निन्दक नहीं, समीक्षक बनें!

August 1989

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समीक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें गुण-दोषों का ठीक-ठीक विवेचन किया जाता है। उसे पहले उसके गुणों से अवगत करा दिया जाता है। इस तरह उसकी मनः स्थिति स्वयं के बारे में बहुत कुछ जानने को तैयार होती है ऐसी स्थिति में भद्रतापूर्वक यह कहना बन पड़ता है कि उसमें कतिपय ऐसे दोष हैं जो उसके जीवनक्रम के लायक नहीं हैं। इस भाँति धीरे धीरे इन दोषों के प्रति हम अन्यों को जागरूक करते हैं। इन्हें ठीक तरह से समझ लेने पर इनसे छुटकारा पाना भी सहज हो जाता है।

समीक्षक की स्थिति एक सच्चे मित्र और हितैषी की है। उसकी मनोवृत्ति का रचनात्मक होना जरूरी है। साथ ही इस प्रक्रिया का उद्देश्य-स्वस्थ पद्धति का निर्माण है। रचनात्मक और उद्देश्यपूर्ण होने के अतिरिक्त जिस एक अन्य बात की इसके लिए महत्ता है, वह है समीक्षक का स्वयं उन दोषों से मुक्त होना। उसके द्वारा उन्हीं दोषों का विवेचन किया जा सकता है जिनसे वह स्वयं मुक्त हैं। क्योंकि इसी स्थिति में उसे स्वस्थ मार्गदर्शन दे पाना सम्भव है।

समीक्षा के इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं से परिचित न होने के कारण इसका स्थान निन्दा ने ग्रहण कर लिया है। इसे एक बड़ी भूल कहना ठीक होगा, कारण कि समीक्षा और निन्दा में ठीक उतना ही अन्तर है जितना कोयले ओर हीरे में। आकार-प्रकार, गुण-प्रकृति सभी कुछ एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं। निन्दा करने में मनोवृत्ति लक्षित व्यक्ति को अपने से छोटा सिद्ध करने की होती है। जबकि अपने बारे में यही विश्वास रखा जाता है कि उसमें कमियाँ लेश मात्र नहीं हैं। फलतः उसे लगता है कि वह अन्य सभी की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आत्म श्रेष्ठता की इस ग्रन्थि को पोषण देने की प्रकृति निन्दा की वृत्ति से छुटकारा नहीं पाने देती।

निन्दा और समीक्षा के इस सूक्ष्म अन्तर के सम्बन्ध में अध्यापक पूर्ण सिंह ने अपनी रचना “बायोग्राफी ऑफ स्वामी राम” में एक घटना का उल्लेख किया है। इसके अनुसार स्वामी रामतीर्थ हिमालय के टिहरी क्षेत्र में रह रहे थे। पूर्ण सिंह अपने एक मित्र के साथ उनसे मिलने गए। स्वामी रामतीर्थ ने उन्हें समझाते हुए कहा यहाँ निन्दा वर्जित है। पूर्ण सिंह लिखते हैं कि उस समय मुझ में ग्रह कुवृत्ति थी। मैं निन्दा करने लगा। स्वामी जी के टोकने पर जवाब था “समीक्षा कर रहा हूँ।” स्वामी रामतीर्थ ने हँसते हुए कहा कि समीक्षा का अर्थ दोषों का बखान नहीं हैं। इसका यथार्थ भाव है गुणों का प्रोत्साहन और दोषों का निवारण। निन्दक दूसरों की कितनी हानि करेगा इसका ठीक आकलन तो परिस्थितियों के अनुसार सम्भव है। पर वह स्वयं अपनी मानसिकता पर कुठाराघात किया करता है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इस मत को स्वीकारने लगे हैं। ब्रिटिश मनोविज्ञानी जे. हक्सले ने अपनी अध्ययन “डोअर्स आफ पर्सनेलिटी” में स्पष्ट करते हुए कहा है कि वाणी से लगातार दोषों के वर्णन के द्वारा हम मन की गहराइयों में इन्हें अंकित करते हैं। यह एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। क्योंकि वाणी से इन्हें बोलने पर पहले सुनने वाले हम स्वयं होंगे यदि लगातार इन पर चर्चा की जाय तो समूची मानसिकता में कलुष घुलता जाता है। धीरे धीरे चिन्तन की यह विकृति समूचे जीवनक्रम को दोषपूर्ण बनाती है।

