महाभारत युद्ध जोरों पर चल रहा था। कौरव दल के प्रमुख सेनापति मारे जा चुके थे। किन्तु कर्ण का पराक्रम और शस्त्र कौशल कमाल कर रहा था। उसे देखते हुए पाण्डवों में आतंक छाया हुआ था। लगता था अकेला कर्ण भी कौरवों को विजयी बनाने में समर्थ हो सकता है। कर्ण की तरह ही उसका रथ संचालक शल्य भी बड़ा विकट था। कर्ण का बाण और शल्य की सूझबूझ मिल कर ऐसा माहौल बना देते थे जिसकी काट करना पाण्डवों के लिए कठिन पड़ता था।
परिस्थिति की विषमता को देखते हुए कृष्ण ने कूटनीति से काम लिया। शल्य से एकान्त वार्ता करके इस बात पर सहमत कर लिया कि वह कर्ण का बातों ही बातों में उत्साह ठंडा करने के साथ साथ मनोबल भी तोड़ता रहेगा।
शल्य ने अपनी नई नीति को चरितार्थ करने का कोई अवसर न जाने दिया। समय समय पर ऐसी बातें कहता रहता जिसमें पाण्डवों की जीत होने की ही संभावना प्रकट होती हो। कर्ण के मारे जाने के अपशकुन सामने आने और पराजय के स्वप्न दीखने जैसे प्रसंगों को वह गढ़ता और कहता रहता था। शल्य कर्ण का विश्वासी था इसलिए उसकी बातों को सही भी मानता था। कर्ण का मनोबल टूटता रहा और उसका पुरुषार्थ अनायास ही घटता रहा। एक दिन ऐसा आया कि उसका रथ कीचड़ में फँस गया और वह इससे निकल न सका। अर्जुन ने अवसर पाकर उसे धर दबोचा और पाण्डवों की जीत का शंख बज गया। हिम्मत हारना, मनोबल गिराने की इतनी बड़ी क्षति है जिसके साथ में पौरुष और पराक्रम अस्त व्यस्त हो जाता है।