प्राणशक्ति से शारीरिक और मानसिक उपचार

August 1989

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प्राणवायु में आक्सीजन अंश का कितना महत्व है इसे सभी जानते हैं। पर साथ में यह समझना विस्मृत ही बना रहता है कि उसमें विश्वव्यापी चेतना का एक बड़ा अंश भी घुला रहता है जो शरीर में जीवनीशक्ति एवं मस्तिष्क में प्रतिभा के रूप में उभरती है। यह शक्ति साँस के साथ इतनी सूक्ष्मता में घुली रहती है कि उसे संकल्पशक्ति की प्रखरता के सहारे ही पकड़ा और आत्मसात किया जा सकता है।

यहाँ हमें संकल्पशक्ति के महत्व को समझना चाहिए। विचारणा की क्षमता इतनी प्रबल है कि वह मनुष्य को हेय, हीन एवं वरिष्ठ भी बना सकती है। जैसे पानी को भगवान के चरणामृत रूप में लिया जाय, शक्कर के थोड़े से दानों को प्रसाद भावना का आरोपण करते हुए सेवन किया जाय तो उसका प्रभाव तत्काल मन की शान्ति के रूप में मिलता है और शक्ति भावना बढ़ाता है। उसी को उपेक्षा या अनखपूर्वक लिया जाय तो लाभ मिलना तो दूर उलटी हानि भी हो सकती है। किसी युवानारी को पुत्री और बहिन की भावना से देखा जाय तो पवित्रता उमगेगी और यदि उसी को कामुकता की कुदृष्टि से देखा जाय तो मन अश्लील कुविचारों से भरते भी देर न लगेगी। संसार को भवबन्धन समझा जाय तो उससे छुटकारा पाने को मन करेगा और उसे भगवान का विराट रूप माना जाय तो उसकी सेवासाधना करने ओर संपर्क जोड़ने, सद्व्यवहार करने के लिए मन करेगा।

विश्वव्यापी चेतना एक तथ्य है पर अविश्वास करने से यह पदार्थ पिण्डों का जमघट मात्र है। यह विश्व चेतना प्रचण्ड जीवनीशक्ति के रूप में भी अपने ऊपर उतर सकती है और ओजस्- तेजस् वर्चस् के रूप में अपने चमत्कारी प्रभाव दिखा सकती है। अविश्वास उपेक्षा की मनःस्थिति में वह जहाँ की तहाँ बनी रहती है। यदि फेफड़े फैलने-सिकुड़ने की क्रिया बन्द कर दें तो साँस का आवागमन भी रुक जाएगा। इसी प्रकार संकल्प शक्ति का उपयोग न किया जाय तो उच्चस्तरीय उपलब्धियों का द्वार बन्द हो जायगा। मात्र खाने-सोने भर का ढर्रा लुढ़कता रहेगा।

ब्रह्मांडव्यापी प्राणचेतना के अस्तित्व पर हमारा विश्वास सुदृढ़ होना चाहिए। यह यथार्थता भी है। क्रियाशीलता के रूप में अणु से लेकर विभु तक की सुनियोजित हलचलें चल रहीं हैं। वे विचारयुक्त भी हैं और नियम बद्ध भी। इसी क्रियाशक्ति को चेतन ब्रह्म कहा गया है। वह हमारी साँसों के साथ शरीर और मन में भी आता जाता रहता है। पर उपेक्षा बरतने पर उसका लाभ नहीं उठाया जा सकता। उस तत्व को आकर्षित तो हमारा संकल्प चुम्बक ही करता है। यदि वह खिंचाव न हो तो साँस हवा मात्र बनी रहेगी। उसमें गैसों का प्रभाव भर सम्मिलित रहेगा। किन्तु यदि संकल्पपूर्वक साँस खींची जाय तो उसमें घुला रहने वाला प्राणतत्व हमारी पकड़ में आ जायगा। व्यक्तित्व को प्राणवान बनाने में सहायता करेगा। इसके लिए प्राणाकर्षण प्राणायाम करना पड़ता है। सीधा स्थिर शरीर रखकर लम्बी साँस खींचते हुए भावना करनी पड़ती है कि साँस के साथ मिलकर प्राण भी शरीर में प्रवेश कर गया। साँस रोकते समय विश्वास किया जाय कि साँस में जो प्राणतत्व था वह शरीर के प्रत्येक घटक द्वारा सोख लिया गया। साँस छोड़ते समय भावना की जाय कि भीतर भरी हुई दुर्बलताएं-दुष्प्रवृत्तियाँ साँस के साथ मिलकर बाहर निकल गयीं। इसी क्रिया को पन्द्रह मिनट से आरम्भ करके आधा घंटा तक पहुँचा देने की प्रक्रिया को बार बार करते रहने की प्रक्रिया प्राणाकर्षण प्राणायाम बन जाती है।

