दैवी अनुग्रह किन्हें प्राप्त होता है।? सूक्ष्म सत्ताएं किन पर अनुकम्पा बरसाती है। यह जानने से पूर्व यह तथ्य भली भाँति समझ लेना चाहिए कि पुरुष महामानव मात्र उत्कृष्ट चरित्रवान, संयमी, तपस्वी संतोषी ओर परमार्थ परायण के साथ ही संबंध जोड़ते है। अपनी अति महत्वपूर्ण तप-सम्पदा क एक भाग देकर अनुग्रहीत को इस योग्य बनाते हैं कि वह निजी सामर्थ्य कम पड़ने पर भी उस अनुदान के सहारे पुण्य परमार्थ के निमित्त कोई बड़े कदम उठा सकें। बढ़-चढ़ कर काम कर सकें। प्रतिकूलताओं के बीच रहकर भी यशस्वी हो सके॥ बड़े त्याग बलिदान करके असंख्यों के लिए मार्गदर्शन बन सकें। जहाँ ऐसा कुछ घटित होता दिखे तो समझना चाहिए कि किसी तपस्वी सिद्धपुरुष की अनुकंपा उन्हें उपलब्ध हुई है। व्यक्तिगत भौतिक सफलताएं पितर आत्माओं के अनुग्रह से प्राप्त हुई समझी जा सकती है। दृश्य रूप में सामान्य व्यक्तियों को न सिद्ध पुरुष, न पितर दिखाई देते है। न ही अपने अस्तित्व का वे कभी परिचय देते है।
सिद्धपुरुषों को सूक्ष्म शरीरधारी ऋषि कहना चाहिए। योगी तपस्वी जब तक स्थूल शरीर धारण किये रहते है। तब तक उन्हें ऋषि कहते है। जब वे स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर में रहने लगते हैं तब वे दिव्य पुरुष बन जाते है। इन्हीं को सिद्ध पुरुष भी कहते है। इन्हें देव ओर मनुष्य की मध्यवर्ती स्थिति में रहने वाला समझा जाता है। साधारणतया वे अदृश्य ही रहते है। पर आवश्यकता पड़ने पर स्थूल काय कलेवर भी वे धारण कर लेते है। जिस शरीर से तप किया और सिद्ध पाई है, वह उन्हें प्रिय भी लगता है और उसे प्रकट करना भी सरल पड़ता है। इसलिए जब कभी किन्हीं को उनका दर्शन होता है तो वही काया सामने आती है। उतनी ही वय दृष्टिगोचर होती है जितनी में कि उन ने स्थूल शरीर का सूक्ष्मीकरण किया था। इस परिवर्तन के दोनों ही स्वरूप हो सकते हैं, एक यह कि अवधारित शरीर को उसी प्रकार अलग कर दिया जायें, जिस प्रकार सर्प केंचुली छोड़कर नई त्वचा वाली स्फूर्तिवान काया का उपयोग करता है। छोड़ा हुआ शरीर नष्ट भी किया जा सकता है। ओर ऐसा भी हो सकता है कि स्थूल का धीरे धीरे परित्याग करते करते स्थिति मात्र उतनी ही रहने दी जाये जिसमें कि सूक्ष्म ही शेष रहें। तत्वतः सिद्ध पुरुष सूक्ष्म शरीर धारी ही होते हैं आवश्यकतानुसार कभी कभी वे स्थूल शरीर से भी प्रकट होते है। ऐसा विशेषतया तब होता है जब उन्हें किसी या किन्हीं शरीर धारियों के साथ संपर्क बनाने वार्तालाप करने की आवश्यकता होती है।
प्रकट होना या न होना यह पूर्णतया उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर है। किसी के आग्रह अनुरोध का उन पत्र कोई दबाव नहीं पड़ता। कारण कि सिद्ध पुरुष मात्र कुछ उच्च उद्देश्यों की पूर्ति को ही ध्यान में रखते हैं जब कि सामान्यजन कौतुक कौतूहल देखने या चमत्कारों का रस लेने, मनोकामना पूरी कराने के फेर में हरते है। इस स्तर की निकृष्ट मनोभूमि के दर्शन अभिलाषा में भी घोर स्वार्थ ही भरा होता है। उसे वे कुचक्र भर समझते हैं और अपने को उस जाल में फंसने से स्पष्ट इन्कार कर देते हैं। उन्हें मात्र उन्हीं के सम्मुख प्रकट होने के उपयोगिता प्रतीत होती है, जिन्हें महत्वपूर्ण परामर्श देने पर उसकी पूर्ति हो सकने की पात्रता परिलक्षित होती है। कोई अपने बेटी को कुपात्र वर के हाथों जान बूझ कर नहीं सौंपता।
फिर दिव्य दर्शी आत्माएं अपने अत्यन्त कष्ट पूर्वक कमाया हुआ तप किसी की चाहना भर से प्रभावित होकर देने के लिए क्योंकर सहमत हो सकती है।
