन में भी साथ दे सकने वाला कोई साथी-सहयोगी बच सके।”

बातें बड़े महत्वपूर्ण, निस्वार्थी, उपयोगी और प्रेरणाप्रद कार्यों की चल रही हैं। उनका बन पड़ना मात्र उन्हीं से बन पड़ता है जिसकी आदर्शवादिता से जुड़ी हुई लगन टीस बन कर हर घड़ी टसकती रहती है और समय ही नहीं, कौशल और साधनों को भी अभीष्ट के प्रति समर्पित करने में गर्व गौरव का अनुभव कराती है। संसार भर के इतिहास का एक ही निष्कर्ष है कि आदर्शवादी घटनाक्रम अभियान-आन्दोलन चलाने और व्यापक बनाने में मात्र वे ही लोग सफल हुए हैं जिन्होंने उत्कृष्टता को अपने जीवन का अविच्छिन्न अंग बनाया और आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने में अपना सर्वस्व दाँव पर लगाया। समयदानी इन्हीं को कहते हैं। इनका लक्ष्य पाना न बीच में रुकता है, न पथभ्रष्ट होता न गड़बड़ाता है। श्रेयाधिकारी ऐसे ही लोग बनते हैं। महादानी इन्हीं को कहना चाहिए। छुटपुट दान-विज्ञापन करते रहने वाले तो हर गली कूचे में कुछ न कुछ आडम्बर पहने जहाँ-तहाँ घूमते देखे जा सकते हैं।


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