सर्वांगीण विकास का साधन व्यावहारिक वेदान्त

May 1988

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भारतीय दर्शनों में वेदान्त का अपना विशिष्ट स्थान है। प्रायः सभी तत्व वेत्ताओं ने चिन्तन के क्षेत्र में इसे शीर्ष स्थानीय माना है। विचारकों की यह मान्यता अकारण हो, ऐसा नहीं हैं। सहस्राब्दियों पूर्व ऋषि कहे जाने वाले विचारकों ने विचारों के विशाल क्षीर सागर का मन्थन करके जो नवनीत निस्सृत किया वही वेदांत का रूप संकलित है। इन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित सूत्र सिद्धान्त काल की दृष्टि से भले ही चिर-पुरातन हो गए हैं, पर उपादेयता की दृष्टि से सर्वथा नवीन है। जीवन के विकास हेतु आरोहण का पथ आज भी उसी तरह प्रशस्त करते है, जैसा पूर्व में किया था।

इन विचारों ने पूर्व व पश्चिम के अनेकानेक विचारकों-मनीषियों-दार्शनिकों-सन्तों को समान रूप से प्रभावित किया है। यह प्रभाव मात्र विचारणा के स्तर पर रहा हो, ऐसा नहीं है। जीवन की दिशा, कार्यपद्धति सहित आमूल-चूल परिवर्तन अभिनव रूप से उनका जीवन गठित हो सका। पूर्वी विचारकों में बोधायन, उपवर्ष, गुहदेव, कपर्दी, भारुचि, भर्तृमित्र, टंक, ब्रह्मदत्त, सुन्दर पाण्ड्य, गौडपाद आदि आचार्य शंकर के पूर्ववर्ती चिन्तकों से लेकर सुरश्वराचार्या पद्यपादाचार्य, वाचस्पति मिश्र, सर्वज्ञात्म मुनि, अद्वैतानन्द, बोधेन्द्र, विद्यारण्य, धर्मराजाध्वरीन्द्र, आदि पश्चाद्वर्ती आचार्यों तक सभी ने अपने-अपने ग्रंथों में इसके स्वरूप में महत्व को स्वीकारा तथा मानव व मानवता का पथ-प्रशस्त करने हेतु इसकी उपयोगिता-आवश्यकता पर बल दिया है।

वेदान्तरूपी सूर्य की किरणों से मात्र पूर्वी जगत आलोकित हुआ हो, ऐसा नहीं। इसकी प्रखरता व आलोक से पश्चिमी विचारकों के मन-मानस आलोकित हुए, और उनने दिशा ग्रहण की। प्रख्यात विचारक टाँमलिन ने अपने ग्रन्थ “द ग्रेट फिलासफर्स” के पृष्ठ 217 पर वेदान्त के पश्चिम जगत पर प्रभाव का उल्लेख करते हुए बताया है कि शाँकर दर्शन की दिशा लगभग वहीं थी जिसको उत्तरकाल में जाकर जर्मन दार्शनिक काण्ट ने अपनाया।

उपर्युक्त कथन के आधार पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पाश्चात्य आलोचक विद्वान इसके प्रभाव को सहर्ष स्वीकारते है। वैसे तो अनेकों विचारक इसके ऋणी है। फिर भी देकार्त, स्पिनोजा, लाइब्निज, बर्कल, काण्ट फिक्ते, शेलिंग, हेगल व शोपेनहार के दार्शनिक सिद्धान्तों में वेदान्त के स्वर की गूँज स्पष्ट सुनाई देती है।

फ्राँसीसी दार्शनिक व गणितज्ञ रेनेदेकार्त ने भारतीय चिन्तन के अनुरूप ही ईश्वर को सृष्टि का नियामक उद्भवकर्ता समष्टि में उसकी उपस्थिति को स्वीकार किया है। श्री बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रन्थ “भारतीय दर्शन” में इसकी तुलना वाचस्पति मिश्र से की है। हालैण्ड के समृद्ध परिवार में जन्मे वारुच दे स्पिनोजा ने वेदान्त के ब्रह्म को सबर्स्टेशिया के रूप में स्वीकारा है। अन्तर मात्र शब्दों का है न कि भावों का। वेदान्त की ही तरह इसने भी इस सत्ता को प्द म मेज दक चमत म ब्वदबपचपजनत अर्थात् “स्वतंत्र तथा स्वतः सिद्ध माना है। शंकर वेदान्त के सदृश उक्त तत्व असीम, अविभाज्य, अद्वैत, स्वतंत्र तथा आनन्द रूप है। इसी कारण मैक्समूलर ने “थ्री लेर्क्चस इन वेदान्त फिलासॉफी” के पृष्ठ 123 पर दोनों के तुलनात्मक अध्ययन तथा गहन चिन्तन के उपरान्त घोषित किया कि उपनिषदों और शंकराचार्य ने जिस ब्रह्म का प्रतिपादन किया है, वह स्पष्ट रूप से वैसा ही है, जैसा की स्पिनोजा का सबर्स्टेशिया।

गोट फ्रीड, विल्हेम लाइब्निज के प्रधान दार्शनिक सिद्धान्त मोनेडिज्म पर भी वेदान्तिक द्वैतवाद का प्रभाव है। उसके ग्रन्थ “दमोनेडालाजी” तथा प्रिन्सीपल ऑफ नेचर एण्ड ग्रेस का अध्ययन करने पर इसकी स्पष्टता और भी अधिक हो जाती है।

