प्राणायाम एवं सोऽहम् साधना के फलितार्थ

May 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अंग-अवयवों से समुचित काम लिया जाये, तो उनकी क्रियाशीलता बनी रहती है। यदि उन्हें निरर्थक पड़ा रहने दिया जाये अथवा क्षमता से काम लिया जाये, तो उनका स्वाभाविक शक्ति घटने लगती है। इसका परिणाम पीछे अहितकर होता चला जाता है।

हाथ-पैर से काम न लिया जाये, तो वे अपनी क्षमता गंवा बैठते है और जरा से कामों के लिए नौकर का सहारा लेना पड़ता है। पैरों से काम कम लिये जाये, तो वे जकड़ जाते हैं और सवारी की जरूरत पड़ती है। दूर तक पैदल चलना पड़े, तो दर्द होने लगता हैं और ऐंठन मचती रहती है, किन्तु यदि अभ्यास बनाये रहा जायें, तो अस्सी वर्ष से अधिक उम्र हो जाने पर भी बुढ़िया चक्की चलाती, सूत कातती रहती है। जिन अवयवों का अभ्यास बना रहता है, वे अपनी शक्ति गंवाते नहीं,, वरन् गतिचक्र चलते रहने से उसे बढ़ाते रहते हैं। विनोबा अस्सी के करीब हो गये, तो भी उनकी क्रिया शक्ति बनी हुई थी और दस मील नित्य पैदल चल लेते थे।

जो बात हाथ-पैर के संबंध में है, वही फेफड़ों के संबंध में लागू रहती है। नियम यह कि छाती को सीधी तनी रखा जाये और साँस ली जाये। छाती सीधी रखने से सीने के सभी भागों में पूरी हवा का आवागमन होता रहता है। किन्तु यदि झुककर बैठा रहा जाये, तो सिकुड़ने वाले हिस्से में पूरी हवा नहीं पहुँच पाती। छाती सिकुड़ने लगती है और आधे तिहाई हिस्से को निकम्मा पड़ा रहना पड़ता है। इसका फल यह होता है, कि जो हिस्सा खाली रहता है, उसमें दमा, क्षय, खासा आदि के कीटाणु जमा होने लगते है। अपने लिए गड्ढा बना लेते हैं और उनमें छिपे बैठे रहते हैं बीमारी का क्षेत्र बढ़ाते रहते हैं। झुक कर बैठने की आदत से कमर झुकने लगती है। कभी कमर के ऊपर का हिस्सा झुकने लगता हैं, कभी नीचे का। इस प्रकार चलने में आदमी कुरूप लगता है। पीछे लाठी का सहारा लेकर चलने की आदत बन पड़ती है। उसके बिना काम नहीं चलता। कम आयु में इस प्रकार कमर झुकने वाले लोगों में से अधिकाँश वे होते हैं, जिन्हें झुककर चलने या बैठने की आदत पड़ जाती है।

मिलिट्री में सामान्यतया चलना सिखाने में भी दोनों हाथ हिलाते हुए सीना तना हुआ लेकर चलना सिखाया जाता है। इससे फेफड़े मजबूत होते हैं और अधिक प्राणवायु मिलने पर चेहरे पर लालिमा बनी रहती है। दौड़ने का अवसर आने पर वे लम्बी दूरी तक उछलते चले जाते है। यदि यह आदत न रहें, तो उनका शरीर जल्दी थकेगा और दम फूलने लगेगा। ऐसे लोग सदा दौड़ की प्रतियोगिता में फिसड्डी रह जाते है।

साँस का एक काम और भी है कि जीव कोशिकाएं टूटती रहती हैं उनका मलवा साँस के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। जब फेफड़े से शरीर को रक्त जाता है, तब वह शुद्ध और लाल होता है, किन्तु जब वापस लौटता है, तो उसके साथ गन्दगी भरी रहती है। साँस उस सारी गंदगी को निकाल कर बाहर कर देती है। रक्त में संचित हुई गंदगी ली गई साँस के साथ बाहर निकल जाती है। और फिर रक्त शुद्ध होकर लाल रंग में परिणत होता हुआ वापस लौटता है।

लम्बी गहरी साँस लेने के कितने ही लाभ है-रक्त शुद्धि, फेफड़े का सही संचालन,सीने का चौड़ा रहना, भीतर गन्दगी न जमने पाना आदि। गहरी साँस लेने पर यह विकृतियाँ सहज ही दूर हो जाती है। का आत्मा को आमंत्रित किया और बालक जी उठा। देवर्षि नारद ने कहा-लो राजन् तुम्हारा पुत्र जी उठा।

अपने पुत्र को जीवित देख कर राजा चित्रकेतु तथा महारानी कृतद्युति ‘हा पुत्र’ कह कर उसे अपनी छाती से लगाने दौड़े।

‘कौन पुत्र? -उस बालक ने कहा- देवर्षि ये लोग कौन हैं?’ बालक ने नारद से कहा।

“यह तुम्हारे ने कहा- “नहीं मैं जीवात्मा हूँ। शरीर ही पुत्र हो सकता है। सारे सम्बन्ध शरीर के ही है जहाँ शरीर से सम्बन्ध छूटा वहीं सब सम्बन्ध छूट जाते हैं। यह कर कर शरीर फिर निष्प्राण हो गया। चित्रकेतु का जैसा सारा मोहावरण नष्ट हो गया। वे पुत्र के शव का अन्तिम संस्कार संपन्न करके लौटे तो देवर्षि नारद ने कहा- अनात्म वस्तु में सम्बन्ध करना ही शोक का कारण है अतः किसी के लिये आसक्ति न करते हुए अपने कर्त्तव्य कर्मों को भली−भांति पूरा करते चलना ही संसार में सुखी रहने का सर्वोत्तम साधन है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118