ध्यान द्वारा आधि व्याधियों का समग्र उपचार

May 1988

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सूर्य किरणें बिखरी रहती हैं तो उनसे गर्मी और रोशनी भर प्राप्त होती है किन्तु एक छोटे आतिशी शीशे द्वारा 2 इंच घेरे की किरणें एकत्र कर ली जाये तो उतने भर से अग्नि प्रकट हो जाती है और यदि उसका विस्तार किया जाये तो वह चिनगारी भयंकर दावानल के रूप में विस्तृत की जा सकती है।यही बात मानवी मन के संबंध में भी लागू होती है। जो सतत् निरर्थक घुड़दौड़ लगाता रहता है। इसने न केवल मनुष्य बाह्य जीवन की समस्याओं में उलझा रहता है वरन् अपनी असीम शक्तियों सम्पद का भी अपव्यय करता रहता है। किन्तु जब मन की भगदड़ को किसी विषय पर केन्द्रित कर लिया जाता है तो उसकी बेधक शक्ति अत्यधिक हो जाती है। उसे जिस भी काम में नियोजित किया जाये उसे अधिक सशक्तता और विशेषता के साथ करती है। ध्यान द्वारा मन के बिखराव को रोका जा सकता हैं ओर इस निग्रह से जो शक्ति एकत्रित होती है उसे अभीष्ट प्रयोजन में लगाकर असाधारण प्रतिफल प्राप्त किया जा सकता है।

ध्यान किसी भौतिक प्रयोजन में भी लगाया जा सकता है और अध्यात्म उद्देश्य के लिए भी। वैज्ञानिक, कलाकार, शिल्पी, साहित्यकार अपना ध्यान इन कार्यों में संलग्न करके तद्विषयक सफलताएं पाते हैं और जिन्हें अन्तर्मुखी होकर आत्मशोधन करना है वे उस दिशा में प्रगति करते है। प्रयोजन विशेष के अनुसार ध्यान को वैसा मोड़ दिया जा सकता है। इस प्रक्रिया की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर भी अब विशद् अनुसंधान किया जा चुका है।

ध्यान साधना से शरीर-क्रिया-विज्ञान पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों की खोज का कार्य विभिन्न देशों क मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने किया है। भारत संहिता अमेरिका, इंग्लैण्ड, पश्चिम जर्मनी के विभिन्न संस्थानों में इस प्रकार के अनुसंधान कार्य चल रहे है। तंत्रिका विशेषज्ञों का कहना है कि मननशील एकाग्र ध्यानस्थ मस्तिष्क में अनेकों विशेषताएं विकसित हो जाती है। फलतः मनुष्य का संबंध सृजनात्मक बौद्धिकता से जुड़ता और उसी परिणति को प्राप्त होने लगता है।

पाया गया है कि ध्यान की दशा में व्यक्ति के मस्तिष्क और शरीर में कई तरह की जैव रासायनिक प्रक्रियाएं सक्रिय हो जाती है। कई अवाँछनीय क्रियाएं उसी समय निष्क्रिय उसी समय निष्क्रिय हो जाती है। मिनिसोटा के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डाँ. डैविड डब्ल्यू. “ओर्मे जान्स ने आटोनामिक स्टैबिलिटी एण्ड मेडीटेशन” नामक अपने अनुसंधान-निष्कर्ष में बताया है कि ध्यान के द्वारा के तंत्रिका तंत्र के क्रिया-कलापों में एक नई चेतना आ जाती है और उनके सभी कार्य नियमित एवं स्थायी रूप में होने लगते है। शरीर की त्वचा बाह्य वातावरण के प्रति प्रतिरोधी क्षमता धारण कर लेती है। और उस पर आये दिन पड़ने वाले वातावरण के तनाव, साइकोसोमैटिक बीमारियाँ, व्यावहारिक अस्थायित्व एवं तंत्रिका तंत्र की विभिन्न कमजोरियाँ आदि दूर हो जाती है।शरीर के अन्दर शक्ति का संरक्षण और भण्डारण होने लगता है। और यह अतिरिक्त ऊर्जा शरीर और मन के विभिन्न कार्यों व्यवहारों को अच्छे ढंग से सम्पादित करने के कार्य में प्रयुक्त होने लगती है। चिकित्सक जान्सन के कथनानुसार ध्यान का नियमित अभ्यास से जल्दी ही छुटकारा पा लेते है। हाइपों कोन्ड्रियाँ, सीजोफे्रनिया, टायलरमेनीफेस्ट एंक्जाइटी जैसी बीमारियों को ध्यान द्वारा नियंत्रित करने में उन्हें असाधारण सफलता मिली है। कुछ महीनों तक ध्यान का अभ्यास कराने पर उन्हें लोगों के व्यक्तित्व में आशाजनक सत्परिणाम देखने को मिले। अधिक दिनों तक ध्यान के नियमित अभ्यास का क्रम बनाये रखने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में असाधारण रूप में वृद्धि होती है।

