धर्म परायण को क्रोधोन्माद से बचना चाहिए!

May 1988

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धर्म धारणा का अंतिम और दसवां लक्षण है- अक्रोध। अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना। आवेश में न आना। अपना मानसिक संतुलन हर स्थिति में हर कीमत पर बनाये रहना।

नौवाँ लक्षण सत्य हैं सत्य के बाद सामान्यतया अहिंसा को स्मरण किया जाता है। पर शब्द इतना जंजाल भरा और उलझा हुआ है कि उसकी व्याख्या सकना सचमुच बड़ी टेड़ी खीर है। यों जैन और बौद्ध सम्प्रदाय अहिंसावादी। रामानन्द, कृष्ण भक्त वैष्णव भी इसे वैसी ही मान्यता देते है। इतने पर भी माँसाहारी वर्ग को छोड़ देने का शाकाहारियों के लिए भी काफी कठिन पड़ता है। जुएं, खटमल, ईंधन के जलने और पैरों तले कुचलने वाले, पशुओं के शरीर में चिपके रहने वाले कीड़े, मक्खी, मच्छर बर्र, बिच्छू, सर्प आदि अनेकों कृमि कीटक ऐसे हैं जिनकी जान बूझकर न सही अनजाने या उपेक्षा बरतने के कारण मृत्यु होती रहती है। पानी और हवा के साथ शरीर में पहुँचने वाले कृमि भी मरते ही है। बीमार पड़ने पर रोग कीटाणुओं को मारने वाली दवाओं का प्रयोग कैसे छोड़ा जाये? अनाज को धूप में सुखाने और पीसने से भी छोटी बड़ी हिंसा होती है। कृषि की सिंचाई में चींटी दीमकों के बिलों में पानी भरता है और उनकी मृत्यु का कारण वह कृषि बनती है जो अपना जीवनाधार है। अब तो पौधों में भी जीवन माना जाने लगा है ऐसी दशा में शाकाहारी तक में जीव हिंसा की जा सकती है। फिनायल, डी.डी.टी., कुओं में डालने की दवा जैसे सामान्य प्रचलनों को रोक सकना बहुत ही कठिन है। माँसाहार रुक सके और पशु पक्षियों जैसे बड़े आकार के जीवधारियों के प्राण बच सकें तो भी आधी लड़ाई जीत ली गई समझी जा सकती है। शत्रु के देश पर हमला करने पर आत्म रक्षा के लिए प्रतिरोध करना ही पड़ेगा और उस कार्य में हिंसा होगी ही।

सर्वथा अहिंसक बनकर रहना किन्हीं योगी तपस्वियों के लिए अपवाद रूप में ही संभव हो सकता है। सामान्यजनों के लिए तो इतनी अहिंसा बन पड़ती है कि क्रूरता की सीमा तक न पहुँचें। माँसाहार न करें। सभी में स्नेह सद्भाव रखें और अनीतिपूर्वक शोषण करने से बचें। सेना और पुलिस द्वारा दुष्टों से निपटने के लिए जो हिंसा गोली चलाई जाती है। यह सब कैसे बंद हो? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भगवान मनु ने सत्य के साथ अहिंसा का नहीं वरन् अक्रोध का युग्म बनाया और उससे भी अहिंसा के तत्व ज्ञान की आँशिक पूर्ति होती देखी है।

प्रतिपक्षी, विरोधी, आक्रामक, चोरी हानि पहुँचाने वालों के कारण जो आक्रोश उत्पन्न होता है उसे मर्यादा में रखने की प्रक्रिया शास्त्रकारों ने “मन्यु” बताई है और भगवान से ऋचाकारों ने प्रार्थना की है कि-हे भगवान! आप मन्यु हैं। हम भी मन्यु दीजिए। पंचवटी क्षेत्र में जब असुरों द्वारा नष्ट किये हुए लोगों की अस्थि समूह देखे तो राम ने भुजा उठाकर प्रण किया कि इस पृथ्वी को निशाचर विहीन किया जायगा और सचमुच उन्होंने वैसा किया भी। सीता अपहरण के प्रत्युत्तर में ही जिन हनुमान ने पर्वत उठाया और समुद्र लाँघा था वे सीताजी को भी पीठ पर बाँध कर वापस ला सकते थे पर वास्तविकता दूसरी ही थी। असुरों का विनाश ही किसी बहाने करना था ताकि अत्याचारों की श्रृंखला को विराम दिया जा सकें।

इस समूचे संयोजन में राम ने समुचित योजनाएं बनाई और रणनीति अपनाई किन्तु किसी अवसर पर अपना संतुलन न खोया, आवेशग्रस्त न हुए। कारण कि जिस पर क्रोध किया जाता है उसे बदला लेने के निमित्त हानि पहुँचाने की तुलना में अपना ही अहित हो जाते है। आधे घंटे के क्रोध में उतना खून सूख जाता है जितना कि चौबीस घंटे के तेज बुखार में।

