प्रतिभा पुरुषार्थ द्वारा विकसित की जाती है!

August 1989

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मानवी क्षमताओं की सुनियोजित क्रियाशीलता का दूसरा नाम प्रतिभा है। जिस अनुपात में क्षमताएँ किसी में क्रियाशील होती हैं, उसी अनुपात में उसे प्रतिभाशाली कहा जाता है। यद्यपि मूल रूप से ये शक्तियाँ मनुष्य मात्र में समान रूप से पायी जाती है। पर इस समानता के बाद भी इनमें से अधिकाँश प्रायः सुप्त अथवा अक्रिय अवस्था में होती हैं। निष्क्रिय को सक्रिय बनाना, सुप्त को जाग्रत करना ही वह प्रक्रिया है, जिसे प्रतिभा जागरण का नाम दिया जाता है।

हरेक को जन्मजात रूप से तीन तरह की ताकतें मिली हैं। उन्हें शारीरिक शक्ति, विचार शक्ति एवं कल्पना शक्ति तथा भावनाओं की शक्ति नाम दिया जा सकता है। बाकी अन्य छोटी-बड़ी सामर्थ्य इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। शारीरिक शक्ति की बलिष्ठता शरीर व प्राण की स्थिति पर निर्भर है। विचारों व कल्पनाओं की प्रखरता का आधार बुद्धि है। इसी तरह संवेदनाओं की उदात्तता अन्तराल की गहराइयों में स्थिति पवित्रता पर टिकी है। यों इन शक्तियों की झलक थोड़े बहुत रूपों में हम सभी के जीवन में दिखाई पड़ती है। हममें से सभी कुछ न कुछ काम करते सोचते, विचारते कल्पना करते रहते हैं। पर गहराई से देखने पर इनके विकास का स्तर एक दूसरे से अलग दिखाई पड़ता है।

इसका एक छोर मूढ़ता है- इसमें समूची सामर्थ्य सोई रहती है, बीच की स्थिति औसत मनुष्य की है। इसे अर्द्ध जाग्रत स्थिति कहा जा सकता है। दूसरा छोर प्रतिभाशाली होना है। इस दशा में मानवी क्षमताएँ अपनी भरपूर क्रियाशीलता प्रकट करती हैं। अपनी वर्तमान स्थिति से इस पूर्ण क्रियाशील स्थिति को पाना प्रतिभा का विकास है।

सामान्यतया यह विकास जीवन के किसी एक पहलू में दिखाई देता है। शारीरिक क्षमता को विकसित करने वाले अच्छे खिलाड़ी, पहलवान के रूप में नजर आते हैं। जिन्होंने विचार शक्ति को विकसित किया है उन्हें दार्शनिक, मनीषी, वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता है। इसी तरह कल्पना और भाव शक्ति को विकसित करने वाले को कवि, कलाकार, साहित्यकार, युग सृजेता के रूप में पहचाना जाता है। इनमें से प्रत्येक अपने अपने क्षेत्र में प्रतिभाशाली है

यद्यपि एक पक्ष के उत्कर्ष के साथ ऐसा नहीं है कि दूसरा पक्ष समाप्त हो गया हो। पहलवान अथवा खिलाड़ी में प्रधानता तो शारीरिक शक्ति की रहती है, पर सोचने विचारने व कल्पना करने की क्षमताएँ भी होती हैं, भले कम हों, अन्यथा दाँवपेच सीखना कैसे बन पड़ेगा। दार्शनिक, वैज्ञानिक बुद्धिप्रधान जीवन जीते हैं पर उनका शरीर भी सक्रिय रहता है। यही बात कलाकार, कवि के साथ लागू होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकसित स्थिति में एक पक्ष प्रधान होता है, दूसरा पक्ष गौण।

प्रतिभा शरीर, बुद्धि एवं मन तीनों की होती है। पर इसे न समझ पाने के कारण साधारणतया हम उसी को प्रतिभाशाली मानते हैं जिसमें बौद्धिक विकास काफी मात्रा में हुआ हो। यह मान्यता गलत तो नहीं पर आँशिक रूप से सत्य है। बुद्धि का स्थान शरीर की अपेक्षा कहीं ऊँचा है, अतएव शरीर इसका अनुसरण करे तो कोई गैर नहीं। किन्तु इसके बाद भी शरीर के महत्व को इनकारा नहीं जा सकता। सही माने में प्रतिभाशाली बनने का मतलब है अपनी सारी क्षमताओं को जाग्रत करना। अपने यहाँ इसी समग्रता को आदर्श माना गया है। इसी कारण हनुमान प्रतिभा के प्रतीक के रूप में स्वीकारे गए। उनमें प्रबल शारीरिक क्षमता के साथ, बुद्धि की प्रखरता भी है जिसके कारण उन्हें “बुद्धिमताँ वरिष्ठ” कहा गया। इसके अलावा कवित्व की प्रतिभा जो हनुमान्नाटक में देखने को मिलती है। यह समग्रता वर्तमान युग में दयानन्द, विवेकानन्द आदि के जीवन में देखी जा सकती है।