अमेरिका के दो मूर्धन्य वैज्ञानिकों-राबर्ट शा और डेविड कोल्ब ने ध्यान के अभ्यासियों पर किये गये अपने प्रयोगों में पाया है कि उन लोगों के शरीर और मस्तिष्क के बीच अच्छा समन्वय, सतर्कता में वृद्धि, मतिमन्दता में कमी और प्रत्यक्ष ज्ञान, निष्पादन-क्षमता एवं रिएक्शन टाइम में वृद्धि असामान्य रूप से होती है। मिरट टे्रसिंग टेस्ट में ऐसे व्यक्ति अग्रणी निकले है। उनके शारीरिक न्यूरोमस्कुलर समाकलन की दक्षता बहुत चढ़ी-बढ़ी हुई पाई गई।

आन्द्रे एस. जोआ ने हालैण्ड में हाई स्कूल के छात्रों को एक वर्ष तक ध्यान का अभ्यास कराया। नियमित ध्यान करने वाले छात्रों की सामान्य पाई गई। कठिन प्रश्नों के उत्तर देने व हल करने में ध्यान करने वाले छात्र अग्रणी रहें। उनकी स्मृति क्षमता में भी वृद्धि हुई। शैक्षणिक प्रदर्शन में ये छात्र सर्वश्रेष्ठ रहें।

वैज्ञानिक विलियम सीमैन ने बताया है कि प्रथम दो महीने तक ध्यान करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व में विकास होते देखा गया है। ध्यान का अभ्यास नियमित क्रम से करते रहने पर अन्तःवृत्तियों अन्तःशक्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। और चिन्ता मुक्त हुआ जा सकता है।

डा. थियोफोर नामक वैज्ञानिक ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि ध्यान करने वाले व्यक्तियों की साइकोलॉजी में असाधारण रूप से परिवर्तन होता है। ऐसे व्यक्तियों में घबराहट, उत्तेजना, मानसिक तनाव, मनोकायिक बीमारियाँ स्वार्थपरता आदि विकारों में कमी पाई गई है। तथा आत्म-विश्वास और सन्तोष में वृद्धि, सहनशक्ति, स्थिरता, कार्यदक्षता, विनोद प्रियता, एकाग्रता जैसे सद्गुणों की वृद्धि ध्यान के प्रत्यक्ष लाभ मिलते है।

वैज्ञानिकों का मत है कि ध्यान का प्रयोग उच्च रक्तचाप को कम करता है। डा. रावर्ट कीथ वैलेस और हर्बट वेन्सन ने उच्च रक्तचाप युक्त व्यक्तियों का ध्यान के पूर्व और ध्यान के बाद एक सजा अधिक बार उनका सिस्टोलिक और आटीरि ब्लड प्रेशर-रिकार्ड किया। ध्यान करने के पश्चात् उक्त रोगियों के रक्तचाप में महत्वपूर्ण कमी आंकड़े डा. रावर्ट कीथ वैलेस ने अपनी पुस्तक में लिखा है। कि ध्यान के आक्सीजन की खपत तथा हृदय की गति कम जाती है। इसके परिणाम स्वरूप रक्त में विद्युत अम्ल रूपी विष लैक्टेट काफी मात्रा में कम हो जाते है फलतः साधक को हल्की योग निद्रा आने है शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में अभिवृद्धि से मनोबल बढ़ाने तथा अभीष्ट प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने में ध्यान अपनी महत्वपूर्ण भूमि सम्पादित करता है।

मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक द्वय फिलिप फर्गुसन और जान सी गोवान का निष्कर्ष है कि दिनों तक ध्यान करते रहने का व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है। ध्यान लगाया गया समय चक्रवृद्धि ब्याज सत्परिणाम देता है।

ध्यानयोग अब चिकित्सा विज्ञान में एक विधा रूप में प्रतिष्ठा पा चुका है। और भविष्य में इस माध्यम से असाध्य रोगों के उपचार और सम्पत्ति रोगों की रोकथाम की संभावना भी बनी है। कि ध्यान साधना का यह भौतिक पक्ष है। इससे न केवल जीवन शक्ति के अभिवर्धन तथा एकाग्रताजन्य संतुलित मनःस्थिति का लाभ मिलता है। विश्वव्यापी दिव्य सत्ता के साथ घनिष्ठता बना लेते और उसके साथ संपर्क साथ सकने वाले आत्मिक चुम्बकत्व का भी विकास होता है। ध्यान में यदि इस मार्ग पर चलते-चलते मनोनिग्रह लेकर मनोलय तक की स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा समाधि का, आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन व लाभ मिल सकता है। ध्यानयोग का यही वास्तविक लक्ष्य है।


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