वेदान्तिक प्रतिपादन “माया” की मान्यता को इसने भी “मैटेरिया प्राइभा” के रूप में स्वीकारा है। उसने अनुसार यह मैटेरिया प्राइभा ही है जो आत्म कणों का ऐक्य ईश्वर से नहीं होने देती। लाइब्निज की ही तरह आयरलैण्ड के प्रख्यात दार्शनिक जार्ज वर्कल के अध्यात्मवादी सिद्धान्त पर वेदान्त का प्रभाव स्पष्ट गोचर होता है। उनके अनुसार विज्ञान के अतिरिक्त जगत में बाह्य वस्तुओं की सत्ता नहीं है। इसका यह कथन प्रश्नोपनिषद् का भाष्य करते आचार्य शंकर के उस के कथन की प्रतिध्वनि ही है, जिसमें उन्होंने कहा है “जैसा-जैसा जो पदार्थ जाना जाता है वैसा-वैसा ही जाना हुआ होने के कारण उस पदार्थ का स्वरूप होता है।” इस प्रकार दोनों ही ज्ञान की सत्यता पर बल देते है। बर्कल का उक्त मत वेदान्त के दृष्टि सृष्टिवाद से भी मिलता-जुलता है। इस सिद्धान्त का समर्थन वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावलीकार प्रकाशानन्द ने भी किया है। जिस में उन्होंने स्पष्ट किया है कि सकल जगत की सत्ता आत्मा में ही है।

सुविख्यात जर्मन दार्शनिक काण्ट के प्रतिपादनों में भी वेदान्तिक सिद्धान्तों की स्वर लहरियां गुंजायमान होती हैं। उनने परम सत्ता को “दिंगएनसिश” के रूप में माना है। जिसकी व्याख्या उनके तीन प्रधान ग्रन्थों-क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन, क्रिटीक ऑफ पे्रक्टिकल रीजन एवं क्रिटीक ऑफ जजमेण्ट में है। काण्ट शंकर मत की तरह ईश्वर को जगत का आधार मानते ळें आत्मका के शुद्ध-आत्म स्वरूप ज्ञान की स्थिति के बारे में भी इनका मत शंकर के समान ही है। ई॰ केथर्ड ने “द फिलासफी आफ काण्ट” में स्पष्ट किया है कि काण्ट ने दो प्रकार की सत्ताएं मानी हैं। एक व्यावहारिक, सत्ता और दूसरी वस्तु सारात्मक सत्ता। यह दो प्रकार की सत्ताएं मानने में भी आचार्य शंकर के स्वर की गूँज सुनाई देती है। प्रो॰ रानाडे ने विशद अध्ययन के उपरान्त अपने विश्व प्रसिद्ध अद्वितीय ग्रन्थ “क्रन्सक्ट्रक्टिव सर्वे आफ उपनिषदिकफिलासफी” में स्पष्ट किया है कि काण्ट द्वारा स्वीकृत उक्त दोनों सत्ताएं भी विचार की दृष्टि से आचार्य शंकर द्वारा उपदिष्ट व्यावहारिक एवं परमार्थिक सत्ताएं है।

वेदान्तिक चिन्तन का प्रभाव मात्र विचारणा के स्तर पर ही हो, ऐसा नहीं है। इसकी शोभा ग्रंथालयों, मनीषियों के तर्क-वितर्क वाद-विवाद तक ही सीमित न होकर जन सामान्य तक है। इसकी सुरभि सर्वत्र समान रूप से फैली हुई है। यह व्यक्ति, जाति, देश, धर्म, सम्प्रदाय आदि किसी भी तरह की अर्गलाओं, श्रृंखलाओं से आबद्ध नहीं है। इसमें प्रतिपादित तत्व सर्वथा सार्वभौम व सर्वग्राही है। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार “ वेदान्त के तथ्यों को ग्रहण कर आत्मसात् कर लो, इन्हें स्वरूप में ढाल लों, फिर तुम कोई भी हो, किसी धर्म के हो, विकास के उत्कर्ष की ओर बढ़ते जाओगे “। वेदान्त व्यक्ति केन्द्रित नहीं अपितु व्यक्ति और समाज दोनों की ही उन्नति का साधन है। यही नहीं महात्मा गाँधी ने इसके साधन पक्ष के तत्व सत्य-अहिंसा का आश्रम लेकर देश को दासता से मुक्ति दिलाई।

विश्व के प्रमुख विचारकों के अनुसार मानव समाज की विविध समस्याओं का समाधान चाहें वे आर्थिक हों या रंगभेद की अथवा साम्प्रदायिक कट्टरता की, वेदान्त के व्यावहारिक प्रयोग द्वारा ही सम्भव है। वेदान्त के व्यावहारिक प्रयोग द्वारा ही सम्भव है। वेदान्त काल और देश की सीमाओं को तोड़कर मानव मात्र ही नहीं प्राणि मात्र में समत्व और एकत्व की बुद्धि जागृत करता है। इस दृष्टि से वेदान्त जीवित और व्यावहारिक है। मानव और मानवता के शाश्वत कल्याण का यही सुगम व सरल राजमार्ग हैं, जिस पर चल पड़ने के लिए ऋषियों की गुरु गंभीर वाणी “उतिष्ठजागृत” का संदेश सुनाकर चल पड़ने को प्रेरित कर रहीं है। इस पथ पर आरुढ होकर स्वयं का सर्वांगीण विकास करने के साथ मानव जाति के समक्ष एक ऐसे प्रकाश संकेतक-मार्ग दर्शक के रूप में प्रतिष्ठित हुआ जा सकता है।, जैसे कि स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ हुए थे। बिना एक पल की देर लगाए- इस ओर बढ़ चलने का उत्साह सभी को जागृत करना चाहिए।


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