मशीनें चलाने वाली मोटर जब गरम हो जाती है तो ये काम करना बंद कर देती है या अपनी वायरिंग जला देती है। तेजाब जहाँ भी फैलता है वहाँ वस्तुएं ही नहीं जमीन तक जला देता है। माचिस औरों को जलाने से पूर्व अपने आपको समाप्त कर लेती है। क्रोध भी इसी स्तर की आग है जो जिसके विरुद्ध भड़की है उसे हानि पहुँचाने से पूर्व अपने आप को जला लेती है। उत्तेजित मस्तक स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। सूझ नहीं पड़ता कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं? नशे की उत्तेजना में आदमी कुछ भी कर सकता है। कोई काम बिगड़ सकता है। किसी के प्रति भी असभ्य और अनुचित व्यवहार कर सकता है। यहाँ तक कि दूसरों का सिर फोड़ सकता है या अपनी आत्महत्या कर सकता है। ऐसी विक्षिप्त स्थिति में बिगड़े काम को बनाना और उलझन को सुलझाना तो नितान्त कठिन हैं शराबी के लड़खड़ाते हुए-डगमगाते हुए-कदम उठते हैं, उसी प्रकार आवेशग्रस्त व्यक्ति जो सोचता है जो करता है वह तीन चौथाई गलत होता है। जिसके कारण आवेश आया था उस स्थिति को सुधारना या व्यक्ति को बदलना तो दूर अपने आप को ही विभिन्न स्थिति में डाल लेने वाला व्यक्ति उस बचकानेपन के कारण संपर्क क्षेत्र में अपनी इज्जत बुरी तरह गिरा लेता है। फलतः जो उसके समर्थक एवं सहयोगी थे वे भी विरोधी बन जाते है।

बड़ी-बड़ी पेचीदा और उलझी हुई गुत्थियों को जो सुलझा सकें हैं, वे शान्त चित्त और हँसते मुस्कराते रहे है। अनुपयुक्त परिस्थिति के हल करने का सहज तरीका यह है- उस घटना को महत्व दिया जाये और शान्त चित्त धैर्य पूर्वक उपाय सोच कर और उपयुक्त कदम उठाया जायं। विरोधी से गुत्थम–गुत्था करने की अपेक्षा गलतफहमी निकालने और समाधान का मार्ग खोजने में काम बन सकता है।

विग्रह के कारण जो नुकसान हुआ था उसे दूना चौगुना कर लेने का यही तरीका है कि क्रोध में भरकर अपनी शान्ति और निद्रा गंवा दी जाये। इसकी अपेक्षा उस पहली हानि को सह कर संतोष कर लिया गया होता तो अधिक उत्तम होता।

डॉक्टर रोगी का ऑपरेशन करता है तो चाकू चलाने के पीछे उसकी कोई दुर्भावना नहीं होती। इसी प्रकार किसी उद्दंड को रास्ते पर लाना है तो उसे नीचा दिखाने की अपेक्षा यही उत्तम है कि समझाने का रास्ता खोजा जाये। वह न निकलता हो दण्ड नीति का आश्रय लेना हो तो भी कम से कम उस हानि से अपने आप को बचा लेना चाहिए जो आवेशग्रस्त होने पर सामने वाले का नहीं उलट कर अपना अहित अधिक मात्रा में करती।

उपाय करना, रास्ता खोजना एक बात है और लड़−झगड़ कर बात का बतंगड़ बना लेना दूसरी। शत्रु से भी हंसते हुए बोला जा सकता है और अपनी सज्जनता को सुरक्षित रखा जा सकता है। ताली दोनों हाथों से बजती है, अकेला एक हाथ थपथपाने की कोशिश करता रहे तो भी ताली बजने जैसा माहौल नहीं बनता। ईंधन अकेला न मिलने पर आग स्वयं ही बुझ जाती है। मौन धारण कर लिया जाये तो कटुवचन कहने वाला भी थम कर चुप हो जाता है।

अनावश्यक नहीं कि हर कोई आपकी बात माने ही। स्वभाव भिन्न-भिन्न है और सोचने के तरीके भी अलग-अलग। ऐसी दशा में जिसे जिस हद तक अनुकूल बनाया जा सके उतने में ही संतोष करना चाहिए। उपेक्षा भी तीखा हथियार है। जो टेढ़ा चलता है, समझ की बात नहीं मानता उसके प्रति उपेक्षा की नीति अपनाना और एक प्रकार से असहयोग जैसा रुख बना लेना। उसकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण यह है, जिसमें अपना दिमाग गरम करके दूसरों की दृष्टि में अपने को भी असज्जन सिद्ध न किया जाये।


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