जीवन सम्पदा की उपेक्षा न करें!

May 1988

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एक सेठ बड़ा चतुर था और बुद्धिमान भी। उसने अपनी चतुरता के बल पर बहुत सम्पत्ति कमाई। व्यापार चला और बहुत मुनाफा हुआ। घर धन धान्य से भर गया। स्वर्ण मुद्राओं की कमी न थी। उनसे तिजोरियाँ भरी थी।

घर में तीन व्यक्ति थे। पति-पत्नि और एक छोटा बच्चा। तीनों सुखपूर्वक रहते और प्रसन्नता पूर्वक दिन गुजारते।

दुर्दैव से एक दिन घर में अचानक आग लग गई। पता चला जब लपटेँ चारों और फूटने लगीं। घटना अकस्मात घटी। पहले से वैसा होने की आशंका न थी, ताकि बुझाने का कुछ प्रबंध करके रखा जाता। जब यह दुर्घटना घटी थी तब आधीरात बीत चली थी। पड़ोस के सब लोग भी गहरी नींद सोये हुए थे। किसी को आग की लपटें दिखी भी नहीं।

आग जब पलंग के निकट आ गई तब सेठ सेठानी जगे। भयंकर दृश्य चारों ओर देखा तो हड़बड़ा कर बैठें। जल्दी बुझने की सूरत नहीं थी। चिल्लाये पुकारे पर आवाज पड़ोस तक में नहीं पहुँची सो दोनों मिलकर ही बहुमूल्य वस्तुएं बचाने और उन्हें बाहर निकालने में जुट गये। साथ ही पड़ोसियों को भी सहायता के लिल आवाज देते रहें।

सामान निकालने का क्रम जारी रहा। पड़ोसी भी कुहराम सुनकर जग गये और आग बुझाने में सहायता करने के लिए दौड़े। वे आग भी बुझाते रहे और समान निकालने में भी सहायता करते रहे। बहुतों के बहुत प्रयास से आग काबू में आ गई। सामान भी अधिकाँश बाहर निकाल दिया गया।

सेठ सेठानी ने बचे हुए सामान पर दृष्टि डाली तो संतोष की साँस ली। देखा तो प्रतीत हुआ कि बहुमूल्य सामान प्रायः सभी अग्नि की चपेट से बचा लिया गया था। जो जला था वह कम मूल्य का था। बचे धन के सहारे व्यापार चलता रह सकता था। सोचा फिर कुछ दिन के प्रयत्न से उतना ही कमा लेंगे जितना जल गया था।

जब सब कुछ शान्त हो गया तो सूझा कि अपना प्राण प्यारा बच्चा तो है ही नहीं, सोचा भीड़ के साथ कहीं चला गया हों। पड़ोसियों के घरों में खोज बीन की गई पर वह वहाँ कहीं न था। जले हुए घर में प्रवेश करके देखा गया तो प्रतीत हुआ कि सोने वाले कमरे में ही पलंग पर पड़ा रहा और जलकर समाप्त हो गया।

हा-हा कार मच गया। सेठ-सेठानी दहाड़ मार कर रोने लग गये। विवाह के बहुत दिन बाद यह बच्चा हुआ था। बड़ा सुन्दर भी था, हंसमुख भी। सभी आँख का तारा बन गया था, माता-पिता तो उस पर प्राण देते थे। पर अब क्या हो सकता है। जल हुई लाश के रूप में बच्चा आँखों के सामने पड़ा था। मृत शरीर को भी वे आँख से ओझल नहीं करना चाहते थे छाती से लगाये बैठे थे। विलाप का अन्त होते न देखकर संबंधी, कुटुम्बियों ने उसकी अन्त्येष्टि की। माता-पिता विक्षिप्त बने किंकर्तव्य विमूढ बने बैठे थे।

सहानुभूति प्रकट करने आने वालों में से एक ने कहा-अग्नि काण्ड देखकर आप लोग सम्पत्ति बचाने तो दौड़े पर बच्चे का ध्यान क्यों नहीं दिया? उसे प्रथम खोजने और बचाने की याद क्यों नहीं रही?

दुर्घटना की चर्चा जहाँ तहाँ बहुत दिनों तक होती रहीं। एक विचार गोष्ठी में उसी घटना का उदाहरण देते हुए एक ज्ञानी कह रहे थे-मनुष्य जीवन रूप बालक को उपेक्षा में पड़ा और दुर्घटना का शिकार होने देता है। धन-दौलत को ही सब कुछ समझता है और उसी को बढ़ाने-बचाने के लिए हाथ-पैर पीटता रहता है। अन्त में इतना घाटा है जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। उस सेठ की तरह हम सब भी तो जीवन सम्पदा की ऐसी ही उपेक्षा करते है।


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