साधना से सिद्धि का मर्म

May 1988

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आध्यात्मिक साधनाएं व्यक्ति को पूर्णता ओर ले जाने के निमित्त की जाती है। इन साधनाओं का मूलभूत आधार है-आत्म समीक्षा। बिना इसके हवाई किले की तरह कोई भी साधना टिन नहीं सकती। अपने आपकी समीक्षा करना व्यक्तित्व के वर्तमान स्वरूप को समझना आध्यात्मिकता की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। क्योंकि इसी आधार पर त्रुटियों का संशोधन तथा न्यूनता की पूर्ति करना सम्भव है। इस आत्म-निरीक्षण का एक और भी पहलू है कि जो विशिष्टताएं-आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है, उनका यदि विकास नहीं हुआ है तो उसकी आवश्यकता अनुभव करते हुए आत्मोत्कर्ष का प्रयास सम्भव हो सकेगा।

वस्तुतः मनुष्य के पास ऐसा बहुत कुछ है जो सदा अप्रकट और अविकसित ही बना रहता है। मस्तिष्कीय क्षेत्र की अनूठी क्षमताएं और अन्तः करण की विविध विशिष्टताएं ऐसी हैं जो हर किसी के पास न्यूनाधिकता में पाई जाती है। यदि आत्म-निरीक्षण की कला हस्तगत हो सके तो मनुष्य इन दिव्य केंद्रों का स्थान एवं स्वरूप समझ सकता है और उन्हें विकसित करने के लिए सब कर सकता है जो सुदृढ़ संकल्प शक्ति के सहारे निश्चित रूप से हो सकता है।

यदि लक्ष्य और आदर्श ईश्वर प्राप्ति जैसा उच्च हो तो इसकी प्राप्ति कर्मकाण्डों के बलबूते सम्भव नहीं। इसके लिए आन्तरिक परिष्कार और उत्कृष्ट चिन्तन-चरित्र अपनाने की आवश्यकता है। तद् विषयक जो कुछ परिवर्तन या विकास करना है, उसका स्वरूप सामने आने की बात तभी बनती है जब आत्म निरीक्षण का सिलसिला परिपूर्ण उत्साह के साथ चलाया जायें।

यह भ्रम जितनी जल्दी दूर किया जा सके उतना ही अच्छा है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए अमुक कर्मकाण्ड ही सब कुछ है। अधिकाँश लोग इसी भ्रम में ग्रसित रहकर अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप पूजा-विधानों में संलग्न रहते और सोचते हैं कि ईश्वर के भी मनुष्य की भाँति चर्म चक्षु ही हैं। वह मात्र क्रिया-कृत्यों को ही देख पाता है। किसी का अंतरंग देखने या परखने की उसमें क्षमता नहीं है या है तो इसे महत्व नहीं देता और हेय व्यक्तियों को भी उनके कर्मकांडों जैसे बाह्य दिखावे से प्रभावित होकर अपने सिंहासन पर बैठा लेता है।

पापों के क्षमा होने या उल्टे-सीधे नाम रटने से सभी दुष्कृत्यों को अनदेखे करने जैसी बातें गल्प ही है। तीर्थाटन अरइि कृत्यों में भी यदि कोई चाहे तो दिशा-निर्देशन प्राप्त कर सकता है। पर पापों के नष्ट होने या कर्मफल के उलट जाने की बात सोचना प्रकारान्तर से ईश्वर की बड़ी व्यवस्था उलट जाने की दुराशा रखना है। परम सत्ता के दरबार में पुजारियों के साथ पक्षपात होने तथा बिना पुजारियों को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकने की उपेक्षा जैसा कोई विधान नहीं है। इस तथ्य को समझते ही तुरन्त यह समस्या आगे आती है। इस तथ्य को समझते ही तुरन्त यह अभ्यास करना चाहिए ताकि आत्म निरीक्षण के साथ आत्म सुधार का प्रयास भी चल पड़ें। इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। इस क्षेत्र में कोई सस्ते उपचार-आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते।

आत्म-निरीक्षण में सर्वप्रथम शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभव करने का प्रसंग आता है। इसके बिना वह भ्रान्ति बनी रहती है जिसे अध्यात्मक की भाषा में माया कहा गया है। माया का सार-संक्षेप इतना ही है कि चेतना अपने आप को मात्र शरीर मानती रहती है और उसके निर्वाह तक सीमित न रहकर उसे सजाने, मोटा करने, टप दिखाने में लगी रहती है। वासनाओं एवं अहंकार की पूर्ति को ही सफलता एवं प्रसन्नता का केन्द्र बिन्दु मान लिया है इतना ही नहीं शरीर के साथ संपर्क साधने वाले कुटुम्बी संबंधी मित्र परिचित ही इस शरीराभ्यास के क्षेत्र में घुस पड़ते है। इन्हीं सबको वैभववान बनाने के लिए इच्छाओं और चेष्टाओं का केंद्रीकरण हो जाता है। जीवन की अवधि और शारीरिक मानसिक शक्ति का आना इसी क्षेत्र में होता रहता है। कूप मण्डूक जैसी-गूलर के फल के भीतर रहने वाले भुनगों की तरह मनुष्य की स्थिति हो जाती है और आत्मा-परमात्मा के संबंध में कुछ गंभीर विचार तक नहीं कर पाता। फिर सुधार विकास की प्रक्रिया चले भी तो कैसे?

आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण-आत्म-निरीक्षण जितना गंभीर और प्रखर होता है। उसी अनुपात से शरीर और आत्मा की भिन्नता का वास्तविक आभास होती है अन्यथा तोतारटन्त की तरह आत्मा-परमात्मा की चर्चा का बाल विनोद-चलता रहता है।

माया के बंधन शिथिल होने या कटने का एक मात्र उपाय है कि अपनी सत्ता की स्थिति को समझा जाये। यह अनुभूति विकसित हो सके तो ही आत्मा का महत्व एवं हित सूझ पड़ता है और शरीर के पक्ष में झुकी हुई सारी प्रकृति को सन्तुलित करने का मन होता है। शरीर संसार में अनुरक्त रहता है। और शरीर के पक्ष में झुकी हुई सारी प्रकृति को सन्तुलित करने का मन होता है। शरीर संसार में अनुरक्त रहता है और आत्मा की प्रायः उपेक्षा करता है। यह सोच तक नहीं पाता और उसकी भी कुछ माँग, पुकार, सुखा एवं आवश्यकताएं भी है। इस प्रकार की अनुभूति तभी न्यौछावर किए रहने के ढर्रे में परिवर्तन किया जाये। आत्मा को परमात्मा का सन्देश सुनने और आह्वान को अंगीकार करने की बात अन्तरंग की गहराई तक प्रवेश कर जाती है-तभी यह सूझ पड़ता है कि शरीर की तरह के निमित्त भी कुछ किया जाना चाहिए।

क्या किया जाना चाहिए? इसके उत्तर में दो तथ्य उभर कर सामने आते है। यह एक कि आत्मा गौरव के अनुरूप, व्यक्तित्व के ढलने में जो त्रुटियां चल रही है उनका कठोरतापूर्वक नियमन किया जाये। इसी को तप कहते है। इस संदर्भ में कठोरता बरतनी होती है अन्यथा अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियाँ सहज पीछा नहीं छोड़ती। तपश्चर्या का अभिप्राय शरीर को कष्ट देना नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है ऐसा मनोबल विकसित करना जो दुष्प्रवृत्तियों से मल्लयुद्ध करके उन्हें परास्त कर सके। इसी के संशोधन पक्ष कहते है।

इसके अतिरिक्त दूसरा पक्ष श्रेष्ठता के अभिवर्धन का है। यह आत्म-विश्वास एवं आत्म-बल के आधार उपर्युक्त क्रम बना लेने से भी सम्भव हो सकता है।

इसके लिए सत्प्रवृत्तियों के समन्वय द्वारा ईश्वर की उपासना सहायक होती है। इसे ही योग कहते है। विराट् ब्रह्म से अपने आप को जोड़ने ही योग है। क्षुद्र स्वार्थपरता के-संकीर्ण बन्धनों को शिथिल करने का अभ्यास करना ही योग है। ऐसे साधक का दृष्टिकोण समता और क्रिया कल्याण सर्वजनीन ति साधन का होता है इसके लिए कर्म-ज्ञान-भक्ति किसी भी मार्ग अथवा इनके समन्वय का अभ्यास प्रारम्भ किया जा सकता है। यही है यथार्थवादी आत्मिक प्रगति का राजमार्ग जिसे अपनाकर कोई भी साधक पूर्णता के लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। यही साधना से सिद्धि का मर्म है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के शार्टकटों की कोई गुँजाइश न अब है, न कभी रहेगी। जो भी व्यक्ति महापुरुषों-सिद्धपुरुषों- महात्माओं की ढूंढ़ खोज मात्र सिद्धि प्राप्ति हेतु करते हैं, उनके सही मार्गदर्शन यही है कि वे सर्व प्रथम इस प्रक्रिया का ककहरा पढें आत्म-शोधन की प्रक्रिया समझें, उसे अपनायें। इतना बन पड़ने पर ही आध्यात्मिक प्रगति की वह कुँजी हाथ लग सकती है जो व्यक्ति को पूर्ण पुरुष बनाती है।


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