यों सिद्ध पुरुषों का शरीर सूक्ष्म होने के कारण उन्हें आकाश गमन की सिद्धि होती है। वे इच्छानुसार चाहे जिस क्षेत्र या स्थान में तत्काल जा पहुँच सकते है। फिर भी वे पतंग की तरह नहीं उड़ते फिरते। किसी एक या किन्हीं स्थानों को अपने लिए नियत करते है। जहाँ शक्ति संचय के लिए वे तप करते रहते हैं, जो स्थूल शरीर धारियों के विधि विधानों से सर्वथा भिन्न होता है।
सूक्ष्म शरीर तन्मात्राएं जुड़ी होती है। शब्द, रूप, रस, गंध स्पर्श में सूक्ष्म शरीर को भी आसक्ति हो सकती है। यह कामनाएं प्रकारान्तर से बन्धन में बाँधती और विशालता को संकुचित करती है। इसलिए उन्हें भी उसी प्रकार काटना पड़ता हैं जैसे कि स्थूल से वासना, तृष्णा के लोभ मोह के बंधन बंधते हैं ओर समुन्नत स्तर तक व्यक्तित्व को नहीं पहुंचने देते। उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर धारियों के लिए पंच तन्मात्राओं के बंधन जकड़ते तो हैं और अधिक ऊंची आत्मिक स्थिति पर अग्रगामी नहीं बनने देते। एकाग्रता को चंचलता में बदलती है। ऐसी स्थिति में वे देवात्मा बनने की स्थिति में नहीं पहुँच पाते। इसलिए तप का आश्रय उन्हें भी लेना पड़ता है अपूर्णताओं को पूर्णता में विकसित करने के लिए। इसलिए उन्हें भी अपने लिए साधना हेतु उपयुक्त स्थान चुनना पड़ता है।
स्थान चयन में उन्हें दो तथ्यों को ध्यान में रखना पड़ता है। एक यह कि वह कोलाहल रहित हों। प्रकृति की स्वाभाविक निस्तब्धता में किसी कारण विक्षेप न पड़ता हों। दूसरे यह कि जब भी सूक्ष्म शरीर को स्थूल आकार में बदलना पड़े तब उसके लिए आवश्यक ताप और आहार उपलब्ध हों सके। इसके लिए गुफाएं उपयोगी पड़ती है। वे पर्वतों के फैलने सिकुड़ने में बन जाती हैं उनमें से कितनी ही ऐसी भी होती है। जिनमें सूक्ष्म शरीर धारी ही स्थूल शरीर वाले प्राणी भी शीतकाल तन्द्रित स्थिति में रहकर गुजार सकें।
कुछ दशकों पूर्व देवात्मा हिमालय के यातायात वाले स्थानों के समीप की गुफाओं में ऐसी आत्माएं करती थीं तब यात्रियों की धूम-धाम नहीं थीं। मार्ग कच्चे ओर आगम्य थे। इसलिए दुस्साहसी आत्मवान ही उस क्षेत्र की यात्रा पर सिर पर कफर बाँधकर चलने जैसी मनोभूमि बनाकर निकलते थे। पर अब वैसा बिल्कुल भी नहीं हैं वाहन दुर्गम-मार्गों पर चलने लगे है। यात्रियों की संख्या हर वर्ष कई गुनी हो जाती है। इन सब के कारण वातावरण में कोलाहल बढ़ता ही है। साधारण स्तर के व्यक्तित्वों का चिन्तन चरित्र भी उस क्षेत्र को प्रभावित करता है। साधनारत सिद्ध पुरुषों को उसमें घुटन अनुभव होती हैं फलतः वे उन स्थानों को छोड़कर सघन वनों में ऊंचे पर्वतों में इसलिए चले जाते हैं कि उन्हें मानव संकुल से उत्पन्न असुविधा का सामना न करना पड़ें अब यदि उनकी उपस्थिति का पता चल सकें तो खोजी को ऐसे क्षेत्रों में पहुँचना पड़ेगा जो सर्व सुलभ नहीं है। इस कारण अब वह दूरी बहुत बढ़ गई है। जिसको कभी सरलतापूर्वक पार किया जा सकता था ओर सिद्ध पुरुषों से संपर्क साधा जा सकता था। खोजी वर्ग के लोग भी अपनी जीवट और तितीक्षा की दृष्टि से बहुत दुर्बल रहने लगे है। भौतिक लाभ के लिए सिद्ध पुरुषों का संपर्क कुछ विशेष लाभदायक नहीं होता। आत्मिक प्रगति की अभिलाषा अब किन्हीं बिरलों में ही देखी जाती है। ऐसी दशा में उन्हें आपस में मिलाने वाले आधार ही एक दूसरे से प्रायः विपरीत स्तर के हो जाने पर दोनों ओर से ऐसे प्रयत्न नहीं होते कि सामान्य साधकों ओर सिद्धपुरुषों संभव हों। सिद्धपुरुष परमार्थ प्रयोजनों के लिए उपयुक्त उच्चस्तरीय आत्माओं को तलाशते है। जबकि कौतूहल देखने की मनोभूमि वालों को मुफ्त के ऐसे वरदान अनुदान चाहिए जो उन्हें सम्पन्न, समृद्ध युवक, यशस्वी अधिकारी, विजयी जैसी लौकिक सफलताएं मात्र दर्शन नमन के बदले दे या दिला सकें। अन्तर बहुत बड़ा हो गया हैं यही कारण हैं कि पुरातन काल में साधकों और सिद्धों के जो संयोग बनते थे वे अब असम्भव स्तर के बन गये है।