यही कारण है कि उपनिषदों ने “भद्रं कर्णेभिः --श्रृणुयाम” एवं “वाँग में मनसि प्रतिष्ठता” जैसे सूत्रों को प्रतिपादित किया है। ये सूत्र स्पष्टतया कल्याणकारी वचनों को बोलने तथा मन और वाणी की अविच्छिन्नता को प्रतिपादित करते हैं। इस के बाद भी हम सभी के जीवन में कुछ न कुछ निन्दा की वृत्ति घुली हुई है। इसका पूर्णतया निष्कासन भी तुरन्त सम्भव नहीं है। इसके लिए एक ही सरल व सर्वजनीन उपाय है निन्दा का समीक्षा में परिवर्तन।

इसमें औचित्यपूर्ण यही है कि शुरू में समीक्षा का क्षेत्र दूसरों का जीवनक्रम न होकर स्वयं का जीवन व अपने ही क्रिया-कलापों को बनाया जाय। इसकी शुरुआत व्यावहारिक गतिविधियों से करनी होगी। गुण और दोषों की कुछ न कुछ मात्रा हम सभी में होती है। पूर्णतया गुण विहीन या दोष विहीन शायद कोई हो। अन्यथा कम या अधिक अनुपात में ये दोनों तत्व हमारे जीवनक्रम में समाए रहते हैं तटस्थ भाव अपनाकर पहले गुणों को देखा जाय उनके प्रति आदर भाव जगाया जाय। इसके बाद इन्हीं गुणों के प्रकाश से दोषों को ढूँढ़ निकालने का प्रयास करें। इस साफ कपड़े का महत्व मालूम है वह अपने कपड़ों में तनिक सी गन्दगी नहीं देख सकता इसे तुरन्त दूर हटा देने में भलाई सूझती है। ठीक ऐसी ही स्थिति आत्म सीमारक्षक की है- जब उसे अपने जीवन में गुणों तथा इनके महत्व का पता चलता है। दोष-दुर्गुण बुराइयां असहनीय लगने लगती हैं। इनको जिस किसी तरह निकाल बाहर करने में ही कल्याण दिखाई पड़ता है आत्म समीक्षा के पथ पर बढ़ते हुए कदम उसे समीक्षक की योग्यता प्रदान करते हैं।

समीक्षक का काम सर्जन की तरह है। वह चीर -फाड़ तो करता है पर बेतरतीब नहीं। इसके लिए अनेकों साल मुर्दा शरीरों पर दत्त हो अभ्यास में जुटना पड़ता है। इसी तरह समीक्षक भी वर्षों अपनी क्रिया-कलापों एवं चिन्तन की समीक्षा करता है। उसके सामने औचित्य का स्वीकरण और अनौचित्य का निवारण करके व्यक्तित्व गठन ही एक मात्र उद्देश्य रहता है। सर्जन की कुशलता उसे शल्य क्रिया के लिए चुस्त - दुरुस्त बनाती है। हमारी अनपढ़ आँखें भले उसके चाकू-छुरी चलाने की बारीकी न समझ पाएँ। पर उसे पूरी तरह ध्यान रहता है कि कहीं कोई शिरा धमनी जरूरी अंग अवयव यों ही न फट जायँ।बिना किसी तरह की क्षति पहुँचाए विकृतियों को बाहर कर देना उसका अपना कौशल है। समीक्षक की यही दशा है गुणों को बिना चोट पहुँचाए, दोषों को जीवन से मिटा देने में उसकी कुशलता, प्रमाणित समझी जाती है।

निन्दक का काम बदमाशों जैसा है जो बिना किसी परवाह के यों ही चाकू चला देते हैं। निन्दालु व्यक्ति को भी किसी के गुण दोषों से क्या मतलब उसे जिस तिस तरह अपनी वृत्ति की तुष्टि में सुख सूझता है। परिणाम स्वरूप उसे अपने चारों ओर शत्रुता--अप्रामाणिकता के आक्षेपों से सारे जीवन, परेशान होना पड़ता है। इन सारे झंझटों से छुटकारा पाने के लिए ठीक यही है कि इसके स्थान पर आत्म समीक्षा की वृत्त अपनाई जाय। इससे दोष देखने का कौशल लाभदायक बन सकेगा, साथ ही गुण देखने -परखने की एक नई विद्या हाल लग सकेगी। जैसे जैसे इसमें प्रवीणता हासिल होती जाएगी निज के व्यक्तित्व का विकास एक कुशल समीक्षक के रूप में हो सकेगा। इस तरह न केवल हम खुद पहले के दोष-दुर्गुणों से छुटकारा पाएँगे बल्कि दूसरों को भी इन विकृतियों से अलग कर सकने में सहायक बन सकेंगे। व्यक्तित्व के समग्र विकास की समीक्षा एक महत्वपूर्ण कुँजी है।


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