आज की स्थिति में मानव समुदाय का अवलोकन करने पर दो स्थितियाँ सामने आती हैं। एक स्थिति जड़ता अथवा मूढ़ता की हैं। बहु संख्यक समुदाय इस दशा में पड़ा हुआ हैं उसकी सारी क्षमताएँ सुप्त हैं। जीवन में तमोगुण का इतना घना अंधेरा छाया रहता है कि कुछ करने सोचने विचारने की बात सुझाई नहीं देती है। इस समुदाय के लोगों की दशा उस अफीमची अथवा शराबी की तरह है, जो अपनी गरिमा व सामर्थ्य को भुला कर किसी नाली अथवा कूड़े के ढेर में पड़ा रहता है। जिन्दगी के दिन ज्यों-त्यों करके गुजरते हैं।

प्रतिभा सिर्फ क्षमताओं का जागरण ही नहीं अपितु उनका सुनियोजन भी है। हममें से हरेक के भीतर चन्द्रशेखर आजाद जैसी बलिष्ठता व कर्मठता, अरविन्द, विवेकानन्द सी दार्शनिकता,कालिदास, होमर, दाँते जैसा कवित्व समाया हुआ है। इन अद्भुत क्षमताओं को न पहचानने के कारण ही हम गई गुजरी स्थिति में रह रहे हैं मनुष्य होकर भी मरी-गिरी स्थिति में कीड़े-मकोड़ों-सी जिन्दगी गुजार रहे हैं। इसका कारण है- हमारी जड़ता और उन्माद। दोनों ही दशाओं में हम अपने को भूले रहते हैं।

गर्भ से प्रतिभाशाली बिरले होते हैं। इन्हें नियम न कह कर अपवाद कहना ठीक होगा। नियमानुसार तो प्रायः सभी यहीं पर अपने को विकसित करते हैं। जर्मन के विख्यात कवि गेटे ने एक स्थान पर कहा है कि प्रकृति ने हमें वे सारी चीजें दी है जिनकी समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यकता है। हमारा अपना कर्तव्य है इनका सुनियोजित विकास। श्री अरविन्द आश्रम की माताजी ने पृथ्वी को प्रतिभा जागरण की प्रयोगशाला माना है। उनके अनुसार हमारे जीवन और परिवेश की अन्तःक्रिया सिर्फ इसीलिए है कि हमारी सुप्त क्षमताएँ जागें और उपयोगी बनें।

विभिन्न प्रतिभाशाली लोगों के जीवन में यह तथ्य देखा जा सकता है। विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपनी किताब - “वर्ल्ड एज आई सो” में अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि बचपन में उनकी गणना मूर्खों में होती थी। स्कूल में वे सबसे बुद्धू थे। उनकी बुद्धिहीनता से तंग आकर उनके एक शिक्षक ने यहाँ तक कह दिया तुम कभी कुछ नहीं बन पाओगे- अल्बर्ट। किन्तु बचपन के बुद्धू अल्बर्ट ने जब विचार शक्ति का जागरण किया तो उनकी गणना दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों में हुई। कवियों में श्रेष्ठ माने जाने वाले कालिदास के बारे में भी यही बात है। मूर्ख कालीदास में कल्पनाशीलता के जागरण ने उन्हें कवि कुल-शिरोमणि बना दिया।

आइन्स्टीन और कालिदास के जीवन में घटे तथ्य हमारे अपने जीवन में भी घट सकते हैं। प्रतिभा का जागरण कोई संयोग नहीं है। इसका सम्बन्ध भाग्य, देवता, ग्रह, नक्षत्र से भी नहीं है। किसी भी क्षेत्र में नियोजित की गई सतत् अभ्यास की कर्मठता उस क्षेत्र विशेष की सोई शक्तियों को जगाने वाली होती है। हम जिस स्थिति में है उसीमें रहकर इन्हें क्रियाशील बना सकते हैं।

इसके लिए सर्व प्रथम आवश्यक है अपने में निहित शक्तियों में दृढ़ विश्वास। इस विश्वास के बल बूते ही सही कर्मठता बन पड़ती है। विश्वास के अभाव में पहले ही हाथ पैर ढीले पड़ जाते हैं। इसके साथ ही जरूरी है धैर्य पूर्वक कर्मठता को लगातार उच्चतर उद्देश्यों के लिए नियोजित किए रहना। उन्हें प्रतिभावान बनने के दो चरणों के रूप में समझा जा सकता है। जैसे-जैसे ये चरण गतिमान होंगे, अन्तर्निहित शक्तियाँ अभिव्यक्त होंगी। समूचा जीवन इनके प्रकाश से कान्तिमान हो सकेगा। जरूरत इस ओर बढ़ चलने की है। ऐसा करके हम अपने को प्रतिभाशालियों की कतार में खड़ा कर सकते हैं जिनकी कि आज प्रबल आवश्यकता है।


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