उपरोक्त प्रारंभिक अभ्यास पूरा होने पर दूसरा चरण यह हो सकता है कि प्राणतत्व को शरीर के किसी अंग या मस्तिष्क के किसी केन्द्र में विशेष रूप से भण्डार भर लिया जाय।

शरीर का कोई अवयव दुख रहा हो या गड़बड़ा रहा हो तो भावना करनी चाहिए कि प्राणसत्ता संकल्प बल से खिंच कर इस स्थान पर केन्द्रित हो रही है और अपनी ऊर्जा में वहाँ से संचार संचालन को, प्रवाह को तीव्रगामी बना रही है। जमा हुआ विजातीय द्रव्य उस स्थान से बिखर कर चारों ओर छितरा रहा है और उसके लघु कण साँस के सहारे निकल कर बाहर हवा में उड़े जा रहे हैं। इस विधि से किसी भी पीड़ित दुर्बल अंग की अशक्तता को सशक्तता में बदला जा सकता है। साथ ही रोग से छुटकारा पाया जा सकता है। चिकित्सा उपचार की तरह ग्रह प्राण उपचार भी कुछ दिनों लगातार अभ्यास में उतारना पड़ता है।

मस्तिष्क में प्रतिभा के अनेक केन्द्र हैं। मनःशास्त्र के विशेषज्ञों ने उनके नियत स्थान भी खोज लिए हैं। उन स्थानों पर प्राण केन्द्रित करने और वह विशिष्टता बढ़ाने का भी ध्यान किया जा सकता है।

दूसरा सिद्धान्त यह है कि मस्तिष्क के हर क्षेत्र में हर शक्ति का व्यापक विस्तार है। अस्तु किसी स्थान विशेष पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा समूचे मस्तिष्क यंत्र को कल्पना क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करते हुए यह संकल्प करते रहा जा सकता है कि अमुक विशिष्टता हमारे मस्तिष्क क्षेत्र में विशेष रूप से उग उभर रही है।

खेत एक ही होता है। उसी में किसान मनमर्जी की फसल उगा सकता है और समुचित लाभ उठा सकता है। उसी प्रकार मस्तिष्क रूपी खेत में जो विशेषता अतिरिक्त रूप से बढ़ानी हो उसके लिए उसी स्तर का संकल्प करना चाहिए कि प्राणऊर्जा उस विशिष्टता को उभार रही है। उसकी कमी पूरी कर रही है। वर्षा होने पर जिस प्रकार पौधें में नई हरियाली दौड़ जाती है उसी प्रकार यह भाव संकल्प भी इसी क्रिया के साथ जोड़ा जा सकता है कि अमुक मानसिक विशेषता की फसल लहलहाने लगी और ऊँची उठने लगी। इस प्रकार साँस में घुले हुए प्राणतत्व को संकल्पशक्ति में आकर्षित करके मस्तिष्कीय दुर्बलताओं को दूर किया जा सकता है उन्हें पिछड़ेपन के अभिशाप से छुड़ाकर घुड़दौड़ के विजयी घोड़े की तरह अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जा सकता है।

प्राणशक्ति द्वारा शरीर और मन को दुर्बलताओं व्यथा, विकृतियों से छुड़ाया और परिपुष्ट भी बनाया जा सकता है।

चेहरे का सौंदर्य, आँखों की चमक, होठों की मुसकान, त्वचा की कोमलता आदि को भी इसी प्रक्रिया के सहारे बढ़ाया जा सकता है। मन की कल्पना और स्वभाव की गरिमा पर यदि ध्यान आकर्षण के सहारे प्राणऊर्जा को एकत्रित किया जाता रहे तो उसका प्रभाव अपना चमत्कार दिखाये बिना न रहेगा। यह आधार अभीष्ट दिशा में अपनी अभीष्ट आवश्यकताओं को बढ़ाने में सहायक हो सकती है।

प्राणतत्व भौतिक बिजली के सामान है। बिजली का झटका लगाकर किसी अवयव को उत्तेजित और रोगमुक्त करने की एक सुनियोजित प्रणाली है। चुम्बक चिकित्सा भी प्रख्यात है। प्राणचिकित्सा उनमें किसी से कम क्षमता सम्पन्न नहीं। क्योंकि उनमें जीवन तत्व की वह मात्रा भी सम्मिलित है जो अन्य उपचार पद्धतियों में नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी व्यक्ति इस आधार पर स्वचिकित्सा भी कर सकता है।


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